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सआदत हसन मंटो से पहली मुलाकात 1996 में हुई थी. आप सोच रहे होंगे कि मंटो को गुजरे जमाना हो गया तो मैं मंटो से मिला कैसे? उनकी ‘बदनाम कहानियों’ के जरिए. 2003 में मुंबई जाना हुआ और उनकी ‘मीना बाजार’ हाथ लगी तो फिल्मी दुनिया के बारे में कई किस्से पढ़ने को मिले. उन सितारों के बारे में जिनमें से ज्यादातर को लोग आज भूल चुके हैं. मंटो को पढ़ने के बाद मैंने बहुत से दोस्तों से पूछा कि क्या वो ‘श्याम’ को जानते हैं. सबका जवाब न में था. जबकि श्याम अपने दौर के मशहूर सितारे थे.
यही होता है बड़े से बड़े सितारे कुछ समय बाद गुजर जाते हैं. लेकिन शब्द जिंदा रहते हैं. आवाज जिंदा रहती है. बाद में 2004 में दिल्ली लौटने पर राजकमल प्रकाशन से उनका संकलन ‘सआदत हसन मंटो - दस्तावेज’ खरीदा. बीते हफ्ते जब मंटो पर लिखने को कहा तो लगा कि एक बार फिर मंटो को जी लिया जाए. उनकी नजरों से उस दौर को देखा जाए जिस दौर में दुनिया में सबसे अधिक लोग मारे गए. जो दौर मानवता के माथे पर एक कलंक है.
मंटो ने दो किस्म की भूख पर अफसाने लिखे. पेट और जिस्म की भूख. मंटो का मानना था कि
इसलिए पेट की भूख और औरत-मर्द रिश्ता उनका पसंदीदा विषय थे. वो अपनी कहानियों की हीरोइन कहीं से ढूंढ लाते थे. चाल, वेश्यालय, शरणार्थी शिविर, सड़क पर… कहीं से भी ढूंढ लाते थे. लेकिन हीरोइन वही औरत बन सकती थी जिसमें कुछ खास हो. “मेरे पड़ोस में अगर कोई औरत हर रोज खाविंद (पति) से मार खाती है और फिर उसके जूते साफ करती है तो मेरे दिल में उसके लिए जर्रा बराबर हमदर्दी पैदा नहीं होती, लेकिन जब मेरे पड़ोस में कोई औरत खाविंद से लड़कर और खुदकुशी की धमकी देकर सिनेमा देखने चली जाती है और मैं खाविंद को दो घंटे तक सख्त परेशानी की हालत में देखता हूं तो मुझे दोनों से एक अजीबो-गरीब किस्म की हमदर्दी पैदा हो जाती है.”
वो अपनी हीरोइन के बारे में आगे और साफ तरीके से बताते हैं. कहते हैं कि
इसलिए मंटो ने हर जगह अपनी इन हीरोइनों को खोजा और उनके जरिए दुनिया को बताया कि वह कितनी गंदी है. बताया कि जो दुनिया हमने बनाई है वह कितनी क्रूर और वीभत्स है. जिसे हम समाज कहते हैं, वह कितना असभ्य, भद्दा और बीमार है. मंटो ने सच लिखा और सच बर्दाश्त करने का हौसला सबमें नहीं होता इसलिए मंटो पर कई मुदकमे चले.
“झेला” इसलिए कि मुकदमे लड़ने का उन्हें कोई शौक नहीं था. लेकिन उससे पहले मुकदमा होने पर वो मुंबई से लाहौर जाया करते थे. अंदाजा लगाइये कि कितना कष्ट होता होगा. मगर एक लेखक होने के नाते उन्होंने वह सब बर्दाश्त किया. उन पर दो बार जुर्माना लगा और एक बार तीन महीने की जेल भी हुई. ये और बात है कि थोड़ी गुजारिश के बाद जज ने उन्हें जमानत दे दी और वो जेल जाने से बच गए. बाद में ऊपरी अदालत से उन्हें राहत मिल गई.
मंटो ने अश्लीलता के बारे में विस्तार से लिखा है. उनका कहना था कि अश्लीलता लोगों के दिमाग में होती है या फिर उन कहानियों में और तस्वीरों में जो औरत के जिस्म की नुमाइश करते हैं इस नजरिए से कि लोग छुप-छुप कर उसे देखें और उनके भीतर वासना जागे. लेकिन उनकी कहानियों में ऐसा कुछ भी नहीं है. बात सही थी. मंटो की कहानियां पढ़ने पर लोग स्तब्ध रह जाते हैं. जैसे उनके सीने पर किसी ने कोई बड़ी चट्टान रख दी हो और सांस और शब्द गले में अटक गए हों.
जैसे समंदर की किसी बेलगाम लहर ने आसमान में लहराने के बाद जमीन पर जोर से पटक दिया हो और सारी हड्डियां चूर-चूर हो गई हों. हिलने-डुलने की ताकत खत्म हो गई हो. जैसे कोई बिजली का जोरदार करंट लगा हो और शरीर का जर्रा-जर्रा उस झटके से कांप रहा हो. मंटो की कहानियों में अश्लीलता को छोड़ कर सारे इमोशन्स थे. प्यार, तकरार, गरीबी, मजबूरी, बेबसी, भूख, जिद, बगावत… सबकुछ था मगर अश्लीलता नहीं थी.
मंटो ने खुद कहा कि दरअसल लोग बेचैन इसलिए हो जाते हैं कि वो जमाने की नंगई बर्दाश्त नहीं कर पाते. “ऐतराज किया जाता है कि नए लिखनेवालों ने औरत और मर्द के जिंसी ताल्लुकात ही को अपना मौजू बनाया है. मैं सबकी तरफ से जवाब नहीं दूंगा.
अपने मुताल्लिक इतना कहूंगा कि यह मौजू मुझे पसंद है. क्यों है? बस है. समझ लीजिए कि मुझमें perversion है और अगर आप अक्लमंद हैं, चीजों के अवाकिबो-अवातिफ अच्छी तरह जांच सकते हैं तो समझ लेंगे कि यह बीमारी मुझे क्यों लगी है. जमाने के जिस दौर से हम इस वक्त गुजर रहे हैं अगर आप उससे नावाकिफ हैं तो मेरे अफसाने पढ़िए! अगर आप उन अफसानों को बर्दाश्त नहीं कर सकते तो इसका मतलब यह है कि यह जमाना नाकाबिले बर्दाश्त है.”
मंटो कहते हैं कि अगर आप चाहते तो वो या उनके जैसे तमाम लेखक ऐसी कहानियां लिखना बंद कर दें या वो सभी अप्रासंगिक हो जाएं तो उसका सीधा सा तरीका है कि समाज को इतना बेहतर बना दो कि उनकी कहानियां झूठी लगने लगें.
मंटो से एक सवाल अक्सर हुआ कि उन्होंने आजादी के संघर्ष पर ज्यादा कुछ नहीं लिखा. इसकी वजह मंटो ने एक बार खुद ही बयां की. उन्होंने बताया कि उन्हें जेल जाने से डर लगता था. वो कहते थे कि जिस तरह की जिंदगी वो जी रहे हैं वह अपने आप में जेल जैसी है. इसलिए जेल के भीतर जेल होगी तो वो सह नहीं सकेंगे. लेकिन मंटो ने जो कहानियां लिखी हैं और जिंदगी के जो ब्योरे दर्ज किए हैं उनमें 20वीं सदी में धर्म के नाम हुई सबसे बड़ी हिंसा का क्रूरतम चेहरा मौजूद हैंठ
कोशिश के बावजूद हिंदुस्तान को पाकिस्तान से और पाकिस्तान को हिंदुस्तान से अलहदा न कर सका. मुहाजिरों के कैंप देखे. यहां खुद इंतिशार के रोंगटे खड़े देखे. किसी ने कहा अब तो हालात बहुत बेहतर हैं. मैं सोचने लगा कि ये हालात की बेहतरी है तो अबतरी मालूम नहीं कैसी होगी…. दो धारे बह रहे थे. एक जिंदगी का, एक मौत का.” मंटो को पढ़ते वक्त बार-बार मन करता है कि हम उन सारी किताबों को जला क्यों नहीं देते जो इंसान को इंसान से अलग करती हैं, उन सारे ठिकानों को हम उजाड़ क्यों नहीं देते जहां से इंसान को बांटने का कारोबार चलता है.
मंटो ने एक जगह कहा था कि उनकी जिंदगी में तीन हादसे हुए थे. पहला तब जब 11 मई 1912 को उनका जन्म हुआ. दूसरा शादी और तीसरा हादसा उनका कहानीकार बनना था. ये हादसा उनकी मौत के साथ 18 जनवरी, 1955 को थम गया. मौत से याद आया कि बलराज मेनरा और शरद दत्त के संपादन में छपे उनके संकलन के पहले पन्ने पर लिखा है कि संकलन मंटो के पसंदीदा लेखक “मोपांसा” के नाम समर्पित है - “जिसके जिस्म की मौत सौ साल पहले हुई थी”. दूसरे शब्दों में कहें तो फ्रांस के महान कहानीकार "मोपांसा" जिंदा हैं और हमारे सआदत हसन मंटो भी जिंदा हैं. वो तब तक जिंदा रहेंगे जब तक रोटी और जिस्म की भूख रहेगी. जब तक मर्द और औरत रहेंगे.
(ये आर्टिकल सबसे पहले मई 2018 में प्रकाशित हुआ था. सआदत हसन मंटो के जन्मदिन पर आज इसे दोबारा प्रकाशित किया जा रहा है.)
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