द क्विंट बाबरी मस्जिद विध्वंस के 23 साल पूरे होने पर आपके लिए 6 एपिसोड की डॉक्यूमेंट्री सीरीज लेकर आया है, जिसमें हम इस विवादित ढांचे को गिराए जाने की सिलसिलेवार कड़ियां तलाशने की कोशिश कर रहे हैं.
22 और 23 दिसंबर 1949 को बाबरी मस्जिद के अंदर रामलला की मूर्ति गुपचुप तरीके से स्थापित कर दी गई. दो दिन बाद कानूनी आदेश के बाद भक्तों को मंदिर से हटाया गया और यथास्थिति बरकरार रखने का आदेश दिया गया.
मस्जिद अपनी जगह पर रही और रामलला की मूर्ति भी. रामलला की पूजा के लिए पुजारी तय किया गया, जो मस्जिद के किनारे के रास्ते से जाकर विवादित स्थल पर पूजा-पाठ कर सकता था.
बाबरी मस्जिद में 36 सालों से चली आ रही व्यवस्था का अंत किसने किया: एक निष्पक्ष जज ने, राजीव गांधी की सरकार ने या एक दैवीय वानर ने?
नए विवाद का जन्म
1 फरवरी, 1986 को फैजाबाद के जिला जज के. एम. पाण्डेय ने 36 साल से चली आ रही व्यवस्था में बदलाव करते हुए बाबरी मस्जिद के तालों को खोलने का आदेश दे दिया.
उनके मुताबिक “[...] मस्जिद के दरवाजे खुलने से मुसलमानों को आपत्ति नहीं हो सकती, और अंदर रखी मूर्तियों का हिंदू भक्त दर्शन और पूजा भी कर सकेंग. बाबरी मस्जिद के दरवाजे खुल जाने से कयामत नहीं आ जाएगी.’’
शायद वो इससे ज्यादा गलत साबित नहीं हो सकते थे.
14 फरवरी 1986, मुसलमानों ने बाबरी मस्जिद का दरवाजा खोलने पर काला दिवस मनाया. दिल्ली, मेरठ, यूपी, अनंतनाग और जम्मू- कश्मीर समेत देशभर में दंगे फैल गए.
हैरत की बात है कि उस वक्त केंद्र सरकार का प्रतिनिधत्व कर रहे दो अधिकारी और नारायण दत्त तिवारी की सरकार ने कोर्ट में कहा कि मस्जिद के दरवाजे खुलने से इलाके में तनाव की संभावना नहीं है.
ऐसा वो तब कह रहे थे जब अर्जी में बाबरी मस्जिद के अंदर भक्तों द्वारा पूजा करने की इजाजत मांगी गई थी जबकि लगभग 30 साल पहले ही इस मस्जिद को पंडित अभिराम दास द्वारा अपवित्र घोषित कर दिया गया था.
मस्जिद का ताला खोलने के पीछे कोर्ट में दलील ये दी गई थी कि पहले मस्जिद पर ताला लगाने का कोई आदेश आया ही नहीं.
एक दिन बाद, 15 फरवरी 1986, बाबरी मस्जिद एक्शन कमेटी का गठन हुआ और एक नौजवान वकील जफरयाब गिलानी जो इस फैसले के पुरजोर विरोधी थे और अक्सर लखनऊ के टाउनहॉल मीटिंग में सक्रिय रहते थे, कमेटी के संयोजक बने.
ताला खोलने का फैसला आने के आधे घंटे के भीतर ही, मस्जिद के मुख्य दरवाजे पर लगा ताला तोड़ दिया गया. दूरदर्शन पूरी तैयारी के साथ तैनात था और पूरे घटनाक्रम का प्रसारण देश भर में किया गया.
दिव्य वानर की दखलअंदाजी
लेकिन जज पांडे के पास बाबरी मस्जिद का ताला खुलवाने के फैसले के पीछे कुछ और ही दलील थी. अपनी आत्मकथा में जज पांडे ने लिखा कि एक बंदर, जो उन्हें किसी देवता की तरह लगा, ने उनके फैसले को सही ठहराया.
जिस दिन तालों को खोलने का आदेश जारी किया गया, एक काला वानर अदालत के कमरे की छत पर पूरे दिन फ्लैग पोस्ट को थामे बैठा रहा था. अयोध्या और फैजाबाद [...] के हजारों लोगों ने, जो उस दिन अदालत के फैसले को सुनने के लिए वहां उपस्थित थे, उस वानर की तरफ मूंगफली और फल फेंके. हैरत की बात यह रही कि उस वानर ने किसी भी चीज को हाथ नहीं लगाया[...] और शाम के 4:40 बजे जैसे ही आदेश पारित हुआ, वह वहां से चला गया. जिला मजिस्ट्रेट और एसएसपी मेरे बंगले तक मेरे साथ आए. वह वानर मेरे बंगले के बरामदे में मौजूद मिला. मैं उसे देखकर अचंभित रह गया. मैंने समझा कि वह कोई दैवीय शक्ति है, इसलिए मैंने उसे प्रणाम भी किया
लेकिन तब तक अयोध्या मंदिर आंदोलन की राजनीति ने 4 साल पूरे कर लिए थे.
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