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नामवर सिंह संसार से विदा लेकर वाद- विवाद और संवाद करने अनंत यात्रा पर निकल पड़े. इसके पूर्व जितना कुछ हमारे लिए छोड़ गए हैं उसको आगे ले जाने का वादा ही उन जैसे आलोचक के प्रति सच्ची श्रद्धांजलि होगी .
नामवर सिंह ने हिन्दी आलोचना को जिस ऊंचाई तक पहुंचाया वह मृत्यु के प्रभाव से सर्वथा मुक्त है. उनका चले जाना हम साहित्य प्रेमियों की भारी क्षति है जो उनको सुनने के लिए अवसर की प्रतीक्षा में रहते थे .
जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय हो या महात्मा गांधी अंतर राष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय ऐसा कभी नहीं देखा कि नामवर सिंह बोल रहे हों और कोई साहित्यिक प्रेमी वहां. से उठकर गया हो. उनके धुरविरोधी भी उनकी प्रतिभा के ऐसे कायल हैं कि उन्हें सम्मानित करने में अपना अहोभाग्य समझते हैं. कलम और जुबान दोनों का बेहतरीन इस्तेमाल कर उन्होंने हिंदी साहित्य में अपना सम्मानित स्थान और रुतबा कायम किया.
नामवर सिंह का जन्म 28 जुलाई 1926 को बनारस के जियनपुर गांव में हुआ था. 1951 में काशी विश्वविद्यालय से एम ए तत्पश्चात 1953 में वहीं लेक्चरर के अस्थायी पद पर नियुक्ति.1956 में पीएचडी और 1959 -60 सागर विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग में व्याख्याता के पद पर कार्य किया.
1965 से 1967 तक नामवर जी जनयुग और आलोचना में संपादक और साहित्यिक सलाहकार के रूप में अपना योगदान दिया. साल1970 में जोधपुर विश्वविद्यालय में विभागध्यक्ष के पद पर नियुक्ति और 1974 से 1987 तक देश के प्रतिष्ठित जवाहरलाल नेहरू विश्व विद्यालय में अध्यापन.
नामवर सिंह ने मार्क्सवादी आलोचना की, जिसे वे ‘वाद विवाद संवाद’ कहते थे. शानदार परंपरा कायम की. आधुनिक साहित्य कि प्रवृत्तियां ,इतिहास और आलोचना ,छायावाद ,कविता के नए प्रतिमान ,दूसरी परंपरा कि खोज ,वाद विवाद संवाद उनकी प्रमुख आलोचनात्मक कृतियां हैं जिनको पढ़ने का एक अलग ही महत्व है.
इसका एक बड़ा कारण उनकी बेहतरीन भाषा है. उनकी भाषा शुष्कता एवं पंडिताऊ पन से मुक्त , उनके विचारों से कदमताल मिलाती है. शब्दों ,मुहावरों ,लोकोक्तियों ,शेरों -शायरी तक का विषयोचित्त सटीक प्रयोगकर नामवर सिंह नेअपनी मार्क्सवादी भाषा को जीवंत ,सरस, प्रवाहमय और आकर्षक बनाया. सीधी बात को जटिल बनाकर लिखने वाली प्रवृति की तुलना जोंक से करते हुये उन्होने लिखा है चलई जोंक जल वक्र गति जद्दपिसलिल समान ".
इस प्रकार के कई उदाहरण नामवर सिंह की भाषा में बिखरे पड़े हैं. उतरी वहीं पे खाक जहां का खमीर था , राजदा भी रकीब होने के लिए लाचार है ,बेशक किसी और अंदाज में ,मुर्गे की तबीयत बांग न दे, लेकिन सुबह का होना नहीं रुकेगा जैसे वाक्य का उनके द्वारा प्रयोग भाषा में जादुई असर डालता है.
नामवर सिंह का आलोचना संसार विस्तृत और भविष्योमुखी है, जिसमें बहुत कुछ सीखने योग्य है तो बहुत कुछ आगे ले जाने योग्य. आज अपने प्रिय आलोचक की अंतिम विदाई पर उन्हीं से उधार लिए गए शब्द ,वाक्य समर्पित कर रही हूं - मेरे प्रिय आलोचक आप हिंदी आलोचना के इतिहास की धारा में विद्युत छटा थे .
( लेखक अंजलि कुमारी दिल्ली विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग में सीनियर रिसर्च फेलो )
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