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अपनी साठवीं वर्षगांठ पर अपने शहर आगरा में हुए आयोजन में राजेंद्र यादव ने बहुत दिलचस्प बातें कही थीं. उन्होंने कहा था कि- ‘पता नहीं क्यों अपने नगर में इस उत्सवी आयोजन में बैठकर मुझे राज कपूर की फिल्म ‘मेरा नाम जोकर’ का अंतिम दृष्य याद आ रहा है, जहां सामने सारे अंतरंग, अपने, आत्मीय और वे सब बैठे हैं, जिन्होंने उसकी जिंदगी को ढाला है. मंच पर खड़े होकर शायद वह सबसे बच्चन के शब्दों में यही कह रहा है, ‘हूं जैसा तुमने कर डाला’, मगर जोकरत्व के पीछे छिपी है असफलता और हताशाओं की भयंकर ट्रेजडी...मैं अपनी स्थिति उतनी ट्रैजिक तो नहीं पाता मगर ओढे हुए व्यक्तित्व का अहसास तो बना ही है.
शायद मैं वह नहीं हूं, जो दिखाई देता हूं. क्या हूं, मैं खुद भी नहीं जानता. बस, यही एक भावना शिद्दत से छटपटाती है कि अभी ये सारे जामे-लबादे उतारकर बहुरुपिए की तरह अपनी असलियत को धमाके से प्रकट कर डालूं..मगर कौन सी असलियत? इसी संभ्रम में सिर्फ गालिब की तरह यही कहने को मन करता है कि ‘बनाकर हम फकीरों का ऐसा भेष गालिब तमाशाए-अहले-करम देखते हैं...‘ कचोट भी होती है कि जो इस फकीरी भेष तक ही रह जाते हैं, क्या उन्हें पता है कि भीतर कौन सा एयार बैठा है.
अपने इस वक्तव्य में राजेंद्र यादव ने अपने व्यक्तित्व को सबके सामने रख दिया था. जब वो कहते कि शायद मैं वह नहीं हूं जो दिखाई देता हूं, क्या हूं खुद नहीं जानता, तो बिल्कुल ठीक कहते हैं. उनके बारे में कुछ इसी तरह की बात कलकत्ते के उनके मित्र मनमोहन ठाकौर ने अपने संस्मरणों में भी लिखी है.
इससे इतर भी मन्नू जी ने एक और जगह कहीं लिखा है कि राजेन्द्र यादव विदेशी लेखकों की जीवनियां और आत्मकथाएं बहुत पढ़ते थे. विदेशी लेखकों की जीवनियां पढ़-पढ़कर यह धारणा इनके मन में गहरे तक बैठ गई है कि दुहरी जिन्दगी महान लेखक बनने की अनिवार्य शर्त है.‘ राजेन्द्र यादव की दुहरी जिंदगी ने उनकी पारिवारिक जिंदगी को भी गहरे तक प्रभावित किया. मन्नू जी ने लिखा है कि ‘राजेन्द्र यादव अपनी हर गैर जिम्मेदार हरकतों को जस्टिफाई करने के लिए दुनियाभर के फलसफे गढ़ते थे. वो निहायत अनकन्वेंशनल थे.
इन कमियों के बावजूद राजेंद्र यादव में एक बहुत बड़ी खूबी ये थी कि वो हिंदी के नए लेखकों को बहुत उत्साहित करते थे. उनके अंदर ये भांप लेने की दैवीय शक्ति थी कि कौन सा लेखक क्या बेहतर लिख सकता था. यह भांप लेने के बाद वो उस लेखक के पीछे पड़ जाते थे और उससे अपेक्षित लिखवा कर ही दम लेते थे. उसको उत्साहित करते थे, प्रेरित करते थे और लिखने में मदद भी करते थे. उन्होंने साहित्यिक पत्रिका ‘हंस’ के माध्यम से कहानीकारों की एक पूरी पीढ़ी ही तैयार की, उनसे हिंदी जगत का परिचय करवाया और इसी परिचय के दौर ने हिंदी कहानी को कई बेहतरीन कहानियां दी.
‘हंस’ के माध्यम से राजेंद्र यादव ने कई रचनात्मक प्रयोग किए जो साहित्य जगत के लिए बिल्कुल नए थे. उन्होंने हंस में ना लिखने के कारणों पर एक सीरीज लिखवाई, स्त्री और दलित विमर्श तो शुरू किया ही. हंस में ही एक लेख श्रृंखला की योजना बनाई थी, जहां लेखक एक दूसरे लेखकों की अग्रिम श्रद्धांजलियां लिख सकें और उसके प्रतिवाद में ‘स्वर्गीय साहब’(जिस लेखक की अग्रिम श्रद्धांजलि लिखी जानी थी उसको इस नाम से संबोधित करते थे) भी कुछ लिख सकें. इसके समर्थन में वो तर्क देते थे कि अगर कानूनी रूप से अग्रिम जमानत ली जा सकती है, तो फिर लेखकों की अग्रिम श्रद्धांजलियां क्यों नहीं लिखी जा सकती हैं.
हंसते हुए वो कहते थे कि इससे मरनेवालों के सामने उसका मूल्यांकन होना जरूरी है, नहीं तो उसके मरने के बाद काफी उलजलूल लिखा जाता है, जो उसकी आत्मा को चैन से नहीं रहने देता. क्योंकि मरनेवाला कभी प्रतिवाद नहीं कर सकता है. इस वजह से वो कहते कि अगर अग्रिम श्रद्धांजलियां लिख दी जाएं तो साहित्य में अतिवाद पर लगाम लगेगी. लेकिन राजेंद्र यादव को क्या पता था कि उनके निधन के बाद उनपर कैसे-कैसे श्रद्धांजलि लेख लिख जाएंगे. कई बार तो ऐसा लगता है कि उनको इस बात का एहसास था, तभी वो अग्रिम श्रद्धांजलि की योजना बना रहे थे. तभी तो उनको गालिब के वो वाक्य पसंद थे, जहां वह कहते हैं कि कुछ अपनों की प्रिय तस्वीरें और कुछ सुंदरियों के पत्र..यही तो मरने के बाद की मेरी अपनी कहानी है. राजेंद्र यादव की जिंदगी की जितनी कहानियां टुकड़ों-टुकड़ों में सामने आई हैं, उसमें अबतक हसीनों के खुतूत सामने आने शेष हैं.
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( वंदना सिंह स्वतंत्र लेखन करती हैं)
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