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गुलामी के दौर में आजादी की ललकार
हिमाद्रि तुंग शृंग से प्रबुद्ध शुद्ध भारती
स्वयंप्रभा समुज्ज्वला, स्वतंत्रता पुकारती
अमर्त्य वीर पुत्र हो, दृढ़ प्रतिज्ञ सोच लो
प्रशस्त पुण्य पंथ है, बढ़े चलो-बढ़े चलो...
गुलाम भारत में स्वतंत्रता की ये तान जयशंकर प्रसाद ने देश में आजादी की अलख जगाने के लिए छेड़ी थी. प्रसाद की इस कविता में भी उनकी बाकी कविताओं की तरह ही संस्कृत से निकले कठिन शब्दों का इस्तेमाल हुआ है. लेकिन उनकी कविता में स्वतंत्रता की पुकार इतनी गहरी है और उसकी ध्वनि इतनी ओजपूर्ण है कि शब्दों का सही-सटीक अर्थ नहीं समझने वाले भी इसे सुनकर जोश से भर जाएंगे.
हिंदी की खड़ी बोली में नाटक लेखन की शुरुआत भारतेंदु हरिश्चंद्र ने की थी, लेकिन खड़ी बोली में बेहतरीन कविताएं भी लिखी जा सकती हैं, इसे सबसे पहले जयशंकर प्रसाद ने साबित किया. 1925 में प्रकाशित 'आंसू' को खड़ी बोली कविता की पहली महान रचना माना जाता है.
जयशंकर प्रसाद की कविता में एक अद्भुत लय है, जो एक सहज संगीत पैदा करती है. ये लय उनकी कविता के गूढ़, छायावादी विस्तार में एक ऐसी सम्मोहक मास अपील जगा देती है, जिसकी दूसरी मिसाल मिलना मुश्किल है.
प्रसाद की भाषा में शाब्दिक अर्थ और ध्वनि का अद्भुत तालमेल हर जगह नजर आएगा. फिर वो कामायनी हो या कोई और रचना. कामायनी को तो सुमित्रानंदन पंत ने 'हिंदी का ताजमहल' कहा था. कामायनी के इस जादू की एक मिसाल देखिए..
हिमगिरि के उत्तुंग शिखर पर, बैठ शिला की शीतल छांह
एक पुरुष, भीगे नयनों से, देख रहा था प्रलय प्रवाह.
नीचे चल था, ऊपर हिम था, एक तरल था एक सघन,
एक तत्व की ही प्रधानता, कहो उसे जड़ या चेतन.
या
दिग्दाहों से धूम उठे, या जलधर उठे क्षितिज तट के,
सघन गगन में भीम प्रकंपन, झंझा के चलते झटके.
प्रसाद ने हिंदी नाटक को एक नया आयाम दिया. हिंदी नाटक का पहला और शुरुआती दौर अगर भारतेंदु युग है, तो उसका अगला चरण प्रसाद युग.
उनके एतिहासिक नाटकों में पात्र भले ही प्राचीन हों, लेकिन उनकी राजनीतिक-सामाजिक चेतना में स्वतंत्रता और बराबरी के मूल्य मौजूद हैं. हिंदी नाटक में प्रसाद का योगदान इतना अहम है कि कई आलोचक उन्हें हिंदी का शेक्सपियर मानते हैं.
छाया, प्रतिध्वनि, आकाशदीप, आंधी और इंद्रजाल में संकलित प्रसाद की करीब 70 कहानियों ने हिंदी कहानी को एक नया ही अंदाज दिया. उनकी कहानियों में आदर्शवादी आकांक्षाओं के साथ ही साथ यथार्थवादी रुझान भी दिखाई देता है. प्रसाद की कहानी सलीम सांप्रदायिकता की सड़ांध के बीच इंसानियत की खुशबू बिखेरती है. उनकी कहानियों की भाषा भी काव्यमय है.
जयशंकर प्रसाद ने उपन्यास लेखन काफी बाद में शुरू किया. 30 जनवरी 1890 को जन्मे प्रसाद का निधन 15 नवंबर, 1937 को महज 47 साल की उम्र में हो गया. लिहाजा उन्हें ज्यादा उपन्यास लिखने का मौका नहीं मिला, लेकिन उनके दो ही उपन्यास- कंकाल और तितली उन्हें एक बड़ा उपन्यासकार बना देते हैं.
1929 में प्रकाशित कंकाल को तो कुछ आलोचक हिंदी का पहला यथार्थवादी व्यंग्यात्मक उपन्यास भी मानते हैं. इसमें प्रसाद ने हर तरह के अंध-विश्वास, सामाजिक बुराइयों और महिला-पुरुष गैर-बराबरी पर गहरी चोट की है. तीखे व्यंग्य किए हैं.
कंकाल की प्रमुख महिला पात्र यमुना कहती है:
हिंदी के महान उपन्यासकार मुंशी प्रेमचंद ने कंकाल के बारे में कहा था:
प्रसाद ने दूसरा उपन्यास तितली लिखा. कंकाल की पृष्ठभूमि शहरी है, तो तितली की ग्रामीण. इसमें गांवों की सड़-गल रही सामंती व्यवस्था और शोषण पर कड़ा प्रहार किया गया है. साथ ही इसमें गरीब किसानों के मन में पनपती क्रांतिकारी भावना की झलक भी मिलती है. प्रसाद का तीसरा उपन्यास इरावती अधूरा ही रह गया.
प्रसाद की कहानियां और उपन्यास बताते हैं कि एक रचनाकार के रूप में प्रसाद लगातार आगे बढ़ रहे थे. उनकी कविताओं और नाटकों में छायावाद का काल्पनिक, मनोवैज्ञानिक धरातल या राष्ट्रीय जागरण की आदर्शवादी चेतना नजर आती है. लेकिन बाद के वर्षों में लिखी कहानियों और उपन्यासों में वो देश और समाज की कड़वी हकीकत से पर्दा हटाते और अन्याय को अपनी कलम से चकनाचूर करते नजर आते हैं. जयशंकर प्रसाद ये चेतना साहित्य ही नहीं, समाज और राजनीति के लिए आज भी प्रासंगिक है.
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