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खुद से सवाल करते ये एक ऐसे साहित्यकार के शब्द हैं, जिन्हें भारतीय साहित्य के कल और आज के बीच का 'सेतु' माना जाता है... पद्मभूषण हजारी प्रसाद द्विवेदी.
19 अगस्त 1907 उत्तर प्रदेश के बलिया जिले के छोटे से गांव दुबे का छपरा में एक ऐसी शख्सियत ने जन्म लिया, जिसने भारतीय चिंतन को अपने अनोखे अंदाज से पन्नों में समेट लिया.
साहित्य भारी-भरकम सब्जेक्ट जान पड़ता है, मगर वक्त निकालकर जब आप इसे पढ़ना-समझना शुरू करेंगे, तो इस झरोखे से आपको बदलते वक्त, जज्बात, समाज देश और दुनिया के इंटरेस्टिंग नजारे देखने को मिलेंगे. हिंदी डिक्शनरी के शब्द आपको किसी खजाने की चाबी की तरह लगने लगेंगे.
भक्ति काल, मध्यकाल, आधुनिक काल अलग-अलग वक्त का घूमता आईना है. हजारी प्रसाद द्विवेदी ने इसे अपने नजरिए से देखा और लिखा है. द्विवेदी जी बेहतरीन उपन्यासकार, कवि आलोचक और निबंधकार माने जाते रहे हैं. उनकी सांस्कृतिक दृष्टि जबरदस्त थी. उसमें इस बात पर विशेष बल था कि भारतीय संस्कृति किसी एक जाति की देन नहीं है, बल्कि अनेक जातियों के सहयोग से इसका विकास हुआ है.
1923 में काशी विश्वविद्यालय से हाई स्कूल पास कर आचार्य, ज्योतिष और शास्त्रीय संस्कृत की तालीम हासिल की. 8 नवंबर 1930 को शांति निकेतन चले गए. गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर जैसे महान लेखक का साथ मिला, तो उसी धारा में चल दिए.
कविता, निबंध, आलोचना, उपन्यास लिखने का मल्टी-टैलेंट और हिंदी के साथ संस्कृत, गुजराती, पाली, बंगाली, पंजाबी और प्रकृत भाषाओं के जानकार द्विवेदी जी ने समूचे भारत के साहित्य को एक ही माला में पिरो लिया. द्विवेदी इस बात के हिमायती थे:
जीतता वही है, जिसमें शौर्य, सत्य और धर्म होता है. बदलती दुनिया में बेईमानी और खुदगर्जी से वो दुखी जरूर हुए, लेकिन उन्हें यकीन था कि बुराई पर अच्छाई की जीत होकर रहेगी.
उन्होंने कई उपन्यास लिखें. अनामदास का पोथा, पुनर्नवा, चारू चंद्रलेखा. इनमें से एक है बाणभट्ट की आत्मकथा. इस उपन्यास में लेखक भैरवी यानी माया से मोहित हो जाता है और पकड़े जाने पर डर जाता है. मनुष्य, माया भगवान और प्रेम में से किसी एक को नहीं चुन पाता. मनुष्य डर में जीता है और डर के कारण प्रेम करता है, ईश्वर को मानता है, लेकिन पूरी तरह से नहीं.
वो मानते थे कि डरना नहीं चाहिए. जिस पर विश्वास हो, उस पर पूर्ण विश्वास करना चाहिए, चाहे परिणाम जो हो. जिसे मानना चाहिए, उसे अंत तक मानना चाहिए. द्विवेदी जी लिखते हैं:
खैर, बदलते दौर में कलम का रुख भी बदलता गया. मॉर्डन जमाना उन्हें रास नहीं आया, तो उस पर कई बार रचानाओं और कविता के जरिए चोट की. द्विवेदी जी बनारस हिंदी यूनिवर्सिटी और पंजाब यूनिवर्सटी में हिंदी के प्रोफेसर और एचओडी रहे. उन्हें साल1963 में साहित्य अकादमी पुरस्कार से नवाजा गया. 19 मई 1979 में उनका निधन हो गया.
वो दुनिया अपने इन शब्दों की तरह छोड़ गए,,,"रजनी दिन नित्य चला ही किया, मैं अंत को गोद में खेला हुआ. चिरकाल ना वास कहीं भी किया. किसी आंधी से नित्य धकेला हुआ. ना थका, ना रुका, ना हटा ना झुका. किसी फक्कड़ बाबा का चेला हुआ, मद चूता रहा तन मस्त बना, अलबेला में ऐसा अकेला हुआ...''
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