वोटों की गिनती के ताजा रुझानों के मुताबिक, यूपी विधानसभा चुनाव में जनता ने मायावती की पार्टी को सिरे से नकार दिया है. मायावती तीसरे नंबर पर फिसलती नजर आ रही हैं. यह चुनाव सूबे की 4 बार की मुख्यमंत्री मायावती के सोशल इंजीनियरिंग के फॉर्मूले को नकारता दिख रहा है.
2012 के विधानसभा चुनाव में बीएसपी ने करीब 26 फीसदी वोट शेयर हासिल किया था. 80 सीटों पर जीत हासिल करने वाली बीएसपी वोट शेयर के मामले में एसपी से 4 फीसदी ही पीछे थी.
इस बार के चुनाव में वोट शेयर के मामले में भी मायावती को काफी नुकसान हुआ है. यूपी में बीएसपी को करीब 22 फीसदी वोट शेयर मिलता नजर आ रहा है.
उत्तराखंड में बीएसपी का वोट शेयर करीब आधा कम हो गया है. 2012 में जहां 12 फीसदी वोट शेयर था अब वह शेयर गिरकर 6.9 फीसदी पर आ गया है.
क्या हैं कारण?
1. सोशल इंजीनियरिंग नाकाम, गैर-जाटव दलित भी नहीं रहे साथ!
कभी दलित-मुस्लिम, तो कभी दलित-मुस्लिम-ब्राह्मण के सोशल फॉर्मूले को फिट करने वाली बीएसपी इस बार कैसे इसमें नाकाम हो गई? ये सवाल मायावती खुद सोच रही होंगी. इस चुनाव में बीएसपी मुस्लिम और सवर्णों को रिझाती नजर आई हैं.
मायावती ने चुनाव में 97 सीटों पर मुसलमान उम्मीदवारों को उतारा, 106 सीटों पर ओबीसी उम्मीदवारों को टिकट दिया, वहीं आबादी में कम सवर्णों पर भरोसा जताते हुए 117 सीटें दीं.
कयास ये भी लगाए जा रहे हैं कि दलित समुदाय का जाटव वर्ग हमेशा की तरह बीएसपी से जुड़ा है, लेकिन गैर-जाटव दलित बीजेपी के पाले में जाते दिख रहे हैं.
2. चुनावों में पिछड़े वर्ग से 36 का आंकड़ा ?
यूपी में पिछड़ा वर्ग बीएसपी से नाराज दिख रहा है. सामाजिक न्याय की बात करने वाली बीएसपी का नारा पिछड़ा वर्ग बुलंद करता आया है. लेकिन मायावती की नजरअंदाजी से ये वर्ग खासा नाराज है.
यूपी में पिछड़ी जाति के करीब 40 फीसदी वोटर हैं. पिछड़ी जाति में दबदबा रखने वाले यादव वोटरों से बीएसपी का 36 का आंकड़ा रहा है. कुशवाहा जाति के लोगों को भी उम्मीदवारी देने के मामले में बीएसपी ने कंजूसी की है. पिछले चुनाव से कम सीटों पर ही इस जाति के उम्मीदवारों को बीएसपी ने टिकट दिया था.
कारण यह भी है कि बीएसपी में दलित नेतृत्व की बात को पिछड़ी जाति के लोग पसंद नहीं करते हैं. 1995 में बीएसपी-एसपी गठबंधन के टूटने का भी असर इन वर्गों के जहन में है. इसके कारण बीएसपी की सोशल इंजीनियरिंग फॉर्मूले में फीट नहीं बैठ पाते हैं. इसी का फायदा बीजेपी ने पिछड़ी जाति के केशव प्रसाद मौर्य को यूपी अध्यक्ष बनाकर उठाया है. नतीजा आपके सामने है.
3. बड़े नेताओं को किनारे लगाना नुकसान का सौदा
चुनाव से पहले स्वामी प्रसाद मौर्य, बाबू सिंह कुशवाहा जैसे बड़े पिछड़ी जाति के नेताओं का पार्टी से निकलना भी बीएसपी के लिए नकारात्मक साबित हुआ. बीएसपी के पूर्व महासचिव स्वामी प्रसाद मौर्य के बीजेपी में चले जाने से भी मौर्य और सैनी वोटर बीएसपी से हटकर बीजेपी की तरफ आते नजर आ रहे हैं.
4. सोशल मीडिया पर बीएसपी कमजोर
सोशल मीडिया अब हर चुनाव में अहम योगदान रखती है. जहां बीजेपी, एसपी के पास अपने प्रोफेशनल्स इसे धार दे रहे थे. बीएसपी यहां ‘दलित मीडिल क्लास’ के भरोसे ही थी, जो स्वेच्छा से बीएसपी का प्रचार प्रसार कर रहे थे. रैली जनसभा से लेकर सोशल मीडिया पर भी मायावती ने किसी दूसरे नेता को उभरने नहीं दिया. नतीजों से लग रहा है कि बीएसपी के लिए यह भी नकारात्मक साबित हुआ है.
5. मायावाती, बीएसपी हाशिए पर
हार पर हार से अब मायावती और बीएसपी हाशिए पर दिख रही है. 5वीं बार मुख्यमंत्री बनने की ख्वाहिश इस बार तो पूरी नहीं हो पाएगी. यूपी के साथ-साथ उत्तराखंड और पंजाब में भी बीएसपी का वोट शेयर कम होता नजर आ रहा है.
मायावती को इन परिणामों से सबक लेकर बेहतर सोशल इंजीनियरिंग के फॉर्मूले को अपनाना चाहिए साथ ही बीएसपी से छूटते नजर आ रहे गैर-जाटव दलितों को फिर से अपने साथ लाने की कोशिश में जुट जाना होगा.
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