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आज से 31 साल पहले 1 जनवरी, 1989 को साहिबाबाद में नुक्कड़ नाटक करते समय उस पर हमला किया गया. अगले दिन उसने दम तोड़ दिया. उसे इसलिए मार डाला गया, क्योंकि वह दबे-कुचले लोगों की आवाज बन गया था. नाटकों के जरिए लोगों में जागरूकता ला रहा था. वह महज 34 साल का था. वह कोई और नहीं, सफदर हाशमी था, जिसे उसके मूल्यों की खातिर सरेआम सजा मिली. उन मूल्यों की सजा, जिनके लिए वह सारी जिंदगी लड़ता रहा.
सफदर की कोई एक पहचान नहीं है. वह बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे. उन्हें बेशक असल पहचान 'रंगकर्मी' के रूप में मिली, लेकिन वह साथ में निर्देशक, गीतकार और लेखक भी थे. यह उनके करिश्माई व्यक्तित्व और लोगों से उनके जुड़ाव का असर ही है कि उस घटना के बाद आज भी हर साल एक जनवरी को भारी तादाद में लोग इकट्ठा होकर उन्हें याद करते हैं.
प्रख्यात नाट्य निर्देशक हबीब तनवीर कहा करते थे,
सफदर हाशमी के बड़े भाई और इतिहासकार सोहेल हाशमी ने मीडिया को बताया, "हां, मेरे भाई को मार डाला गया. क्यों? क्योंकि वह जिंदगीभर उन मूल्यों के लिए लड़ा, जिनके साथ हम बड़े हुए थे
यह पूछने पर कि जिस दौर में सफदर को मार डाला गया, वह दौर आज के दौर से कितना अलग था? इस पर उन्होंने कहा,
सोहेल हाशमी ने आगे कहा, "उस वक्त फिल्म 'द फायर' की शूटिंग रुकवा दी गई थी. हबीब तनवीर के नाटकों पर हमले कराए गए. उस दौर के बाद से यह सब बढ़ा ही है. फर्क सिर्फ इतना है कि उस वक्त वे ताकतें सत्ता में नहीं थीं, लेकिन अब ये लोग सत्ता में हैं, जो भी इनसे असहमति जताते हैं, वे उनको निशाने पर ले लेते हैं."
'चरणदास चोर' नाटक के लिए मशहूर हबीब तनवीर ने बिल्कुल सही कहा था कि किसी भी दौर में सफदर हाशमी होना आसान नहीं है. सफदर के जनाजे में 15,000 से ज्यादा लोग जुटे थे. यह इस बात का सबूत है कि सफदर सीधे लोगों के दिलों में बस गए थे. भारत के लोग अभिव्यक्ति की आजादी चाहते हैं, उन्हें तानाशाही, फासीवाद बिल्कुल पसंद नहीं. देश का इतिहास इसका गवाह है.
इनपुट: IANS
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