बिहार विधानसभा चुनावों के नजदीक आते ही तमाम पार्टियां अपने-अपने घोषणापत्र में नौकरियां और अवसर पैदा करने के वादे कर रही हैं. लेकिन बिहार में पहले से जो उद्योग चल रहे हैं, उनका काम आज विलुप्त होने की कगार पर पहुंच गया है. मधुबनी पेंटिंग से लेकर छापा कारीगरी तक, बिहार ने देश को कई कलाएं दी हैं, लेकिन उनके कारीगर आज बेहाल हैं.
बिहार की राजधानी पटना से करीब 80 किमी दूर बिहार शरीफ की पहचान सबसे ज्यादा मशहूर छापा साड़ियों से है. कभी राज्य में छपाई के लिए ख्याति प्राप्त इस शहर में अब इस काम को करने वाले रंगरेजों की हालत बहुत खस्ता हो चली है.
कभी दुकानों और खरीददारों से गुलजार रहने वाला बिहार शरीफ का मशहूर बाजार अब सुनसान पड़ा है. केवल कुछ ही दुकानें खुली हैं, लेकिन वहां भी ग्राहकों की संख्या न के बराबर है. पहले पूरे शहर में 50 दुकानें हुआ करती थीं, लेकिन अब सिर्फ गिन कर 6 दुकानें हैं. इसी से अंदाजा लगाया जा सकता है कि ये उद्योग कितनी गर्त में जा रहा है.
“ये काम नवाबों के समय से हो रहा है. हमारा ये पुश्तैनी काम है, पहले हमारे अब्बा इसे करते थे और अब हम इसे आगे बढ़ा रहे हैं. धंधा तो मंदा है, लेकिन मजबूरी है कि काम करना है.”मुहम्मद इबरार आलम, छापा साड़ी दुकानदार,
पिछले 20 सालों से इस काम से जुड़े स्थानीय दुकानदार मुहम्मद इबरार आलम ने क्विंट को बताया कि हालत अब इतनी खस्ता हो चली है कि स्टाफ को फिक्स सैलरी तक नहीं दे पा रहे हैं.
छापा कारीगरी से केवल साड़ियां ही नहीं, बल्कि दुल्हन के सूट, नौशे का रुमाल, बच्चों के सूट, फ्रॉक, पलंग की चादर, तकिया, मसलन तकिया, गड़ी, और एवा सब बनाया जाता है.
कोरोना ने और मंदा किया धंधा
कोरोना वायरस महामारी और लॉकडाउन ने जब देश की रफ्तार रोकी, तो इसका असर छापा साड़ी के उद्योग पर भी हुआ. लॉकडाउन के चलते शादी-समारोह पर रोक लग गई और लोग अपने घरों में बंद हो गए. करीब तीन महीने तक छापा साड़ी का ये बिजनेस पूरी तरह बंद रहा. इस कारण साड़ियों की डिमांड में भी भारी गिरावट देखने को मिली.
जहां एक ओर मजदूरों को कम मेहताना मिल रहा है, वहीं, दूसरी ओर सामान का रेट बढ़ने से दुकानदार दोगुनी मार झेल रहे हैं. बिहार शरीफ से तीन किमी दूर गोराय से आने वाले दुकानदार, मुहम्मद हसीब ने बताया कि पहले वो 3 रुपये की एक गड्डी खरीदते थे, लेकिन अब इसके लिए उन्हें 100 रुपये देने पड़ रहे हैं. गड्डी वो होता है जिस पर तबक कूटते हैं, और वही फिर कपड़े पर लगाया जाता है.
मांग में गिरावट आई तो मेहनताने पर भी असर हुआ. कारीगर मुहम्मद अंसार आलम बताते हैं कि इस धंधे में मजदूरी काफी कम है, महीने का केवल 8,000 रुपये बन पाता है. वहीं कई कारीगरों ने बताया कि धंधा कम होने से अब उनके पास कोई काम नहीं बचा है.
“काम तो कर रहे हैं, लेकिन पेट नहीं भर रहा है. काम पर मंदी का असर है. लॉकडाउन में रेट गिर गया है. पहले अच्छा काम था, मुनाफा अच्छा था, लेकिन अब कम मजदूरी मिलती है.”मुहम्मद हसीब, दुकानदार
मुस्लिम समाज पर अन्याय से काम पर असर?
छापा साड़ी बनाने वाले ज्यादातर कारीगर मुस्लिम समाज से आते हैं. इसकी सबसे ज्यादा खरीद भी इसी समाज के लोगों द्वारा की जाती है. मुस्लिम समाज में शादियों में दूल्हे के हाथ में नौशे का रुमाल देने का खास चलन है. ये परंपरा है, जो यहां के लोग सालों से मानते आ रहे हैं.
आलम ने क्विंट को बताया कि देश के मौजूदा हालात में मुस्लिमों संग हो रहे व्यवहार का असर इस धंधे पर देखने को मिला है. सरकार पर आरोप लगाते हुए उन्होंने कहा,
“अभी देश में जो सरकार है, वो कहीं ना कहीं मुस्लिमों को परेशान कर रही है. लॉकडाउन में मुस्लिमों का बहिष्कार किया जा रहा था, आए दिन छोटी-बड़ी घटनाएं होती रहती हैं, जिससे धंधे पर काफी असर पड़ता है.”
सरकार से लगाई मदद की गुहार
दुकानदारों और कारीगरों ने सरकार से गुहार लगाई है कि रेडिमेड छपाई पर रोक लगाई जाए और उन्हें आर्थिक मदद मुहैया कराई जाए. काशी ताकिया मोहल्ले में रहने वाले 32 साल के दुकानदार, मुहम्मद नौशाद पिछले 10 सालों से इस काम से जुड़े हैं. नौशाद ने बताया कि समय के साथ लोग अब हाथ से छपाई वाले काम को पहनना कम पसंद कर रहे हैं, जिस कारण मशीन वाली छपाई की डिमांड ज्यादा बढ़ गई है. नौशाद सरकार से उम्मीद भरे लहजे में कहते हैं कि अगर सरकार हम लोगों के लिए पूंजी का इंतजाम करे तो काम अच्छा हो सकता है.
मुहम्मद इबरार आलम ने भी सरकार से इलेक्ट्रॉनिक और मशीन द्वारा काम बंद करने और हैंडवर्क पर फोकस करने की अपील की. आलम ने कहा, “तभी हम और हमारा यह उद्योग बच पाएगा.”
सभी दुकानदारों और कारीगरों को सरकार से काफी शिकायतें हैं. इनका कहना है कि सरकार इस पुरानी कला पर कोई ध्यान नहीं देती है. जिस से इस कला के खत्म हो जाने का डर है.
लोगों का कहना है कि चांदी के तबक का लगातार इस्तेमाल करने से टीबी जैसी बीमारी होने का डर होता है, फिर भी सरकार कारीगरों लिए चिकित्सा संबंधी कोई स्कीम नहीं निकलती है. पिछले 30 सालों में तो इस उद्योग की काया पलट नहीं हो सकी, लेकिन सवाल यह है कि आने वाली सरकार क्या इस कला की ओर ध्यान देगी और इसकी उखड़ती सांसों को सरकारी मदद देकर फिर से बहाल करेगी?
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