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‘भूले-भटके बाबा’, जिनकी वजह से फिल्मों में अब भाई नहीं बिछड़ते!

कुंभ में लोगों को मिलाने का श्रेय जाता है ‘भूल भटके बाबा’ राजाराम तिवारी को.

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प्रयागराज में कुंभ मेले की शुरुआत हो गई है. वैसे कुंभ के इस मेले का बॉलीवुड से गहरा नाता रहा है. 70 और 80 के दशक में कई ऐसी फिल्में बनीं, जिनमें कुंभ मेले से दो भाई जुदा हुए और बरसों बाद उनका मिलन हुआ.

लेकिन पिछले कुछ दशक से ऐसी कहानी पर फिल्में बननी बंद हो गईं. इसकी वजह चाहे जो भी हो, लेकिन ऐसा माना जाता है कि कुंभ में लोगों का बिछड़ना बंद हो गया, तो ऐसी फिल्में बननी भी बंद हो गईं. काफी हद तक इसका श्रेय जाता है 'भूले-भटके बाबा' यानी राजाराम तिवारी को, जिन्‍होंने कुंभ में बिछड़े लोगों को मिलाना ही अपनी जिंदगी का मकसद बना लिया.

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राजाराम तिवारी के बारे में कहा जाता है कि उन्होंने अपनी जिंदगी के 70 साल कुंभ में बिछड़े लोगों को मिलाने में लगा दिए. इस वजह से बॉलीवुड का फेवरेट प्लॉट छिन गया और पिछले दो दशकों में तो हमने कभी किसी फिल्म में ये नहीं देखा कि कुंभ के मेले में कोई भाई बिछड़ा हो.  
कुंभ में लोगों को मिलाने का श्रेय जाता है ‘भूल भटके बाबा’ राजाराम तिवारी को.

कौन थे भूले-भटके बाबा?

राजाराम तिवारी आज इस दुनिया में नहीं हैं, लेकिन उनके काम को आज भी लोग याद करते हैं. यहीं नहीं, उनकी जिंदगी पर फिल्म बनाने की भी तैयारी चल रही है. राजाराम तिवारी ने अपनी सारी जिंदगी कुंभ में बिछड़े लोगों को मिलाने के लिए समर्पित कर दी. ऐसा दावा किया जाता है कि उन्होंने अपनी जिंदगी में लाखों को मिलवाया. कुंभ के दौरान वे ‘खोया-पाया कैंप’ चलाते थे, जिसका मिशन था बिछड़ों को आपस में मिलाना.

कुंभ में लोगों को मिलाने का श्रेय जाता है ‘भूल भटके बाबा’ राजाराम तिवारी को.

आजादी के एक साल पहले से शुरू किया काम

आजादी से एक साल पहले 1946 में 18 साल के राजाराम तिवारी अपने दोस्तों के साथ इलाहाबाद के माघ मेले में घूमने गए थे. मेले में उनको एक बच्चा मिला, जो अपनों से बिछड़ गया था. राजाराम अपने दोस्तों के साथ मिलकर उसके घरवालों को ढूंढने लगे. उस जमाने में लाउडस्पीकर नहीं होता था, तो उन्होंने एक टीन के डिब्बे को काटकर उसका भोंपू बनाया और उससे चिल्लाकर अनाउंसमेंट करने लगे. आखिर में राजाराम की मेहनत रंग लाई और उस बच्चे के घरवाले मिल गए.

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इस घटना के बाद ही राजाराम की जिंदगी बदल गई. 18 साल के उस नौजवान ने बिछड़ों को अपनों से मिलाना ही अपनी जिंदगी का मकसद बना लिया. उन्होंने अपने दोस्तों के साथ मिलकर भारत सेवा दल का गठन किया और उसके बाद शुरू हुई मुहिम.

राजाराम तिवारी की इस मुहिम की वजह से ही लोग उन्हें 'भूले भटके बाबा तिवारी' के नाम से जानने लगे. वो जबतक जिंदा रहे, लोगों को एक दूसरे से मिलाते रहे.

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