जब नागरिक, लोकतंत्र के त्योहार में भाग लेने के लिए पोलिंग बूथों पर जाते हैं तब शायद वो किसी धोखे की उम्मीद नहीं करते हैं. लेकिन शायद उन्हें इस बारे में सोचना चाहिए क्योंकि राजनीतिक दलों की डर्टी ट्रिक्स इस्तेमाल करने का लंबा इतिहास रहा है जिनसे शायद लोग वाकिफ नहीं हैं.
2019 लोकसभा चुनावों से पहले क्विंट ने यह ‘भ्रम’ कैसे फैलता है के बारे में विशेषज्ञों से बात की.
यहां कुछ चीजें हैं जिनके बारे में बूथों पर ध्यान देने की जरूरत है ताकि आपका वोट बर्बाद न हो.
देश में चुनावी सुधारों के लिए काम करने वाले एक एनजीओ कॉमन कॉज के डायरेक्टर और चीफ एग्जीक्यूटिव विपुल मुदगल ने कहा, “इस धोखे या छलावे का असली मकसद किसी न किसी तरह से विपक्ष के वोटर को गुमराह करना है.”
वास्तव में, कितने ‘चंदू लाल’ हो सकते हैं?
2014 के लोकसभा चुनावों में छत्तीसगढ़ के महासमुंद निर्वाचन क्षेत्र से बीजेपी प्रत्याशी चंदू लाल शाहू ने कांग्रेस के अजीत जोगी को केवल 1,217 वोटों के अंतर से हरा दिया था.
लेकिन यह पाया गया कि वहां सात और चंदू लाल साहू थे, जो निर्दलीय लड़ रहे थे और वो लगभग 60,000 वोट पाने में कामयाब रहे- और यह कोई संयोग नहीं था.
राजनीतिक दल अक्सर विपक्ष के मतदाताओं को भ्रमित करने के लिए उनके हमनाम उम्मीदवारों की तरफ रुख करते हैं. इस कारण केवल कुछ सौ वोट ही परिणाम बदल सकते हैं और यही साहू के साथ हुआ.
एसोसिएशन ऑफ डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स (ADR) के ट्रस्टी और फाउंडर जगदीप छोकर ने कहा, ‘ये एक डर्टी ट्रिक की तरह है. ये वास्तव में दुखद है, लेकिन ये सही है कि एक समाज के रूप में हमें इन डर्टी ट्रिक्स, खासकर नेताओं से, को स्वीकार करना होगा. राजनेताओं द्वारा इस बेशर्म बर्ताव की सामाजिक स्वीकृति इस धोखाधड़ी की जड़ है.’
मुदगल ने कहा,
‘उदाहरण के तौर पर, अगर वीरप्पा मोइली के निर्वाचन क्षेत्र, जहां से वो लड़ रहे हों, में आपके पास कोई और वीरप्पा मोइली हो तो आप वोटर्स को भ्रमित करने के लिए कुछ लाख रुपये देकर चुनाव लड़वाने में परहेज नहीं करेंगे. बड़े नतीजों को देखते हुए यह खर्च कुछ भी नहीं है.’
डमी कैंडिडेट्स की भरमार
जब क्विंट ने इस बर्ताव के स्तर के बारे में प्रोफेसर छोकर से पूछा, तो उन्होंने कहा कि यह राजनीतिक दलों में काफी हद तक फैला हुआ है.
मुदगल ने उदहारण दिए. उन्होंने कहा कि 2018 में राजस्थान विधानसभा चुनावों में सत्ताधारी पार्टी, जिसे पता था कि एक विशेष समुदाय के वोट उन्हें नहीं मिलेंगे, ने पैसे लुटाकर बांसवाड़ा में एक ट्राइबल पार्टी और शेखावाटी में एक जाट पार्टी तैयार कर दी, ताकि वोटों को बांटा जा सके.
मुदगल ने 2018 राजस्थान विधानसभा चुनावों का हवाला देते हुए कहा कि हर एक निर्वाचन क्षेत्र, जहां एक मुस्लिम उम्मीदवार जीत सकता है, में विपक्षी पार्टी ढेर सारे मुस्लिम उम्मीदवारों को उतार देती है.
‘आप सीधे-सीधे उनसे नहीं टकराते, लेकिन अगर आपकी पार्टी का आधार बड़ा है तो ऐसा करने के बाकी बहुत सारे तरीके हैं. उदहारण के लिए, जयपुर के आदर्श नगर में, जहां 40 प्रतिशत मुस्लिम मतदाता हैं, कांग्रेस के रफीक खान के खिलाफ 14 मुस्लिम उम्मीदवार मैदान में उतरे थे और वोट शेयर को बांट दिया था. ऐसे मामलों में मकसद होता है कि मुस्लिम उम्मीदवार को जीतने न दिया जाए.’
हालांकि 2018 में यह रणनीति काम नहीं आई थी और खान को जीत मिली थी, लेकिन 2013 चुनावों में मुस्लिम बाहुल्य आदर्श नगर सीट बीजेपी के अशोक परनामी द्वारा 3,803 वोटों से जीत ली गई थी. तब 16 अन्य मुस्लिम उम्मीदवारों को 4,494 वोट मिले थे.
चुनाव निशान
ये पक्का करने के लिए कि सभी भ्रमित हों, किराए के ‘निर्दलीय उम्मीदवारों’ को कभी-कभी विपक्षी उम्मीदवार से मिलता-जुलता चुनाव निशान दिया जाता है.
मार्च 2019 के अंत में, तेलंगाना चुनाव से कुछ हफ्ते पहले, वाईएसआर कांग्रेस ने प्रजा शांति पार्टी पर अपनी पार्टी के लिए ‘हेलिकॉप्टर’ का चुनाव निशान चुनने पर, जानबूझकर वोटरों को भर्मित करने का आरोप लगाया. वाईएसआर कांग्रेस का चुनाव निशान पंखा है.
इसी प्रकार, आम आदमी पार्टी अगस्त 2018 में दिल्ली हाई कोर्ट पहुंची थी क्योंकि ‘आपकी अपनी पार्टी’ टॉर्च और किरणों के निशान का इस्तेमाल कर रही थी, जो आम आदमी पार्टी के चुनाव निशान झाड़ू से काफी मिलता-जुलता है. कोर्ट ने AAP के दावे को सही पाया और आपकी अपनी पार्टी को इस निशान का इस्तेमाल करने से रोक दिया.
प्रोफेसर छोकर ने कहा कि इस भ्रम से निजात पाने का एक आसान तरीका है.
भारतीय चुनाव आयोग को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि राजनीतिक दल ऐसे चुनाव निशान का इस्तेमाल करें जो अन्य पार्टियों के चुनाव निशान से मिलते-जुलते न हों.प्रोफेसर छोकर
लेकिन मुदगल का यह मानना है कि चुनाव निशान प्राप्त करना आसान नहीं है. ‘यह शायद संयोग हो सकते हैं. यह धांधली या अनाचार के बड़े प्रयास के अंतर्गत भी नहीं आता है, लेकिन आखिरकार आपको याद रखना चाहिए कि राजनीतिक दल चुनाव जीतने के लिए कुछ भी कर सकते हैं.’
क्या किया जाना चाहिए?
विशेषज्ञ मानते हैं कि डमी उम्मीदवार अस्थायी रूप से तैयार किए जाते हैं और वोट बांटने के इरादे से अक्सर कई मोर्चे तैयार किए जाते हैं, वहीं छोकर और मुदगल कहते हैं कि रिक्वायरमेंट को और कठोर नहीं किया जाना चाहिए.
प्रोफेसर छोकर कहते हैं कि ये बड़ा मुद्दा नहीं है कि बहुत सारे लोग चुनाव लड़ रहे है, बल्कि यह ‘हमारे लोकतंत्र की मजबूती दिखलाता है.’ चर्चा का विषय है तेलंगाना की निजामाबाद लोकसभा सीट, जहां अब तक एक सीट पर सबसे ज्यादा 185 उम्मीदवार एक साथ चुनाव लड़ रहे हैं.
इनमें तेलंगाना के मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव की बेटी और वर्तमान सांसद के. कविता भी शामिल हैं. चुनाव आयोग इस निर्वाचन क्षेत्र पर अधिक ध्यान दे रहा है ताकि चुनाव प्रक्रिया आसान बनी रहे.
उन्होंने कहा, ‘नहीं, मुझे नहीं लगता कि हमें इस कारण से रिक्वायरमेंट को रिवाइ करना चाहिए. मुझे लगता है कि इन्हें और कठोर करने से लोगों की पहुंच पर प्रभाव पड़ेगा. मुझे लगता है कि यह लोकतंत्र के खिलाफ होगा.’
मुदगल ने कहा,
‘दरअसल नियंत्रण कभी वैसे काम नहीं करते जैसे आप चाहते हैं. आप इसे बदल नहीं पाएंगे. यह एक तीखा कम्पटीशन है. आज लोकतंत्र किसी भी कीमत पर चुनाव जीतने तक सीमित हो गया है और जब आप हजारों करोड़ खर्च कर रहे हों तब यह आपके लिए एक बड़ा खेल होता है.’
उन्होंने कहा कि यदि कोई बदलाव होता है तो यह लोगों को लोकतांत्रिक प्रक्रिया से बाहर कर देगा जबकि ध्यान इस बात पर होना चाहिए कि चुनाव आयोग की ऑटोनोमी बरकरार रहे.
2019 लोकसभा चुनावों की तरफ बढ़ते हुए भारतीय चुनाव आयोग की ऑटोनोमी पर विचार-विमर्श एक अलग विषय है, लेकिन मुद्दा यह है कि लोगों को इन चालों से सावधान रहना होगा.
बहुत सारे भारतीयों के लिए इन डर्टी ट्रिक्स के बारे में पता करना एक भारी-भरकम काम हो सकता है. जागरूकता और सतर्कता जरूरी है- पार्टियां सत्ता हासिल करने की हर संभव कोशिश करेंगी, लेकिन एक नागरिक के रूप में यह हमारी जिम्मेदारी है कि हम उन्हें जिम्मेदार ठहराएं.
इसलिए उम्मीदवारों के नाम, पार्टी का चुनाव निशान सावधानी से देखें और जरूरत पड़ने पर भ्रम दूर करें उसके बाद ही अपना वोट दें.
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