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‘सैराट’ जैसी क्यों नहीं बन पाई ‘धड़क’, दोनों फिल्मों में 10 अंतर

‘धड़क’ और ‘सैराट’ में कहां-कहां है फर्क?

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सैराट 2016 में आई. मराठी फिल्म इतिहास की अब तक की सबसे सफल फिल्म होने का खिताब इस फिल्म को हासिल है. मराठी में पहली बार किसी फिल्म ने 100 करोड़ रुपए से अधिक का बिजनेस किया. इस फिल्म के करेक्टर आर्ची और पर्स्या लोगों की जुबान पर चढ़ गए. डायरेक्टर नागराज मंजुले अचानक से स्टार बन गए. झिंगाट और याड लागला जैसे गाने शादी से लेकर धार्मिक और सामाजिक उत्सवों में खूब गाए और बजाए गए.

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सैराट हर मायने में मराठी की कल्ट फिल्म है.

इसकी कामयाबी ने अंतरराष्ट्रीय स्तर पर झंडे गाड़े और जाहिर है कि बॉलीवुड इस कामयाबी को भुनाने और दोहराने में पीछे क्यों रहता? तो यह कोशिश हुई फिल्म धड़क (2018) के जरिए.

कोशिश भी कोई ऐसी वैसी नहीं. बेहद जोरदार. सैराट 4 करोड़ रुपए में बनी. धड़क का बजट 12 गुना ज्यादा 50 करोड़ रुपए का बताया जाता है. करण जौहर बने प्रोड्यूसर और हंप्टी शर्मा की दुल्हनिया और बद्रीनाथ की दुल्हनिया से काययाबी का स्वाद चख चुके डायरेक्टर ने निर्देशन का जिम्मा संभाला.

संगीत का जिम्मा अजय-अतुल की उसी जोड़ी ने संभाला, जिन्होंने सैराट की धुनों से पूरे महाराष्ट्र को भिगो दिया था. दो बड़े फिल्मी परिवारों से उठाए गए लीड करेक्टर. बोनी कपूर और श्रीदेवी की बेटी जाह्नवी और शाहिद कपूर के भाई (एक ही मां नीलिमा अजीम के बेटे) ईशान खट्टर को इस फिल्म के जरिए हिंदी फिल्म इंडस्ट्री में लॉन्च किया गया.

सैराट और धड़क में एक जैसा क्या है?

दोनों फिल्म में हीरोईन हीरो से अमीर है. हीरो के दो दोस्त हैं. हीरोइन की एक दोस्त है. हीरो-हीरोइन में प्यार हो जाता है. हीरोइन के बाप को इनके प्रेम का पता चल जाता है. अमीर बाप प्रेम का दुश्मन बन जाता है. प्रेमी-प्रेमिका को भागना पड़ता है. दोनों नए सिरे से जिंदगी बनाने की कोशिश करते हैं. दोनों की शादी होती है. बच्चा होता है. फिर दोनों फिल्मों में आखिरी सीन में ऑनर किलिंग होती है. संगीतकार दोनों फिल्मों में एक हैं. कई सिक्वेंस बिल्कुल एक जैसे हैं.

लेकिन धड़क इन सबके बावजूदसैराट जैसा जादू नहीं पैदा कर पाई. आखिर क्यों?

1. नागराज मंजुले नहीं हैं शशांक खेतान

नागराज मंजुले महाराष्ट्र के एक दलित परिवार में जन्मे फिल्मकार हैं. जाति उनके लिए कोई किताबी चीज नहीं है. जाति को उन्होंने अपने आसपास देखा और झेला है. इसलिए जाति भेद के कारण होने वाली ऑनर किलिंग को वे वहां से देख पाए हैं, जो किसी और लोकेशन से देख पाना संभव नहीं है.

शशांक खेतान अपना परिवार और अपनी जाति नहीं चुन सकते थे. ये चीजें कोई नहीं चुन सकता. शशांक कोलकाता के एक मारवाड़ी परिवार में पले-बढ़े. उन्होंने फिल्म में ईमानदार रहने की कोशिश की है. नागराज मंजुले को ऐसी कोई कोशिश नहीं करनी पड़ी.

2. ऑनर किलिंग पर बनी फिल्म धड़क में जाति लगभग नदारद है

अगर धड़क में हीरो के पिता यह एक डायलॉग न बोलते कि “वे लोग ऊंची जाति वाले हैं, उस लड़की से दूर रहो” तो पता भी न चलता कि हीरो नीची जाति का है या कि यह ऑनर किलिंग पर बनी फिल्म है. इस डायलॉग को छोड़ दें तो फिल्म अमीर लड़की और मिडिल क्लास लड़के की प्रेम कहानी है.

पूरी फिल्म जाति से मुंह चुराकर, मुंह छिपाकर चलती है, मानो जाति की बात हो गई तो फिल्म गंदी हो जाएगी और दर्शकों को उबकाई आ जाएगी. हो सकता है कि निर्माता और निर्देशक को यह लगता हो कि जाति की बात करने से हिंदी फिल्मों के दर्शकों की भावनाएं आहत हो जाएंगी. हो सकता है कि वे सही सोच रहे हों क्योंकि हर साल बनने वाली सैकड़ों हिंदी फिल्मों में समाज की सबसे बड़ी समस्या जाति की चर्चा लगभग नहीं होती है.

3. सैराट जाति के सवाल से बचती नहीं, उससे टकराती है

सैराट में हीरो अपने पिता के साथ मछलियां पकड़ता है. गांव के बाहर की दलित बस्ती में उसका मकान है. उसके माता-पिता उसकी दलित जाति का उसे एहसास कराते हैं. हीरोइन उसके घर आकर पानी पी लेती है, तो यह एक दर्ज करने लायक बात बन जाती है. यहां तक कि गांव की पंचायत में भी हीरो का पिता अपनी दलित होने की बेचारगी को जताता है.

हीरो और हीरोइन जब गांव छोड़कर भागते हैं तो शहर में एक दलित बस्ती में वे ठहरते हैं. वहां बौद्ध पंचशील का झंडा बैकग्राउंड में है, जो यह बताता है कि वे कहां हैं. हीरोइन का मराठा होना भी साफ नजर आता है.

4. अंतिम सीन में धड़क सैराट से काफी कमजोर पड़ जाती है

सैराट के अंत में हीरोइन के परिवार वाले लड़का-लड़की दोनों को मार देते हैं. धड़क में डायरेक्टर हीरोइन को बचा लेता है. यह ऑनर किलिंग का तरीका नहीं है. ऑनर किलिंग में अक्सर देखा गया है कि परिवार वाले लड़की को नहीं छोड़ते. खासकर तब जब उसने अपने से नीच जाति के लड़के के साथ प्रेम या शादी की है.

ऑनर किलिंग करने के पीछे परिवार और जाति की इज्जत जाने का एक भाव होता है और जाति गौरव दोबारा हासिल करने के लिए और दोबारा ऐसी घटना न हो, ऐसा सबक बाकी लड़कियों को देने के लिए, लड़कियों की हत्या की जाती है. इस बात को वो लोग नहीं समझ पाते, जिन्होंने जाति को सिर्फ किताबों में पढ़ा है.

5. सैराट बारीकियों में चलती है, कमजोरों के साथ खड़ी होती है

सैराट में हीरो के दो दोस्त हैं. एक मुसलमान है और दूसरा शारीरिक रूप से कमजोर. एक चूड़ी बेचने वाले का बेटा है तो एक मोटर मैकेनिक. यहां फिल्म के लेखक और डायरेक्टर नागराज मंजुले की सामाजिक दृष्टि साफ नजर आती है. ये दोस्त हास्य पैदा करते हैं, लेकिन समाज के विस्तार और उसकी पीड़ाओं को भी दिखाते हैं.

धड़क इन बारीकियों में जाने से कतरा जाती है. धड़क के हीरो के दोस्त हंसाते तो हैं, लेकिन वे सलीम और प्रदीप भंसोडे नहीं हैं. उनमें मसखरापन है, लेकिन न तो सलीम होने का अलगाव है न प्रदीप के लंगड़ेपन का दर्द. प्रदीप एक लड़की से एकतरफा प्रेम करता है और उसकी असफलता पहले तो हास्य और फिर करुणा जगाती है. धड़क इन चक्करों में नहीं पड़ती.

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6. क्लासरूम सीन में भी सैराट ने धड़क से बाजी मार ली है

सैराट में जब हीरोइन का दबंग भाई क्लास में आता है और मास्टर को थप्पड़ मारता है तो डॉयरेक्टर इशारों में बता देता है कि मास्टर दलित है. वह क्लास में इंग्लिश साहित्य पढ़ाते हुए दलित पैंथर आंदोलन के कवि के बारे में बताता है.धड़क का डायरेक्टर ऐसी कोई जहमत नहीं उठाता, बल्कि शिक्षक का नाम अग्निहोत्री बताकर वह पूरे सीन को कमजोर कर देता है. अग्निहोत्री की एक ठाकुर लड़कों के हाथ से पिटाई में वह ताप नहीं है जो एक मराठा दबंग द्वारा एक दलित शिक्षक पर हाथ उठाने में है, वह भी तब जब वह शिक्षक दलित चेतना के कवि को पढ़ा रहा हो.

7. राजस्थान और महाराष्ट्र में फर्क है. कोलकाता और हैदराबाद भी दो अलग तरह के शहर हैं

धड़क राजस्थान से शुरू होकर कोलकाता में खत्म होती है. सैराट महाराष्ट्र एक गांव से शुरू होकर हैदराबाद में खत्म होती है. महाराष्ट्र भारत में जातिवाद के खिलाफ विद्रोह की जमीन है. तुकाराम से लेकर ज्योतिबाफुले, शाहूजी महाराज, गाडगे महाराज और बाबा साहेब भीमराव आंबेडकर तक ने जाति व्यवस्था को चुनौती दी.

महाराष्ट्र में ब्लैक पैंथर हुए और नामदेव ढसाल जैसे कवि भी. सैराट की कहानी वहां से कहानी हैदराबाद पहुंचती है. दक्षिण भारत में आम तौर पर जाति की चेतना मौजूद है और खासकर तेलंगाना में जाति के प्रति विद्रोह की परंपरा भी है.

इसके मुकाबले धड़क के डायरेक्टर ने उदयपुर और कोलकाता को चुना. दोनों ऐसे शहर हैं, जहां जाति उत्पीड़न तो खूब है, लेकिन जाति के प्रति विद्रोह या तो नहीं है, या बेहद कमजोर है.

8. धड़क में लोकेशन और सेट का ग्लैमर है, जबकि सैराट में गांव का जीवन और स्लम की पीड़ा

धड़क के दूसरे हिस्से में कहानी कोलकाता की एक मिडिल क्लास बस्ती में पहुंचती है, जबकि सैराट में हैदराबाद का स्लम आता है. वहां जीवन की कठिनाइयां तमाम तकलीफों और बदबू की साथ सामने आती है. धड़क लगातार इस बात का ध्यान रखती है कि दर्शकों को कोई गंदी या आंखों को चुभने वाली चीज न दिखाई जाए.

धड़क में ग्लैमर है, दृश्य चमकीले हैं, आउटडोर लोकेशन भव्य हैं. सैराट के निर्देशक का मकसद ही अलग है. वह पिक्चर पोस्टकार्ड शूट करने की कोशिश भी नहीं करता.

9. सैराट मराठों और दलितों के बीच बढ़ते तनाव के बीच आई

सैराट फिल्म ऐसे समय में महाराष्ट्र के थिएटर्स में पहुंची, जब मराठा आरक्षण का आंदोलन जोर पकड़ चुका था. दलितों में मध्य वर्ग के उभार और खासकर शिक्षा के क्षेत्र में उनकी कामयाबियों ने महाराष्ट्र के समाज में नए समीकरण तैयार किए हैं. दलितों की तरक्की वहां जलन पैदा कर रही है. ऐसे समय में दलित लड़के और मराठा लड़की की प्रेम कथा के ऑनर किलिंग में अंत वाली कहानी पर बनी फिल्म ने समाज के उन तारों को छेड़ दिया जो पहले से ही कांप रहे थे. धड़क के राजस्थान में ऐसा कुछ नहीं हो रहा है. वहां उत्पीड़न की कथाएं ही आम हैं.

10. धड़क दो फिल्मी परिवारों की अगली पीढ़ी का लॉन्च पैड है

वहीं सैराट के हीरो और हीरोइन दोनों दलित परिवारों से हैं. उनका कोई फिल्मी अतीत नहीं है. उनका इस फिल्म में होना सिर्फ नागराज मंजुले की दृष्टि की वजह से है. सैराट एक ईमानदार फिल्म है. धड़क के बारे में यही बात नहीं कही जा सकती.

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