हापुड़ से मेरठ को जोड़ने वाली सड़क पर है गांव सियाला. हापुड़ सुरक्षित विधानसभा के तहत ये गांव आता है. गांव में सन्नाटा है, चुनाव प्रचार की कोई खास गहमागहमी नहीं है. दलित महिलाएं खेतों में काम कर रही हैं. मुजफ्फरनगर दंगों के बाद एक-दूसरे के खून के प्यासे जाट और मुस्लिम पुरुष चाय की दुकानों पर चुनावी चर्चा में मशगूल हैं.
कुछ गाड़ियां गांव के दोराहा पर मौजूद चाय की दुकान पर रुकती हैं. गाड़ी से लोकदल की प्रत्याशी अंजू मुस्कान उतरती हैं, लोगों से अपने रिश्ते की याद दिलाती हैं और वोटों की फरियाद करती है. अंजू मुस्कान की कहानी दिलचस्प है. शादी से पहले अंजू मुस्कान अंजू देवी थीं, जाति से जाटव. यहीं के मुस्लिम युवक फरमान अली से शादी के बाद अंजू मुस्कान हो गई.
बीजेपी के लव जिहाद के क्लासिक केस पर अजित सिंह ने बड़ी चतुराई से इस सीट को कांग्रेस से छीनने के लिए दो संप्रदाय और जातियों के मिलन के सहारे रणनीति बुनी है.
इस सीट से मौजूदा विधायक कांग्रेस के गजराज सिंह ने 2012 के विधानसभा चुनाव में बीएसपी के धरमपाल को 20 हजार मतों से हराया था.
कुल 3.2 लाख वोटों में 45 हजार वोटर जाटव हैं, जो अंजू मुस्कान की जाति से तालुल्कात रखते हैं. 1 लाख वोटर मुस्लिम हैं, जिनसे उनके पति फरमान अली तुल्लाकात रखते हैं और 50 हजार वोट जाट हैं, जो चौधरी साहब के साथ पहले से है मतलब कागज पर तो आरएलडी की जीत पक्की दिखती है पर मामला ऐसा नहीं है.
गांव में घुसते ही अपनी मुर्गियों को दाना डाल रहे तसलीमुद्दीन अली से पूछता हूं जिनसे अभी-अभी अंजू मुस्कान वोट मांगकर गई थी कि क्या ये जीतेगी? उनका जबाब था इधर तो सपा का जोर है यान गठबंधन के प्रत्याशी कांग्रेस के गजराज सिंह का. लेकिन सियाला के बगल के गांव में कुछ अलग फिजा है दुकान पर साइकिल ठीक करा रहे फुरकान अली कहते हैं यहां तो हाथी को वोट पड़ेगा यानी एक ही विधानसभा क्षेत्र के दो बगल के गांवों में भी मुस्लिम एकतरफा एक पार्टी को वोट नहीं कर रहे, जिससे नतीजों में काफी उलटफेर हो सकता है. यही हाल पश्चिमी यूपी के मुस्लिम बहुल अन्य सीटों का भी है.
अब हमने बीजेपी की एक मजबूत सीट थानाभवन का रुख किया. यह वो सीट है जहां से मुजफ्फरनगर दंगे के आरोपी और बीजेपी के पोस्टबॉय सुरेश राणा चुनाव लड़ रहें हैं. सपा से सुधीर पंवार बीएसपी से अब्दुल वारिस और आरेलडी से जावेद उम्मीदवार हैं, यानी दो प्रमुख मुस्लिम उम्मीदवार बीएसपी और आरएलडी से और मुस्लिमों की पसंदीदा पार्टी सपा का जाट उम्मीदवार. अब अगर एकतरफा मुस्लिम वोट किसी एक को नही पड़ते तो बीजेपी के सुरेश राणा की जीत पक्की हो सकती है.
तीन लाख की आबादी वाले क्षेत्र में तकरीबन 1 लाख मुस्लिम मतदाताओं की संख्या है. गन्ने से गुड़ बनाने में मशगूल करूमुद्दीन बताते हैं कि मुसलमान वोट सपा और बसपा दोनों को पड़ेगा.
अब सवाल है मुसलमानों की सर्वाधिक आबादी वाला पश्चिमी यूपी 11 फरवरी को किस तरह वोट करेगा? क्या मुस्लिम मतदाता जीतने वाले या कहें बीजेपी को हराने वाले उम्मीदवार के हिसाब से वोट करेगा या पार्टी के हिसाब से?
क्या मुस्लिम मतदाता एकतरफा किसी एक पार्टी को वोट करेगा? इस सवालों के जवाब में ही बीएसपी सुप्रीमो मायावती का राजनीतिक अस्तित्व का फैसला और अखिलेश के गठबंधन की अग्नि परीक्षा होनी है.
क्या मायावती का मुस्लिम कार्ड चल रहा है ?
सर्वाधिक मुस्लिम आबादी वाले रामपुर, मुरादाबाद, मुजफ्परनगर, ज्योतिबाईफुले नगर जहां मुस्लिम मतदाताओं की संख्या 40 प्रतिशत है, वहां भी मुस्लिम मतदाता बंटा है. एकतरफा वोट न सपा को पड़ते दिख रहे हैं न बीएसपी को. इसलिए पश्चिमी यूपी की हर रैली में मायावती ने दो ही बातें बार-बार कही है कि सपा सरकार की कानून व्यवस्था का चित्रण और मुस्लिमों को याद दिलाना कि अपने वोट सपा को देकर बेकार मत करना.
लिखे हुए भाषण पढ़ते वक्त मायावती ने हर रैली में मतदाताओं को समझाया है कि सपा जीतने नहीं जा रही और उनके वोट बंटने से बीजेपी सत्ता में आ जाएगी.
2007 में मायावती ब्राह्मण दलित गठजोड़ से सत्ता में आई थीं. 2017 में वो दलित मुस्लिम गठजोड़ से सत्ता में आने के लिए संघर्ष कर रही हैं.
मायावती ने लखनऊ, बरेली के उलेमाओं की पूरी टीम नसीमुद्दीन सिद्दीकी के साथ इन 140 सीटों पर लगा रखी है, जहां मुस्लिम मतदाताओं की संख्या 20 फीसदी से 50 फीसदी तक है. चाहे वो बरेली के सुन्नी उलेमा काउंसिल के अध्यक्ष मौलाना फायेद हुसैन हों या लखनऊ के मौलाना क्वारी शाफिक सब मायावती के मुस्लिम गठबंधन को सफल बनाने में लगे हैं.
क्या अखिलेश रोक पाएंगे मायावती के मुस्लिम कार्ड को?
सपा कांग्रेस गठबंधन को जमीन पर दो दिक्कतें नजर आ रही हैं. मुस्लिमों की पहली पसंद होने के बाद भी मुस्लिम मतदाता का रुझान एकतरफा सपा मुस्लिम गठबंधन की तरफ नहीं है, बल्कि वो जीतने वाले उम्मीदवार के पक्ष में लामबंद दिखाई दे रहे हैं. यानी बहन जी मैदान से आउट नहीं हो रही क्योंकि उनके पास चट्टान की तरह दलित खड़ा है.
जमीन पर घूमने पर दो बातें जो सपा के पक्ष में रुकावट बनता दिख रहा है, वो है सिरफुटौव्वल के कारण सपा के प्रचार कैंपेन में देरी से जमीन पर उसकी पहुंच उतनी व्यापक नहीं है] जितनी बीजेपी की या बसपा की दिख रही है. बीजेपी के तो हर गली चौराहे पर होर्डिंग की भरमार है. दूसरा पार्टी में सिरफुटौव्वल से सपा अंतिम समय तक उम्मीदवार घोषित करती रही जिससे इतने कम समय में उम्मीदवार गठबंधन के संदेश को पहुंचा नही पा रहे.
सपा में तो कई सीटों पर तो उम्मीदवार बदलने का सिलसिला अब तक जारी है, जिससे मतदाता कन्फ्यूज हुआ है, जबकि बीएसपी ने सालभर पहले से उम्मीदवार घोषित कर रखे हैं. तमाम त्रुटियों के बाद भी सपा की साइकिल दौड़ी तो ब्रांड अखिलेश को क्रेडिट जाएगा.
मुस्लिम वोटों का गणित
11 और 15 फरवरी को होने वाली मुस्लिम बहुल 140 सीटों पर पिछले 2012 के चुनाव में सपा सबसे ज्यादा 58 सीटें बीएसपी, 42 सीटें भाजपा 21, कांग्रेस 8 और आरएलडी ने 9 सीटें जीती थी. जिनमें सपा के 16 मुस्लिम विधायक बसपा के 11 मुस्लिम और कांग्रेस के 2 मुस्लिम विधायक जीते थे. इस बार बीएसपी ने इन 140 सीटों में से 49 सपा ने 43 बीएसपी और कांग्रेस ने 9 मुस्लिम उम्मीदवार उतारे हैं.
26 सीटें ऐसी हैं जहां बीएसपी के मुस्लिम उम्मीदवार सपा के मुस्लिम उम्मीदवार के आमने सामने है, जहां मुस्लिम वोटों के विभाजन से बीजेपी का कमल खिल सकता है या मुस्लिम एकतरफा वोट कर अखिलेश मायावती में से किसी एक को चुनकर सत्ता तक पहुंचाए.
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(शंकर अर्निमेष जाने-माने पत्रकार हैं. इस आलेख में प्रकाशित विचार लेखक के हैं. आलेख के विचारों में क्विंट की सहमति होना जरूरी नहीं है.)
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