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सुशांत सिंह राजपूत पर मत डालिए सारी जिम्मेदारी,आपकी भी है जवाबदारी

क्या मेंटल हेल्थ का सारा दारोमदार उसी व्यक्ति पर है जो इससे जूझ रहा है. सुशांत के केस में ज्यादातर लोग यही कर रहे है

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इंस्टाग्राम पर एक युवा समूह ने अभिनेता सुशांत सिंह राजपूत की सुसाइड के बाद एक स्टोरी पोस्ट की- बात करके देखो. इसमें फिल्म-टीवी के कई मशहूर कलाकार लोगों से अपील कर रहे हैं- जब आपको मेंटल हेल्थ इश्यू हो तो बात करके देखो- किसी से भी. जिसे आप अपना समझो. यूं यह अपील टीवी, रेडियो, सोशल मीडिया के बहुत से मंचों से सुनाई दे रही है. अगर परेशान हैं तो किसी अजीज से इस बारे में बात करके देखिए.

यह सुनकर अच्छा लगता है. लेकिन हमेशा की तरह इस बार भी सारा ओनस यानी जिम्मेदारी हम विक्टिम पर ही डाल देते हैं. अगर उसने किसी से बात की होती, तो शायद यह कदम नहीं उठाता. क्या मेंटल हेल्थ का सारा दारोमदार उसी व्यक्ति पर है जो इससे जूझ रहा है. सुशांत सिंह राजपूत के मामले में ज्यादातर लोग यही कर रहे हैं.

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विक्टिम को विक्टिमाइज करना

यूं सुशांत सिंह राजपूत की मौत के बाद मीडिया के कवरेज को लेकर भी काफी आलोचना की गई. कई टीवी चैनलों में रिपोर्टिंग और प्रेजेंटेशन बहुत असंवेदनशील तरीके से की गई. इसी से इस बात पर भी चर्चा हुई कि ऐसे मामलों में रिपोर्टिंग की भाषा पर भी बात किए जाने की जरूरत है. जैसे क्या हमें किसी सुसाइड की रिपोर्टिंग करते समय, कमिटेड सुसाइड की जगह डेथ बाय सुसाइड लिखना चाहिए. क्योंकि कमिटेड सुसाइड कहकर हम सारी जिम्मेदारी आत्महत्या करने वाले व्यक्ति पर डालते हैं, इसलिए डेथ बाय सुसाइड लिखा जाना चाहिए. वरना, हम अपनी भाषा से विक्टिम को ही विक्टिमाइज करते रहेंगे.

अमेरिका के नेशनल एलाइंस ऑन मेंटल इलनेस सहित कई एडवोकेसी ग्रुप्स इसीलिए बार-बार भाषा को बदलने की वकालत कर रहे हैं. बेशक, मानसिक स्वास्थ्य किसी की अकेली जिम्मेदारी नहीं. सुशांत को लोगों से संवाद करना चाहिए था, यह ठीक वैसा ही है, जैसे किसी महिला को रात को घर से निकलते समय, अपनी सुरक्षा के लिए किसी पुरुष को साथ ले जाने की सलाह देना. सुशांत या उसके जैसे दूसरे लोग- जो मेंटल हेल्थ इश्यू से गुज़र रहे हैं, उन्हें हमसे नहीं, हमें खुद उनसे बात करनी चाहिए.

ऐसे में हमारी और समुदाय की क्या जिम्मेदारी है

मेंटल हेल्थ इश्यू हमारी और समुदाय की भी बहुत बड़ी जिम्मेदारी है. सबसे पहले तो समुदाय के तौर पर हमें क्या भूमिका निभानी चाहिए- यही कि हम खुद संवाद स्थापित करें. बतौर माता-पिता, दोस्त या संबंधी, हम दूसरों को इतना वक्त और स्पेस दें कि वे खुद हिचकें नहीं. इसके लिए मानसिक स्वास्थ्य को ठीक वैसे ही लिया जाए, जैसे दूसरे शारीरिक स्वास्थ्य को. सबसे पहले उससे जुड़ी सोच को बदलें.

जैसा कि 2017 के मेंटल हेल्थकेयर एक्ट के अंतर्गत नियम कहते हैं कि बच्चों को इस बारे में समझाया जाना चाहिए कि सफलता और असफलता को सकारात्मक रूप से लें. शिक्षकों को किशोरों में आत्महत्या को रोकने के लिए काम करना चाहिए- भले ही वे परीक्षाओं या निजी जिंदगी में प्रेम संबंधों में असफल हुए हों. स्कूल के स्तर पर भी ऐसे अभियान चलाए जाने चाहिए ताकि किशोरों को नशे की लत से दूर किया जा सके और उनमें हिंसा और आत्महत्या जैसी भावनाएं पैदा न हों.

यह कम परेशान करने वाली बात नहीं कि भारत में सुसाइड से मृत्यु की दर दक्षिण पूर्वी एशिया में सबसे अधिक है और हमारे यहां 2016 में हर एक लाख लोगों पर 16.5 लोग सुसाइड कर रहे थे, पर मानसिक स्वास्थ्य से जुड़ा हुआ सामाजिक लांछन खत्म नहीं होता. हाल ही में कांग्रेस नेता मिलिंद देवड़ा ने अपने अनुभवों को साझा करते हुए बताया था कि उन्हें काउंसिलर के साथ-साथ परिवार का भी बहुत साथ मिला था. इसीलिए वह इस सबसे बाहर निकल पाए.

कुछ दायित्व प्रशासन के भी हैं

बेशक, इस सिलसिले में प्रशासनिक स्तर पर भी बहुत बड़ी जिम्मेदारी है. जैसे कोविड-19 के काल में सिर्फ शारीरिक बीमारी पर ही ध्यान दिया जा रहा है, लेकिन इस दौरान लोगों के मानसिक स्वास्थ्य पर क्या असर हो रहा है- इस पर कोई बात नहीं की जा रही. जबकि अपने भविष्य को लेकर आशंका और महामारी के खौफ से बहुतों ने रातों की नींद और दिन का चैन खोया है. इसके अलावा सामान्य स्थितियों में भी मानसिक स्वास्थ्य पर प्रशासन और सरकारों का ज्यादातर ध्यान नहीं जाता.

विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार, 9 करोड़ से ज्यादा भारतीय मानसिक स्वास्थ्य संबंधी समस्याओं का शिकार हैं लेकिन यह प्रशासन की चिंता का सबब नहीं है. ज्यादातर लोग इसके लिए डॉक्टरों के पास नहीं जाते क्योंकि न सिर्फ उन्हें लांछन का डर होता है, बल्कि सही थेरेपिस्ट्स की भी जानकारी नहीं होती.

पिछले साल मेंटल हेल्थ पर एनएचआरसी की नेशनल लेवल की रिव्यू मीटिंग में आयोग के चेयरपर्सन जस्टिस एच.एल. दत्तू ने कहा था कि 2017 के एक्ट के बाद जमीनी सच्चाइयों के बारे में जानना जरूरी है.

यह दुखद है कि देश में 13,500 साइकैट्रिस्ट्स की जरूरत है, पर सिर्फ 3827 उपलब्ध हैं. इसी तरह 20,250 क्लिनिकल साइकोलॉजिस्ट्स की जरूरत होने के बावजूद सिर्फ 898 उपलब्ध हैं.

इस कमी को पूरा करने की जिम्मेदारी प्रशासन की है.

इस संबंध में हाल ही में सर्वोच्च न्यायालय ने केंद्र सरकार और इरडा से जवाब मांगा है कि मानसिक स्वास्थ्य बीमा कवर में क्यों नहीं आता? न्यायालय ने एक याचिका के हवाले से पूछा है कि मेंटल हेल्थकेयर एक्ट में यह प्रावधान होने के बावजूद इस पर अमल क्यों नहीं किया जा रहा. याचिका में कहा गया था कि इरडा बीमा कंपनियों को कवरेज देने को नहीं कह रहा और इस कारण मेंटल हेल्थ इश्यूज़ वाले लोगों को परेशानियों का सामना करना पड़ रहा है.

खुद से पूछें कि जब उसने पुकारा, तब आप कहां थे

मानसिक स्वास्थ्य की समस्याओं का सामना कोई भी, कभी भी कर सकता है. इस ग्रुप ऑफ पर्सन्स के अलावा, कुछ लोग ऐसे भी हैं जो जन्मजात मानसिक रूप से चुनौतियों का सामना करते हैं. हालांकि मेंटल हेल्थ एक्ट में मेंटल इलनेस की परिभाषा शामिल नहीं है. फिर भी ऐसे लोगों की तरफ भी पूरा ध्यान दिया जाना चाहिए जो मानसिक चुनौतियों से गुजर रहे हैं, खास तौर से महिलाएं. देश में ऐसी 6 लाख से अधिक महिलाएं हैं.

पीपुल्स आर्काइव्स ऑफ रूरल इंडिया जैसे नेटवर्क ने महाराष्ट्र के पुणे जिले के एक गांव की 40 साल की महिला मालन पर स्टोरी की, जो जन्मजात मानसिक चुनौतियों का सामना कर रही थीं. आम तौर पर इस दशा की लड़कियों की रिप्रोडक्टिव हेल्थ के लिए उनकी हिस्टेरेक्टॉमी कर दी जाती है यानी प्रजनन अंगों को सर्जरी से निकाल दिया जाता है. क्योंकि उन लड़कियों के लिए मेन्स्ट्रुएशन एक बर्डन की तरह देखा जाता है. आप उन्हें सेक्सुअल ट्रेनिंग नहीं दे सकते, उनके शोषण का खतरा भी बना रहता है.

1994 में पुणे में सासून जनरल अस्पताल में हिस्टेरेक्टॉमी को खूब मीडिया कवरेज मिला था. पर मालन की मां ने उसकी सर्जरी नहीं करवाई. 74 साल की उसकी मां तीन एकड़ जमीन पर धान, गेहूं और सब्जियां उगाकर अपना गुजारा करती हैं और मालन जैसी दूसरी लड़कियों की मदद के लिए आंगनवाड़ी केंद्र में एक एनजीओ के साथ भी काम करती हैं. यह परिवार और समुदाय की जिम्मेदारी की एक छोटी सी मिसाल है.

यहां मालन से कोई नहीं कहता कि उसे दूसरों से मदद मांगनी चाहिए. तो, जन्मजात मानसिक चुनौती हो, या मेंटल हेल्थ इश्यूज, उससे जूझ़ने वाले से नहीं कहा जा सकता कि उसे बात करनी चाहिए. यह सवाल खुद से भी किया जाना चाहिए कि जब व्यक्ति को आपकी जरूरत थी, तब आप कहां थे? अगर सुशांत या उसके जैसे दूसरे लोग अपनी जान लेते हैं तो समाज के तौर पर हम खुद नाकाम हुए हैं.

(ऊपर लिखे विचार लेखक के अपने हैं. क्विंट न उनका समर्थन करता है और न ही उनके लिए जिम्मेदार है)

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