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‘कागज’ रिव्यू: पंकज त्रिपाठी की एक्टिंग शानदार, लेकिन फिल्म नहीं

‘कागज’ फिल्म में भारत की सामाजिक और राजनीतिक व्यवस्था पर चोट की गई है.

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‘कागज’ रिव्यू: पंकज त्रिपाठी की एक्टिंग शानदार, लेकिन फिल्म में हैं कई कमियां

पंकज त्रिपाठी (Pankaj Tripathi) की फिल्म ‘कागज’ OTT प्लेटफॉर्म जी5 पर रिलीज हो गई है. ये फिल्म लाल बिहारी (जो लाल बिहारी ‘मृतक’ के तौर पर लोकप्रिय हैं) की सच्ची कहानी पर आधारित है. ‘कागज’ फिल्म में भारत की सामाजिक और राजनीतिक व्यवस्था पर चोट की गई है.

‘कागज’ में पंकज त्रिपाठी लीड रोल में हैं. फिल्म को सतीश कौशिक ने डायरेक्ट किया है और सलमान खान ने इसे प्रोड्यूस किया है.

‘सिस्टम’ या यूं कहें ‘व्यवस्था’ देश के हर नागरिक को प्रभावित करती है और इसकी खामियों का असर भी सभी पर पड़ता है. ‘कागज’ फिल्म में भी कुछ ऐसा ही दिखाया गया है. ‘कागज’ हमें उत्तर प्रदेश के एक गांव में ले जाती है, जहां धूल और शोर है, लेकिन वहीं बगल में मीलों तक फैले हरे-भरे खेत भी हैं. यहां ग्रामीण जिंदगी की एक सादगी भी दिखाई देती है.

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‘कागज’ एक “आम आदमी” की कहानी है, जिसे कानूनी रूप से मृत घोषित कर दिया गया है. खुद को जीवित साबित करने के एक दशक चले उसके संघर्ष को दो घंटे के अंदर समेटने की कोशिश की गई है.

 ‘कागज’ फिल्म में भारत की सामाजिक और राजनीतिक व्यवस्था पर चोट की गई है.

सिस्टम का ऐसा जाल है कि अगर एक बार उसमें फंस गए, तो उससे निकलते-निकलते पूरी जिंदगी निकल जाएगी. यहीं से लाल बिहारी का खुद को कानूनी रूप से जीवित साबित करने का सफर शुरू होता है. इस सिस्टम से निकलने और आखिर में सफलता प्राप्त करने के लाल बिहारी के इस सफर में कई उतार-चढ़ाव आते हैं.

लाल बिहारी की ये कहानी ड्रामा और व्यंग्य से भरपूर है, लेकिन फिल्म की स्क्रिप्ट पुरानी और बिखरी हुई लगती है, जिसमें कोई मेल नहीं है. चीजें बस होती दिख रही हैं. फिल्म को 20 साल पुराने टीवी सीरियल का ट्रीटमेंट दिया गया है, जिसमे ड्रामा से लेकर हर चीज का कुछ ज्यादा ही इस्तेमाल किया गया है. कैरेक्टर्स और कॉमेडी दोनों के लिए बहुत गुंजाइश है, लेकिन इस मौके का सही से फायदा नहीं उठाया गया, जिससे पूरी बात सपाट लगती है.

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ये जानते हुए कि फिल्म असली कहानी पर आधारित है, स्क्रिप्ट कहानी के साथ इंसाफ नहीं करती. लोगों के बीच हो रही बातें ज्ञान देने जैसी लगती हैं. ये फिल्म कम, नुक्कड़ नाटक ज्यादा लगती है.

फिल्म में वॉयस ओवर और कविताओं का भी इस्तेमाल किया गया है. वॉयस ओवर ऐसी चीज है, जो किसी फिल्म के कहने के स्टाइल को बना भी सकती है और बिगाड़ भी सकती है. फिल्म में सलमान खान की आवाज में कविता बढ़िया छाप छोड़ती है, लेकिन वहीं, सतीश कौशिक का वॉयस ओवर फिल्म में कुछ अलग और मजेदार नहीं जोड़ता.

फिल्म सबसे मजबूत है अपने हीरो में. समाज और सिस्टम को आइना दिखाता और बदलाव के लिए उकसाता हीरो अच्छा और नेक काम कर रहा है, और यहीं फिल्म जीतती दिखाई देती है.

समाज में बदलाव, विश्वास, उम्मीद और सत्ता से लंबे समय तक लड़ने के लिए ताकत और इस लड़ाई में कभी-कभी हारना... ‘कागज’ हमें मुश्किल समय में उम्मीद बंधाती है.
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फिल्म में कई ऐसे पल हैं, जहां लाल बिहारी के प्यार, शक्ति और संघर्ष को खूबसूरती के साथ दिखाया गया है. हमेशा की तरह पंकज त्रिपाठी ने शानदार काम किया है. वो जो भी करते हैं, उसमें जंचते हैं. उनकी पत्नी के रोल में मोनल गज्जर भी जम रही हैं, लेकिन उनके किरदार में गहराई कम है. बाकी किरदारों को देखकर भी ऐसा लगता है कि उनपर ज्यादा मेहनत नहीं की गई है.

 ‘कागज’ फिल्म में भारत की सामाजिक और राजनीतिक व्यवस्था पर चोट की गई है.

फिल्म का डायरेक्शन और एडिटिंग में भी कमियां दिखाई देती हैं. सीन अधूरे लगते हैं, कई जगह --टांजिशन ठीक नहीं है. फिल्म का म्यूजिक भी बाकी चीजों की तरह पुराना लगता है और कोई गहरी छाप नहीं छोड़ पाता.

‘कागज’ में कई खूबसूरत पल हैं, लेकिन फिल्म उतनी शानदार नहीं बनाई गई, जितनी शानदार लाल बिहारी की कहानी है.

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