क्या प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, अटल बिहारी वाजपेयी जैसी धमाकेदार वापसी कर पाएंगे? ये सवाल इसलिए उठ रहा है क्योंकि लोकसभा चुनावों से कुछ महीनों पहले जिस तरह से बीजेपी को तीन राज्यों में सरकार गंवानी पड़ी है. अटल बिहारी वाजपेयी के समय 20 साल पहले भी बीजेपी के सामने ऐसे ही हालात आ गए थे.
दिसंबर 1998 की स्थिति पर एक सरसरी निगाह डालते हैं – कांग्रेस ने उस समय मध्यप्रदेश, राजस्थान और दिल्ली के विधानसभा चुनावों में बीजेपी को हराया था. सिर्फ 9 महीने पहले ही कांग्रेस की नई अध्यक्ष बनीं सोनिया गांधी के लिए वो जीत काफी अहम थी. कांग्रेस के लिए मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में हाल में मिली जीत इससे कोई अलग नहीं. यहां एक बार फिर कांग्रेस की कमान नए अध्यक्ष के हाथों में है. राहुल गांधी महज एक साल पहले ही कांग्रेस अध्यक्ष पद पर आसीन हुए हैं.
मार्च 1999 में, वाजपेयी की सरकार लोकसभा में एक वोट से विश्वास मत हारकर सत्ता से बेदखल हो गई थी. हालांकि, 1999 के पतझड़ के समय जब लोकसभा के चुनाव हुए, तो अपने सहयोगियों के बल पर बीजेपी को बहुमत हासिल हो गई. और एक साल पहले जिन 3 राज्यों में बीजेपी ने सत्ता गंवाई थी उन राज्यों में एक बार फिर उसे अच्छी जीत हासिल हुई. हार के बाद फिर जीत को क्या कहेंगे?
वास्तव में इन राज्यों में फिर से जो जीत हासिल हुई थी उसका वजह थी वाजपेयी की लोकप्रियता, खासकर करगिल युद्ध के बाद.
करगिल ने निश्चित रूप से वोटरों को प्रभावित किया होगा, क्योंकि कुछ महीने पहले तक कई मायनों में वाजपेयी सरकार की लोकप्रियता नहीं थी. 1999 के चुनावों के बाद के लोकनीति- सेंटर फॉर स्टडी ऑफ डेवलपिंग सोसाइटीज (सीएसडीएस) के सर्वे के कुछ निष्कर्षों को देखिए.
- 79% लोगों ने कहा कि वाजयेपी सरकार के दौरान महंगाई बढ़ी.
- भ्रष्टाचार और राष्ट्रीय सुरक्षा के मुद्दे पर ज्यादातर लोगों ने कहा कि वाजयेपी सरकार के दौरान इसमें बढ़ोतरी हुई, इसमें सुधार हुआ, ऐसा कहने वाले कम लोग थे.
- 62.8% लोगों ने पोकरण परीक्षण को नकार दिया.
हालांकि, करगिल युद्ध के अलावा जो एक पहलू बीजेपी के पक्ष में रहा, वो था विकल्प की अलोकप्रियता.
लोकनीति- सेंटर फॉर स्टडी ऑफ डेवलपिंग सोसाइटीज (सीएसडीएस) के सर्वे के मुताबिक, 34.7% लोगों ने कहा कि नरसिम्हा राव सरकार (1991-96) और संयुक्त मोर्चे की सरकार (1996-98) के मुकाबले वाजपेयी सरकार (1998-99) ज्यादा पसंद है. यहां ये याद रखना जरूरी है कि 1989 और 1999 के बीच भारत में 6 अलग-अलग प्रधानमंत्री हो चुके थे और उस समय राजनीतिक स्थिरता एक महत्वपूर्ण मुद्दा थी.
क्या वाजपेयी की जीत को मोदी दोहरा पाएंगे?
मध्यप्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में हाल में हुए जिन चुनावों में बीजेपी को हार मिली है, वहां ये माना जाता है कि यहां लोकसभा चुनावों में जिस पार्टी को जीत मिलती है, वह पार्टी लोकसभा चुनावों में भी इन राज्यों में बढ़िया प्रदर्शन करती है.
वास्तव में अक्सर ही यहां सत्ताधारी दल अपने आप को मजबूत कर लेता है.
इसका एकमात्र अपवाद 1999 में वाजपेयी के जमाने में हुआ.
ओपिनियन पोल से ये पता चलता है कि इन तीन राज्यों के चुनावों में बीजेपी की हार के बाद भी मोदी की लोकप्रियता बरकरार है. हालांकि बीजेपी के लिए अब ये लगभग असंभव है कि वो 2014 की लोकसभा चुनावों की तरह मध्यप्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ के 65 सीटों में से 62 सीटों पर जीत हासिल कर लें.
इसी हफ्ते आए सी-वोटर के एक सर्वे का अनुमान है कि 2014 के चुनावों के मुकाबले अगले लोकसभा चुनावों में बीजेपी को इन राज्यों में 15 सीटों पर हार मिलेगी-राजस्थान में 6, छत्तीसगढ़ में 5 और मध्यप्रदेश में 4. अगर ये मान लें कि लोकसभा चुनावों के नतीजे वैसे ही होंगे जैसा विधानसभा के चुनावों में हुआ, तो बीजेपी की सीटों की संख्या घटकर आधी रह जाएगी, केवल 30 सीट.
वाजपेयी के 180 सीट बराबर मोदी के 250 सीट
हालांकि, वाजपेयी-मोदी की तुलना केवल इन्हीं तीन राज्यों को लेकर नहीं है. एक महत्वपूर्ण मुद्दा है जो दोनों को अलग करता है: वाजपेयी के नेतृत्व में बीजेपी और एनडीए जैसा था वो मोदी के नेतृत्व में अलग दिखता है.
वाजपेयी गठबंधन बनाकर और दोस्ती मजबूत कर अपनी ताकत बनाए हुए थे, तो मोदी लगातार अपनी और बीजेपी की ताकत को बढ़ाने में लगे हुए हैं, और इसके लिए अक्सर ही वो अहम गठबंधन को दांव पर लगा देते हैं. वाजपेयी ने कांग्रेस के हर विरोधियों को साथ लेकर चलने में बीजेपी की जीत समझी. उनके गठबंधन में तृणमूल कांग्रेस, डीएमके और जम्मू-कश्मीर की नेशनल कॉन्फ्रेंस शामिल थे, लेकिन अब बीजेपी का इन दलों से कोई लेना-देना नहीं.
इसके विपरीत, मोदी ने देश के हर हिस्से में पूर्ण रूप से बीजेपी को मजबूत करने का लक्ष्य बनाया हुआ है. उन्हें बीजेपी के मौजूदा सहयोगियों को भी साथ बनाए रखने में परेशानी आ रही है. शिवसेना लगातार प्रधानमंत्री की कटू आलोचक बनी हुई है. यहां तक कि सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी और अपना दल जैसे गठबंधन के छोटे सहयोगी भी नाखुशी के बोल सुना रहे हैं.
संख्या के हिसाब से देखें, तो ऐसे दो पहलू हैं, जिनकी तुलना कर इन दोनों नेताओं की सोच को समझा सकता है-
- दोनों नेताओं के नेतृत्व में बीजेपी के एमपी और एमएलए की संख्या.
- राष्ट्रीय स्तर पर उन्हें सहयोगी दलों का कितना समर्थन मिला, ये सहयोगी पार्टियों की एमपी की संख्या से पता चलता है.
इस संख्या से वाजपेयी के जमाने और मोदी के जमाने का फर्क पता चलता है. मोदी के नेतृत्व में बीजेपी के पास 1,346 एमएलए हैं, वाजपेयी के जमाने के 709 एमएलए का लगभग दोगुना. अभी बीजेपी के 12 मुख्यमंत्री हैं. 1999 में केवल 3 मुख्यमंत्री बीजेपी के थे. इससे पता चलता है कि मोदी के नेतृत्व में बीजेपी का व्यापक विस्तार हुआ है. बीजेपी का महत्वपूर्ण विस्तार पूर्वोत्तर के राज्यों में हुआ. उसने त्रिपुरा, मणिपुर, अरुणाचल प्रदेश और असम में अपनी सरकार बनाई और मेघालय और नगालैंड में गठबंधन कर सत्ता में शामिल हुई. इसके अलावा उत्तर प्रदेश और महाराष्ट्र में बीजेपी को अच्छी बढ़त मिली.
दूसरी तरफ, जहां तक गठबंधन की बात है, तो वाजपेयी और मोदी में एक बड़ा अंतर दिखता है. वाजपेयी ने 1999 में बीजेपी के महज 182 सांसदों के बल पर सरकार बना ली थी. उन्हें 117 अन्य सांसदों का समर्थन हासिल था. जबकि मोदी को मात्र 36 सहयोगी सांसदों का समर्थन मिला हुआ है. अगर इसमें से कुछ विपक्षी दलों के मुकाबले मोदी के खिलाफ ज्यादा बोलने वाली शिवसेना के सांसदों को अलग कर दें, तो लोकसभा में बीजेपी के सहयोगी दलों के सांसदों की संख्या केवल 18 रह जाती है. ऐसी कई पार्टियां हैं जो कभी वाजपेयी के समर्थन में थीं, लेकिन अब वो मोदी के खिलाफ हैं.
अब तो इसमें भी संदेह है कि अभी जो बीजेपी के महत्वपूर्ण सहयोगी हैं, वो 2019 के चुनावों के बाद बीजेपी के साथ बने रहेंगे या नहीं. ओडिशा में बीजू जनता दल को बीजेपी से खतरा है. तेलंगाना राष्ट्र समिति को तेलंगाना में मुस्लिम वोटों की जरूरत है और खुले तौर पर मोदी को समर्थन करने से उसे आने वाले समय में नुकसान हो सकता है. इस साल की शुरुआत में वाईएसआरसीपी ने मोदी सरकार के खिलाफ अविश्वास का प्रस्ताव लाने की कोशिश की थी, ऐसे में उसके समर्थन पर भी संदेह है.
इसलिए, अगर वाजपेयी महज 182 बीजेपी सांसदों के दम पर स्थायी सरकार बनाने में सफल हो गए, तो मोदी को प्रधानमंत्री बनने के लिए 250 सांसदों की जरूरत पड़ेगी.
अभी अगर नितिन गडकरी को लेकर चर्चा हो रही है तो ये कोई संयोग नहीं है. ये कुछ ऐसे सवाल हैं जिनसे अभी बीजेपी आने वाले चुनावों से पहले जूझ रही है. क्या मोदी बीजेपी को 250 सीट दिला पाएंगे? हाल के चुनावों में मिली हार को जीत में बदलने के लिए वो कौन सी तरकीब अपनाएंगे?और अगर बीजेपी 200 सीटों के नीचे पहुंचती है, तो क्या उसके पास वाजपेयी जैसा कोई नेतृत्व है, जो नए सिरे से गठबंधन कर सके? इसे देखना होगा.
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