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बीतता अक्टूबर पलटकर देख रहा है. सुबह के छह बजे हैं. यह निर्मल वर्मा की सुबह की चाय का वक्त है. मेरे पास एक प्याला चाय है और हैं निर्मल वर्मा की ढेर सारी स्मृतियां. पेड़ों की शाखों पर खिले धूप के गुच्छे अच्छे लगने लगे हैं. गुलाबी ठंड में सिमटी सड़कें अपने आंचल में पीले और लाल फूलों की पंखुडियां समेटे हुए मुस्कुरा रही हैं. दूर किसी कोने पर चाय की टपरी के पास कुछ युवा चाय पी रहे हैं. पास ही नीली गर्दन और सुनहरे पंखों वाली चिड़िया बांस के झुरमुट में छुपने और दिखने का खेल, खेल रही है.
थोर्गियर अभी-अभी यहीं कहीं से गुजरे हैं. निर्मल उन्हें देख मुस्कुरा रहे हैं. धीमे कदमों से चलते हुए वो थोर्गियर के कंधे पर हाथ रखते हुए बेहद धीमे अंदाज और आवाज में कहते हैं, ‘‘आदमी को पूरी निर्ममता से अपने अतीत में किये कार्यों की चीर-फाड़ करनी चाहिए, ताकि वह इतना साहस जुटा सके कि हर दिन थोड़ा सा जी सके.’’
थोर्गियर चाय की टपरी पर रुककर चाय के लिए हाथ बढ़ा देते हैं. निर्मल की बात को चाय के साथ चुभलाते हुए वो नीली गर्दन और सुनहरे पंखों वाली चिड़िया को देखने लगे हैं.
न...न...यह प्राग नहीं है, बर्लिन भी नहीं, पेरिस नहीं, कोपेनहेगन भी नहीं. यह 2019 है. लगभग बीत चुके अक्टूबर की 14 बरस पुरानी पगडण्डी पर निर्मल वर्मा की स्मृति की एक शाख अब तक हिलती है.
निर्मल की डायरी के पन्नों को पलटना अपने भीतर की तमाम गांठों को खोलने सरीखा लगता है. ये पन्ने जेहन पर छाई धुंध को छांटने में मदद करते हैं. उनकी डायरी के इन पन्नों का हाथ थाम काफ्काई हरारत को अपने भीतर उतरते महसूस करना सुख है. लंदन की सड़कों पर टहलते हुए निर्मल की डायरी के पन्नों की याद का सुख है. किसी दोस्त से प्राग के किस्से सुनना और बर्लिन की यात्रा पर निकल पड़ना सुख है. शिमला की सड़कों से गुजरते हुए शाल को शरीर पर कसकर लपेटते हुए किसी पगडंडी पर खुद को चलते देखना सुख है.
किसी यात्रा के दौरान बड़े से डैने वाले सफेद पंछी (जहाज) के कांधे पर बैठकर बादलों के गांव में विचरते हुए डूबते सूरज को करीब से देखना और याद करना किसी अल्हड़ सी पहाड़ी धुन को, धुंध में डूबी वादियों में डूबते हुए खुद को डूबने से बचा भी लेना और चीड़ों पर झरती चांदनी को हथेलियों पर उतरते हुए महसूस करना सुख है. यह निर्मल के करीब से होकर गुजरने का सुख है, उन्हें महसूस करने का सुख है.
सुख की इस जब्त में उनकी वो सुफेद कोमल और बेहद मुलायम हथेलियों की याद लाजिम है, जब कई बरस पहले ऐसे ही एक मौसम में उनका हाथ मेरे हाथ में था. उस स्नेहिल स्पर्श की स्मृति पलकों के भीतर चमकता हुआ सुख है.
जीवन को देखने का नजरिया ही तो जीवन को जीवन बनाता है. वरना सांसों के कारोबार से ज्यादा भला क्या है जीवन. निर्मल के करीब बैठना, उस नजरिये को बनते हुए देखना है. निर्मल का नजरिया नहीं, उनकी जानिब से हमारा खुद का नजरिया. जीवन के द्वंद्व, उहापोह, आसक्ति, विरक्ति, सामाजिक चेतना, राजनैतिक पक्षधरता, जीवन, मृत्यु सब पर सोचने का एक ढब मिलता है उनके यहां.
उनकी डायरियां सिर्फ यात्राओं के कुछ पड़ाव भर नहीं हैं, वो पूरी यात्रा हैं, जीवन की यात्रा. मनुष्य के चेतनशील, संवेदनशील बनने की यात्रा. एक ईमानदार यात्रा जिसमें सिर्फ सुख नहीं था. इसी के साथ यह बात भी मन में उठती है कि सुख आखिर है क्या? वो लिखते हैं,
उनका कहा कान में गूंजता है, ‘‘जिस हद तक तुम इस दुनिया में उलझे हो, उस हद तक तुम उसे खो देते हो.’’
डायरियों के साथ यह खूबसूरत बात होती है कि वो ईमानदारी से खुद को अभिव्यक्त करने का ठीहा बनती हैं. डायरियों की बाबत निर्मल खुद कहते हैं, ‘डायरी हमेशा जल्दी में लिखी जाती है. उड़ते हुए, अनुभवों को पूरी फड़फड़ाहट के साथ पकड़ने का प्रलोभन रहता है, अनेक वाक्य अधूरे रह जाते हैं, कई बार अंग्रेजी के शब्द घुमड़ते चले आते हैं एक लस्तम-पस्तम रौ में बहते हुए.’
इस लस्तम-पस्तम रौ का अलग ही आकर्षण है. इसी में मिलते हैं कई ईमानदार सवाल और कई बेहद ईमानदार जवाब भी. जीवन अपनी रवानगी में बहता हुआ लस्तम-पस्तम दरिया ही तो है.
लगता है निर्मल कहीं गए नहीं हैं, यहीं हैं. बस कि जितनी देर में चाय का पानी खौल चुका होगा, चिड़िया अपने बच्चों को कोई गीत सुना चुकी होगी, उतनी देर में वो आकर बैठेंगे ड्राइंग के सोफे पर चाय का इंतजार करते हुए. और पूछेंगे, ‘कैसा चल रहा है जीवन.’ हमारे पास दो ही शब्द होंगे कहने को 'लस्तम-पस्तम'. वो मुस्कुरा देंगे.
(लेखिका युवा साहित्यकार हैं. लम्बे समय तक पत्रकारिता से जुड़े रहने के बाद इन दिनों सोशल सेक्टर में कार्यरत हैं)
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