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दिल्ली के तुगलकाबाद में संत रविदास के एक मंदिर को ढहाए जाने से दलित खफा हैं. 21 अगस्त को दिल्ली में उन्होंने एक बड़ा प्रदर्शन किया. भीड़ हिंसक हुई. तोड़फोड़ हुई. आगजनी हुई. फिर पुलिस ने लाठीचार्ज किया, आंसू गैस के गोले दागे. लेकिन जिन संत के नाम पर ये सब हो रहा है, वो बहुत बड़े त्यागी थे. परोपकार ही उनके जीवन का मूलमंत्र था.
संत रविदास आजीविका के लिए अपने पिता के बिजनेस में आ गए. पिता राघवदास का जूते बनाने का काम था. रविदास ने इसे खुशी-खुशी अपनाया और पूरी मेहनत के साथ बिजनेस को आगे भी बढ़ाया. इसके साथ ही वो अपने वचन के भी बहुत पक्के थे. उन्होंने एक बार किसी से कोई वादा कर दिया, तो उसे हर हाल में पूरा करते थे.
रविदास बचपन से ही बहुत दयालु भी थे. दूसरों की मदद के लिए हमेशा आगे रहते थे. कहा जाता है कि उनके द्वार पर कोई कुछ मांगने आता था, तो वो खाली हाथ नहीं जाता था. कई बार तो साधु-संतो से बिना पैसे लिए उन्हें जूते दान कर देते थे.
रविदास की परोपकारिता और दयालुता के कारण उनके माता-पिता बिल्कुल खुश नहीं थे. उनकी दयालुता की वजह से घर पैसों की बहुत तंगी होने लगी. फिर एक दिन पिता राघवदास ने परेशान होकर रविदास और उनकी पत्नी को घर से बाहर निकाल दिया. इसके बाद रविदास पड़ोस में ही एक जगह लेकर अपनी पत्नी के साथ रहने लगे. वहीं से उन्होंने अपना जूते बनाने का काम शुरू कर दिया. लेकिन अपनी दयालुता स्वाभाव फिर भी नहीं छोड़ा. वो अपना खाली समय अक्सर भगवान की भक्ति और साधु-संतो के सत्संग में व्यतीत करते थे.
संत रविदास ने समाज की कुरीतियों के खिलाफ भी बहुत आवाज उठाई है. वो जाति के भेदभाव के बिल्कुल खिलाफ थे. उन्होंने समाज को अपने उपदेश से हमेशा कल्याणकारी मार्ग दिखाया.
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