हिमाचल प्रदेश विधानसभा चुनाव में किसी भी अन्य राजनीतिक नेता की तुलना में सबसे ज्यादा भारतीय जनता पार्टी (BJP) के राष्ट्रीय अध्यक्ष जगत प्रकाश नड्डा (JP Nadda) की प्रतिष्ठा दांव पर है. टिकट से लेकर चुनावी रणनीति तक के मामले में इस पहाड़ी राज्य में पूरे बीजेपी कैंपेन में नड्डा का प्रभाव रहा है.
इतना ही नहीं, नड्डा ने दूरस्थ पाेलिंग बूथों पर भी विशेष ध्यान दिया है और पार्टी कैडर्स को निर्देश दिया है कि ऐसे क्षेत्रों से अधिक से अधिक मतदाता मतदान करने के लिए बाहर आएं. वहीं अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद (ABVP) को युवाओं के बीच भागीदारी बढ़ाने के लिए तैनात किया गया है.
इसके अलावा नड्डा के गृह जिले बिलासपुर में, जहां कम से कम दो सीटों पर बागियों से पार्टी को खतरा है वहां जेपी नड्डा के बेटे हरीश नड्डा घर-घर जाकर प्रचार कर रहे हैं.
हिमाचल प्रदेश के राजनीतिक गलियारों में चर्चा है कि बीजेपी अध्यक्ष का कार्यकाल समाप्त होने के बाद जेपी नड्डा एक बार प्रदेश की सीएम कुर्सी पर बैठना चाहते हैं. खैर इस मुद्दे पर बाद में आएंगे, पहले हम इस चुनाव में नड्डा की एप्रोच से जुड़े कुछ प्रमुख पहलुओं पर बात करेंगे.
स्थापित नेता को दूसरी सीट पर भेजा, निष्कासित को मिला टिकट
कांगड़ा जिले की नूरपुर सीट पंजाब के पठानकोट की सीमा पर स्थित है. यह हिमाचल की उन बीस सीटों में से एक है, जहां बीजेपी और कांग्रेस बारी-बारी से जीतती है.
1996 के एक उपचुनाव को छोड़ दें तो 1993 से यह सीट कांग्रेस के महाजन परिवार (सत महाजन और उनके बेटे अजय महाजन) और बीजेपी के राकेश पठानिया के पाले में बारी-बारी से आती-जाती रही है. निवर्तमान कैबिनेट में पठानिया वन, खेल और युवा मामलों के मंत्री थे. इस बार भी ऐसा निश्चित तौर पर माना जा रहा था कि उनको इसी सीट से चुनावी मैदान में भेजा जाएगा.
लेकिन जेपी नड्डा ने पठानिया को फतेहपुर सीट पर शिफ्ट कर दिया और उनकी जगह रणबीर सिंह निक्का को लाया गया. निक्का वही नेता हैं जिसे इस साल की शुरुआत में बीजेपी जिला नेतृत्व ने निष्कासित कर दिया था. निक्का अपने निष्कासन के बाद से पठानिया और अजय महाजन दोनों पर हमला कर रहे थे और क्षेत्र में दो स्थापित नेताओं के खिलाफ खुद को एक परिवर्तनकारी के तौर पर पेश करने की कोशिश कर रहे थे. निक्का के निष्कासन के बाद कुछ समय के लिए नूरपुर में यह चर्चा थी कि वह आम आदमी पार्टी (AAP) में शामिल हो सकते हैं.
निक्का को पार्टी में वापस शामिल कर और नूरपुर कैंडिडेट बनाकर, बीजेपी ने सत्ता-विरोधी लहर पर लगाम लगाने की कोशिश की है.
वहीं इस बीच राकेश पठानिया को कठिन सीट पर पूर्व विधायक सुजान सिंह पठानिया के बेटे भवानी पठानिया के खिलाफ लड़ने के लिए भेज दिया गया.
यह एक तरह का बड़ा दांव है, बीजेपी या तो दोनों को जीत सकती है या हार सकती है.
इसी तरह का एक प्रयोग शिमला जिले में किया गया, जहां बीजेपी ने शिमला शहरी (Shimla Urban) सीट से चार बार के विधायक सुरेश भारद्वाज को कांग्रेस की मजबूत सीट कसुम्पटी में शिफ्ट कर दिया. शिमला शहरी सीट का टिकट शिमला के प्रसिद्ध सूद चाय स्टाल के मालिक संजय सूद की झोली में गया, सूद आरएसएस बैकग्राउंड से आते हैं.
नड्डा के बिना भारद्वाज जैसे नेता को शिफ्ट करना संभव नहीं हो सकता था.
राजनीतिक गणित यह कह रहे हैं कि शिमला अर्बन बीजेपी की एक मजबूत सीट है, यहां से एक नए और गैर-राजनीतिक छवि वाले व्यक्ति को टिकट देना अच्छा दृष्टिकोण है. बीजेपी को पूरा भरोसा है कि वह सीट पर कब्जा कर पाएगी, वहीं दूसरी ओर भारद्वाज अपने राजनीतिक दबदबे की बदौलत कसुम्पटी में कांग्रेस को चुनौती दे सकते हैं.
जय राम ठाकुर का समर्थन
स्पष्ट तौर पर नूरपुर और शिमला शहरी, दोनों ही सीटों में रणनीति एक ही है- यथास्थिति में बदलाव करते हुए स्थापित नेताओं को कठिन सीटों पर कड़ी मेहनत करने के लिए कहना और एक स्थापित पैटर्न का फॉलो करते हुए सीटों में बदलाव लाना.
कुछ मायनों में यह उस रणनीति से बहुत ज्यादा अलग नहीं है, जिसे बीजेपी मुख्य रूप से नड्डा के कारण हिमाचल प्रदेश में राज्य स्तर पर फॉलो कर रही है.
1977 और 2017 के बीच, हिमाचल प्रदेश के मुख्यमंत्री सिर्फ तीन जिलों से आए हैं. जो इस तरह हैं- शिमला से ठाकुर राम लाल और वीरभद्र सिंह, हमीरपुर से प्रेम कुमार धूमल और कांगड़ा से शांता कुमार.
लेकिन 2017 में बीजेपी की जीत के बावजूद धूमल को हार का मुंह देखना पड़ा, कुछ लोगों का कहना है कि धूमल की हार बीजेपी के आंतरिक मुद्दों के कारण हुई थी. इससे पार्टी को कुछ नया करने और हिमाचल की राजनीति में चली आ रही स्थिति को बदलने का मौका मिला. इसके बाद जय राम ठाकुर की एंट्री होती है. नड्डा बीजेपी में ठाकुर के सबसे प्रबल समर्थकों में से रहे हैं. कहा जाता है कि पिछले साल हुए उप-चुनाव में बीजेपी की हार के बाद भी नड्डा ने ठाकुर के साथ बने रहने की जरूरत पर जोर दिया था.
नड्डा और जय राम ठाकुर, दोनों ही एबीवीपी और भारतीय जनता युवा मोर्चा की पृष्ठभूमि से आते हैं. जब नड्डा संगठन के राष्ट्रीय अध्यक्ष थे तब ठाकुर हिमाचल प्रदेश में भाजयुमो (BJYM) के सचिव थे.
जय राम ठाकुर के होने का एक फायदा यह है कि वह निर्णायक मंडी जिले से ताल्लुक रखते हैं. सीटों के मामले में यह प्रदेश का दूसरा सबसे बड़ा जिला है, इसमें 10 विधानसभा क्षेत्र हैं. वहीं सबसे ज्यादा विधानसभा क्षेत्र वाले जिले की बात करे तो वह कांगड़ा है, जहां 15 सीटे हैं. 2017 के चुनाव में बीजेपी ने जिले की 10 में से नौ सीटों पर कब्जा जमाया था और एक सीट पर निर्दलीय उम्मीदवार ने बाजी मारी थी, जो बाद में बीजेपी में शामिल हो गया.
खासतौर पर यह देखते हुए कि बीजेपी को अपने गढ़ कांगड़ा में कुछ नुकसान होने का अनुमान है, ऐसे में अब भी मंडी जिला यह तय कर सकता है कि बीजेपी सत्ता में वापस आ रही है या नहीं.
नड्डा के लिए भी जय राम ठाकुर मायने रखते हैं, क्योंकि वे धूमल परिवार को नियंत्रित करने में मदद करते हैं. उम्र का हवाला देते हुए पूर्व सीएम प्रेम कुमार धूमल इस बार विधानसभा चुनाव नहीं लड़ रहे हैं, लेकिन उनके बेटे और केंद्रीय मंत्री अनुराग ठाकुर को राज्य में सीएम पद की आकांक्षा रखने वाले के तौर पर देखा जा रहा है.
यहां पर जाति का एंगल भी है. धूमल की तरह ठाकुर जाति से होने के कारण, वर्तमान सीएम उनके (धूमल के) लिए एक महत्वपूर्ण काउंटरवेट हैं. 1993 में शांता कुमार के बाद से हिमाचल प्रदेश में कोई गैर-ठाकुर मुख्यमंत्री नहीं रहा है.
नड्डा के लिए रिस्क
नड्डा के सुपरविजन में जो चुनाव कैपेंन का मैनेजमेंट हुआ, उसमें कुछ मुद्दे भी सामने आए. उदाहरण के तौर नूरपुर के विधायक राकेश पठानिया को जिस फतेहपुर सीट से लड़ने के लिए भेजा गया है, वहां पर नड्डा के पूर्व सहपाठी कृपाल परमार बागी उम्मीदवार के तौर पर चुनाव मैदान पर ताल ठोंक रहे हैं.
हाल ही में परमार का पीएम मोदी के साथ एक कथित फोन कॉल का वीडियो वायरल हुआ था. परमार को कॉल में यह शिकायत करते हुए सुना जा सकता है कि नड्डा उन्हें 15 साल से अपमानित कर रहे हैं और नड्डा की वजह से ही उनके असंतोष की खबर मोदी तक नहीं पहुंची. हालांकि अब तक बीजेपी में से किसी ने भी पुष्टि नहीं की है कि परमार वास्तव में मोदी से बात कर रहे थे, लेकिन परमार ने दावा किया है कि पीएम ने उन्हें यह कहने के लिए फोन किया था कि मैं अपना नामांकन वापस ले लूं.
परमार के करीबी सूत्रों का कहना है कि मोदी के प्रति उनकी (परमार की) गहरी श्रद्धा है, लेकिन वह नड्डा द्वारा किए गए "गंभीर अन्याय" के खिलाफ पीछे हटने से इनकार कर दिया.
इसी तरह नड्डा के अपने गृह जिले बिलासपुर में भी बीजेपी को बिलासपुर सदर और झंडुता सीटों पर बगावत का सामना करना पड़ रहा है. वहीं जिले में कांग्रेस ने वाकई में बागियों या असंतुष्टों को काबू में करने का बेहतर काम किया है.
यह नड्डा के लिए एक उच्च दांव वाला चुनाव है. बीजेपी हारती है तो जय राम ठाकुर पतनशील व्यक्ति हो सकते हैं, लेकिन इससे अपने गृह राज्य में नड्डा का दबदबा भी प्रभावित हो सकता है. संभव है कि अनुराग ठाकुर का राज्य इकाई पर अधिक दबदबा हो जाएगा. लेकिन अगर बीजेपी इतिहास (सत्ताधारी दल की वापसी न होने वाली परंपरा) को मात दे देती है, तो इसमें कोई शक नहीं कि यह नड्डा की निजी जीत होगी.
भले ही बीजेपी के जीतने पर जय राम ठाकुर सीएम बने रहेंगे, लेकिन ऐसी चर्चाएं हैं कि बीजेपी अध्यक्ष के रूप में अपना कार्यकाल समाप्त होने के बाद नड्डा को खुद मौका दिया जा सकता है.
नड्डा का कार्यकाल जनवरी 2023 में समाप्त होना था, लेकिन 2023 में महत्वपूर्ण राज्य चुनावों और 2024 के लोकसभा चुनावों को देखते हुए उनका कार्यकाल बढ़ा दिया गया है.
अगर नड्डा को हिमाचल प्रदेश की सत्ता सौंपी जाएगी तो वह तीन दशक पहले शांता कुमार के बाद प्रदेश के पहले ब्राह्मण सीएम होंगे.
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