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चुनाव 2019: गुरदासपुर में ‘घायल’ हो सकते हैं सनी देओल,जानिए 5 कारण

सनी देओल अब एक्टिंग छोड़कर एक बिलकुल अलग भूमिका में अवतरित हो रहे हैं.

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बॉलीवुड अभिनेता सनी देओल की कुछ मशहूर फिल्में या तो भारत पाक सीमा से जुड़ी थीं, जैसे, ‘बॉर्डर’, ‘गदर-एक प्रेम कथा’, ‘मां तुझे सलाम’, ‘द हीरो: लव स्टोरी ऑफ ए स्पाई’ और ‘जाल: द ट्रैप’ या पंजाब पर आधारित थीं, जैसे, 'सोहनी महिवाल', 'जो बोले सो निहाल', 'यमला पगला दीवाना' और 'सिंह साब द ग्रेट'.

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अब वो एक बिलकुल अलग भूमिका में अवतरित हो रहे हैं. उनकी नई भूमिका वर्तमान लोकसभा चुनाव में पंजाब के सीमावर्ती गुरदासपुर सीट से बीजेपी उम्मीदवार के रूप में है. गुरदासपुर सीट के लिए बीजेपी को बरसों से स्टार पावर पर भरोसा रहा है. अभिनेता विनोद खन्ना इस सीट से 1998, 1999, 2004 और 2014 में लोकसभा सांसद थे.

विनोद खन्ना की मृत्यु के बाद अक्टूबर 2017 में ये सीट कांग्रेस के सुनील कुमार जाखड़ के पास चली गई. अब बीजेपी इस सीट को कांग्रेस से छीनने के लिए फिर से फिल्म स्टार का कार्ड आजमा रही है. कांग्रेस के जाखड़, आप के पीटर मसीह और पंजाब डेमोक्रेटिक एलायंस के लाल चंद कटरूचक के मुकाबले बीजेपी की टिकट पर सनी देओल उम्मीदवार हैं.

लेकिन सनी देओल के लिए गुदासपुर सीट की जंग आसान नहीं है, ये हैं कारण:

कविता खन्ना उम्मीदवार हैं

अभिनेता होने के बावजूद स्वर्गीय विनोद खन्ना को अपने स्टार पावर से ज्यादा गुरदासपुर पर पकड़ बनाए रखने पर भरोसा था. गुरदासपुर सीट से पहली बार वो 1998 में जीते. उस वक्त तक ये सीट कांग्रेस नेता सुखबंस कौर भिंडर का गढ़ हुआ करती थी, जो इस सीट पर 1980 से लगातार जीत रही थीं. खन्ना की खासियत थी कि वो ज्यादातर अभिनेता से नेता बने लोगों से बेहतर थे. उन्होंने भिंडर को लगातार तीन बार – 1998, 1999 और 2004 में हराया.

भिंडर की मृत्यु के बाद यहां कांग्रेस की कमान बाजवा बंधुओं – प्रताप सिंह बाजवा और फतेह जंग बाजवा के हाथों में गई. प्रताप सिंह बाजवा ने 2009 में खन्ना को हराया, लेकिन 2014 में उनके हाथों पराजित हुए.

2017 में विनोद खन्ना की मृत्यु के बाद गुरदासपुर सीटपर बीजेपी की पकड़ कम हो गई. पार्टी उनकी विधवा कविता खन्ना को उम्मीदवार बना सकती थी, जिन्होंने इस क्षेत्र में अपने पति की ओर से काफी काम किया है.

लेकिन बीजेपी ने उन्हें नजरंदाज किया और कारोबारी स्वरन सलारिया को अपना उम्मीदवार बनाया, जो गुरदासपुर के भोआ के रहने वाले हैं और बाबा रामदेव के करीबी माने जाते हैं. लेकिन ये फैसला बिलकुल गलत साबित हुआ और वो कांग्रेस के सुनील जाखड़ के हाथों 1.93 लाख वोटों से पराजित हुए.

अब बीजेपी ने सनी देओल को उम्मीदवार बनाकर एक बार फिर कविता खन्ना को नजरंदाज किया है. बताया जा रहा है कि निराश कविता खन्ना ने निर्दलीय चुनाव लड़ने का फैसला किया है.

कविता खन्ना ने इस बारे में द ट्रिब्यून को ये बयान दिया था:

'‘मैं जानती हूं कि मेरे भारी-भरकम वोट बैंक को देखते हुए पार्टी मुझसे चुनाव न लड़ने की गुजारिश करेगी. लेकिन इस बार मैं पीछे नहीं हटूंगी. मुझे सनी देओल से कोई शिकायत नहीं है. उसका और मेरा परिवार लंबे समय से एक-दूसरे को जानते हैं. लेकिन जब मैं कहती हूं कि बीजेपी ऐसी पार्टी है, जिसे अपने कैडर को धोखा देने में आनंद आता है, तो बिलकुल सही कहती हूं.”

बाहरी vs स्थानीय

पंजाब में बीजेपी की आलोचना का जो मुख्य मुद्दा है, वो ये कि बीजेपी इस बार के चुनाव में बाहरी लोगों को तवज्जो दे रही है और स्थानीय नेताओं को नजरंदाज कर रही है. देओल पंजाब में बीजेपी के इकलौते “पाराड्रॉप” उम्मीदवार नहीं हैं.

अमृतसर में पार्टी ने राजिन्दर मोहन सिंह छीना, तरुण चुग, अनिल जोशी और श्वेत मलिक जैसे स्थानीय नेताओं को नजरंदाज कर केन्द्रीय मंत्री हरदीप पूरी को उम्मीदवार बनाया है.

होशियारपुर में पार्टी ने स्थानीय नेता सोम प्रकाश को उम्मीदवार बनाया है, लेकिन इससे वहां के वर्तमान सांसद और केन्द्रीय मंत्री विजय सांपला नाराज हैं, जो बीजेपी की राज्य इकाई के अध्यक्ष भी रह चुके हैं.

सनी देओल को बाहरी होने के टैग से ना सिर्फ वोटरों, बल्कि बीजेपी के अधिकारियों की बेरुखी का सामना करना पड़ेगा.

कांग्रेस को बढ़त

सनी देओल की अगली चुनौती इस सीट पर कांग्रेस को भारी बढ़त के रूप में है. 2017 के उपचुनाव में कांग्रेस को कुल वोटों का 58 फीसदी वोट पड़ा था, जबकि बीजेपी उम्मीदवार को मात्र 37 प्रतिशत वोट हासिल हुए थे. लिहाजा देओल को बीजेपी के पक्ष में और कांग्रेस के विरुद्ध करीब 11 प्रतिशत वोट स्विंग की जरूरत पड़ेगी, तब जाकर वो जीत की कल्पना कर सकते हैं.

निश्चित रूप से उपचुनाव में टर्न आउट काफी कम था. लिहाजा सनी देओल उन मतदाताओं से समर्थन की उम्मीद रख सकते हैं, जिन्होंने उपचुनाव में वोट नहीं दिया था.

गैर-हिन्दू वोटर

गुरदासपुर पंजाब के चुनिंदा लोकसभा सीटों में एक है, जो सिख बहुल नहीं है. इस सीट पर करीब 47 फीसदी हिन्दू, 44 फीसदी सिख और 8 फीसदी से कुछ कम ईसाई हैं.

सनी देओल के पिता धर्मेंद्र मूल रूप से लुधियाना के जाट सिख हैं और कांग्रेस के जाखड़ अबोहर के पास पांजकोसी के जाट हिन्दू हैं. आम आदमी पार्टी ने पीटर मसीह के रूप में एक ईसाई को अपना उम्मीदवार बनाया है. बीजेपी के पक्ष में एक मजबूत पहलू उपचुनाव में हिन्दू बहुल क्षेत्रों में वोट शेयर में बढ़ोत्तरी के रूप में है, जो उसी साल पहले हुए विधानसभा चुनाव में कम थे.

2017 विधानसभा चुनावों की तुलना में लोकसभा के लिए उपचुनाव में बीजेपी के वोट शेयर में भोआ में 13 फीसदी, पठानकोट में 11 फीसदी, दीनानगर में 10 फीसदी और सुजानपुर में 4 फीसदी की बढ़ोत्तरी हुई.

दूसरी ओर विधानसभा चुनाव में अकाली दल-बीजेपी के संयुक्त वोटों की तुलना में उपचुनाव में सिख बहुल क्षेत्रों में बीजेपी के वोट शेयर में भारी गिरावट आई.

दिलचस्प बात है कि ये वो क्षेत्र हैं, जहां से शिरोमणि अकाली दल विधानसभा चुनाव लड़ी थी. उपचुनाव में बीजेपी को डेरा बाबा नानक क्षेत्र में 14 फीसदी कम वोट पड़े, जहां से अकाली दल को विधानसभा सीट हासिल हुई थी. वोट शेयर में फतेहपुर चुरियन में 10 फीसदी, कादियान में 6 फीसदी, बटाला में 4 फीसदी और गुरदासपुर में 3 फीसदी कम वोट प्राप्त हुए.

मोटा-मोटी कहा जाए तो विधानसभा चुनाव में SAD के पक्ष में वोट देने वाले करीब 38 प्रतिशत वोटरों ने उपचुनाव में बीजेपी के पक्ष में वोट नहीं देने का फैसला किया.

इससे पता चलता है कि उपचुनाव में हिन्दू और सिख वोटरों का रुझान अलग था. हो सकता है कि विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को समर्थन देने वाले कुछ हिन्दू वोटरों ने उपचुनाव में बीजेपी को वोट दिया हो, लेकिन विधानसभा चुनाव में SAD को वोट देने वाले कई सिख मतदाताओं ने उपचुनाव में बीजेपी को वोट नहीं दिया.

सनी देओल की चुनौती सिख वोटरों का समर्थन हासिल करने की है. काफी कुछ इस बात पर निर्भर करता है कि उन्हें अकाली दल का कितना साथ मिलता है.

दो कारणों से ये आसान नहीं होगा. पहले तो गुरदासपुर में वरिष्ठ नेता सेवा सिंह शेखावत के पार्टी छोड़ने के बाद से अकाली दल संकट का सामना कर रही है. शेखावत ने रंजीत सिंह ब्रह्मपुरा और रतन सिंह अजनाला जैसे दूसरे बागी नेताओं के साथ मिलकर SAD (टकसाली) का गठन किया है.

दूसरी बात, सुखबीर बादल फिरोजपुर में अपने ही चुनाव प्रचार में व्यस्त होंगे और काफी संभावना है कि वो देओल की ज्यादा मदद न कर पाएं. हालांकि सनी देओल के लिए राहत की बात आप उम्मीदवार पीटर मसीह हैं, जो कांग्रेस के पक्ष में पड़ने वाले ईसाई वोटों में काफी हद तक सेंध लगा सकते हैं.

मोदी लोकप्रिय नहीं हैं, बालाकोट कार्ड नाकाम हो सकता है

सनी देओल के सामने एक और समस्या है. देश के कई हिस्सों में बीजेपी के 'ट्रम्प कार्ड' प्रधानमंत्री मोदी पंजाब में लोकप्रिय नहीं हैं.

CVoter के इलेक्शन ट्रैकर के मुताबिक पीएम मोदी के लिए पंजाब में कुल अप्रूवल रेटिंग मात्र 18.7 फीसदी है, जो देश के अन्य राज्यों की तुलना में सबसे कम रेटिंग में से एक है. केरल, तमिलनाडु और आंध्र प्रदेश जैसे दक्षिणी राज्यों में भी मोदी की लोकप्रियता कम है.

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पंजाब उन चुनिंदा राज्यों में एक है, जहां लोगों ने प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार के रूप में मोदी से अधिक राहुल गांधी को पसंद किया. CVoter के मुताबिक पंजाब में मोदी के पक्ष में 36 फीसदी की तुलना में 40 फीसदी लोगों ने राहुल गांधी को प्रधानमंत्री के लिए बेहतर उम्मीदवार बताया है.

अपनी फिल्मों में एक धाकड़ देशभक्त का किरदार निभाने वाले सनी देओल निश्चित रूप से बालाकोट हवाई हमले को अपना चुनावी मुद्दा बनाएंगे. लेकिन हो सकता है कि ये भी उनके पक्ष में ज्यादा काम न करे. CVoter ट्रैकर के मुताबिक, पंजाब में सिर्फ 2.7 लोगों का ही मानना है कि चुनाव में आतंकवाद एक मुख्य मुद्दा है. ये आंकड़ा देश के सभी राज्यों में सबसे कम है.

प्रस्तावित करतारपुर साहिब कॉरिडोर गुरदासपुर के डेरा बाबा नानक सीमा के पास बनने की संभावना है. लिहाजा इस क्षेत्र के ज्यादातर लोग देशभक्ति के अतिरेक के बजाय पाकिस्तान के साथ बेहतर संबंध बनाने के पक्ष में हो सकते हैं.

इन पांच कारणों से सनी देओल को गुरदासपुर में परेशानियों का सामना करना पड़ सकता है. देखना दिलचस्प होगा कि सनी देओल का ‘ढाई किलो का हाथ’ कांग्रेस पर कितना भारी पड़ता है.

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