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हिंदी के बड़े लेखक मोहन राकेश जीवित होते तो आज 92 साल के हो जाते. लेकिन नई कहानी आंदोलन का ये महानायक इससे आधी उम्र में ही दुनिया से विदा हो गया. इस कम वक्त में ही मोहन राकेश हिंदी साहित्य की दुनिया में अपना बहुत बड़ा मुकाम बना गए.
नई कहानी आंदोलन के तीन प्रमुख लेखक मोहन राकेश, कमलेश्वर और राजेंद्र यादव माने जाते हैं. इनमें कमलेश्वर और राजेंद्र यादव खुद मोहन राकेश को अपनी इस तिकड़ी का सर्वश्रेष्ठ रचनाकार मानते थे. मोहन राकेश की 'मिस पाल', 'आद्रा', 'ग्लासटैंक', 'जानवर' और 'मलबे का मालिक' जैसी कहानियों ने हिन्दी कहानी का नक्शा ही बदलकर रख दिया.
8 जनवरी 1925 को पंजाब के अमृतसर में जन्मे मोहन राकेश की कहानियों में आजादी के बाद देश में तेजी से हुए सामाजिक और आर्थिक बदलावों की तस्वीर देखने को मिलती है. ये तस्वीर उभरती है शहरी जिंदगी के बढ़ते तनावों और उनमें पिसते मध्यवर्गीय किरदारों के बीच. ये किरदार अपनी-अपनी जिंदगियों में पुराने और नए के बीच जारी संघर्ष के गवाह भी हैं और शिकार भी.
मोहन राकेश ने अपने नाटकों में विषय और किरदारों को ध्यान में रखते हुए भाषा का इस्तेमाल किया. ऐतिहासिक पृष्ठभूमि वाले नाटक ‘आषाढ़ का एक दिन’ या ‘लहरों के राजहंस’में संस्कृतनिष्ठ हिंदी, तो ‘आधे-अधूरे’में नाटक के किरदारों की तरह ही आधुनिक और बोल-चाल वाली खड़ी बोली, जिसमें अंग्रेजी शब्दों के इस्तेमाल से भी परहेज नहीं है.
मोहन राकेश की इन रचनाओं ने हिन्दी नाटक को दुबारा रंगमंच से जोड़ने का काम किया. नाटकों के लेखन और मंचन को एक सूत्र में पिरोने की सजग कोशिश मोहन राकेश की बहुत बड़ी खासियत है. उन्होंने अपने नाटकों में मंचन के लिहाज से लगातार सुधार किए. वो भी नाटक के निर्देशकों और उनकी टीमों के साथ रहकर, नाटक की तैयारी का हिस्सा बनकर.
रंगमंच के मशहूर निर्देशक ओम शिवपुरी ने ‘आधे-अधूरे’के 1972 में प्रकाशित संस्करण की भूमिका में मोहन राकेश की इस कोशिश का जिक्र किया है. ‘आधे-अधूरे’ के मंचन का जिक्र करते हुए वो लिखते हैं:
मोहन राकेश ने ‘अंधेरे बंद कमरे’, ‘न आने वाला कल’, ‘अंतराल’ और ‘बाकलम खुदा’ जैसे मशहूर उपन्यास भी लिखे.
पंजाब विश्वविद्यालय से हिन्दी और अंग्रेजी में एमए में करने वाले मोहन राकेश ने जालंधर के डीएवी कॉलेज से लेकर दिल्ली विश्वविद्यालय तक कई जगहों पर हिंदी पढ़ाने का काम किया, लेकिन उनका मन किसी नौकरी में ज्यादा दिनों तक नहीं टिका. हिंदी पत्रिका ‘सारिका’के संपादक का जिम्मा भी उन्होंने 11 महीने में ही छोड़ दिया था.
मोहन राकेश अपने आखिरी नाटक "पैर तले की जमीन" को जीते जी अंतिम रूप नहीं दे सके. उनकी पत्नी अनीता राकेश के मुताबिक, "अपने भीतर वो पैर तले की जमीन की रिहर्सल ही नहीं, पूरा नाटक, पूरी साज-सज्जा के साथ अंतिम रूप से खेल चुके थे. एक मायने में अब केवल टाइपराइटर पर कागज चढ़ाकर उसे उतारना ही बाकी था." लेकिन 3 जनवरी 1972 को वो ये काम पूरा किए बिना ही चल दिए. अनीता राकेश ने लिखा है, "जिस दिन वे मुझे एकाएक धोखा देकर सदा के लिए चले गए, तब भी टाइपराइटर पर इसी नाटक का एक पृष्ठ - आधा टाइप हुआ, आधा खाली - लगा रह गया था.." बाद में मोहन राकेश के सबसे करीबी दोस्त कमलेश्वर ने इस नाटक को अंतिम रूप दिया, जो प्रकाशित भी हुआ.
नई कहानी की तिकड़ी के तीसरे स्तंभ राजेंद्र यादव ने अपने संस्मरण में मोहन राकेश को "तीसरे अंक का स्थगित नायक" कहा है. एक ऐसा नायक जिसकी तस्वीर विदाई के 45 साल बाद भी हिंदी साहित्य के रंगमंच पर धुंधली नहीं पड़ी है.
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