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'Kaun Pravin Tambe' Film Review: संघर्ष, जीत और जोश की कहानी कौन प्रवीण तांबे?

यह कहानी हर उस क्रिकेटर के दिल के करीब है जो कभी टीम के 11 खिलाडियों में जगह नहीं बना पाए

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आमतौर पर भारत में स्पोर्टस मूवी को एक महान स्पोर्ट्स आइकन के रूप में दर्शाया जाता है और एक महान अभिनेता द्वारा करेक्टर को निभाया जाता है, जबकि फिल्म मुक्केबाज (2017) जैसी अपवाद है. ओवर एक्टिंग बॉलीवुड में इस शैली को मार देती है खासकर जब क्रिकेट को पर्दे पर दर्शाने की बात आती है. क्योंकि भारत में क्रिकेट अपने आप में महान है.

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फिल्म कौन प्रवीण तांबे? यहां बिल्कुल अलग है. जयप्रसाद देसाई की यह फिल्म हर क्रिकेटर की कहानी को दर्शाती है जिसका क्रिकेट में कोई नहीं होता, और रोल के मुताबिक ही डॉयरेक्टर ने एवरीमैन एक्टर श्रेयस तलपड़े को चुना है. दिलचस्प बात यह है कि फिल्म की शुरुआत राहुल द्रविड के लेग स्पिनर तांबे पर बोलते हुए एक क्लिप के साथ होती है. दिलचस्प इसलिए है क्योंकि राहुल द्रविड अन्य महान क्रिकेटरों सचिन तेंदुलकर और सौरव गांगुली के स्टारडम रहित नहीं है

मराठी डॉयरेक्टर जयप्रद देसाई ने हिंदी सिनेमा के मैदान में बढ़िया पारी खेली है. कहानी और फिल्म के हर दृश्य पर उनकी पकड़ दिखती है. खेल के मैदान के दृश्य हों या पारिवारिक रिश्तों की बुनावट, उन्होंने दोनों को समान कौशल से रचा. इस बायोपिक में उन्होंने सिनेमाई छूट लेने के बावजूद कोई हंगामा खड़ा नहीं किया और प्रवीण तांबे की कड़ी मेहनत, निरंतर प्रयास और जीतने की जिद पर फोकस रखा.

डॉयरेक्टर जयप्रसाद देसाई ने फिल्म को इतना भरोसेमंद बनाया है कि क्रिकेट के टेनिस बॉल के टूर्नामेंट पर लोगों का ध्यान आकर्षित किया है. यह कहानी हर उस क्रिकेटर के दिल के करीब है जो कभी टीम के 11 खिलाड़ियों में जगह नहीं बना पाए. कौन प्रवीण तांबे देश के हजारों क्रिकेटरों की कहानी को सामने लाने में सफल हुई है.

तांबे का संघर्ष का बहुत बड़ा है, लेकिन उससे भी बड़ा उसका है जो क्रिकेट के मैदान में कदम रखने वाले हर युवा क्रिकेटर का होता है. भारतीय टीम के लिए खेलना उसका बड़ा सपना है लेकिन वह कम से कम एक बार मुंबई के लिए खेलना चाहता है.

देसाई ने एक क्रिकेटर के बारे में पुराने जमाने के कोच के विचारों और क्रिकेट तकनीक की छोटी बारीकियों को शानदार ढंग से दिखाया है और ताम्बे के कोच को आशीष विद्यार्थी से बेहतर कोई नहीं निभा सकता था

एक और पहलू जिस पर निर्देशक ने अपनी फोकस रखा हैं, वह है एक "पत्रकार सह क्रिकेट विशेषज्ञ" की भूमिका जो एक क्रिकेटर के जीवन में निभा सकती है. किसी भी संघर्षरत क्रिकेटर से बात करें जो अपनी रातें मैदान के तंबू में बिताता है (या यहां तक ​​कि एक निश्चित मनोज तिवारी से भी) और उससे ऐसे खेल पत्रकारों के बारे में पूछें जो क्रिकेट के मैदान में भी नहीं जाते हैं, आपको पता होगा कि फिल्म वास्तविकता के कितने करीब है . एक अखबार के खेल पत्रकार बने परमब्रत चक्रवर्ती का किरदार यहां रोचक है और वह अंत तक कहानी में अपनी प्रासंगिकता बनाए रखता है

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प्रवीण तांबे के रोल में श्रेयस तलपड़े ने अपना सर्वश्रेष्ठ दिया है. एक प्रतिभावान क्रिकेटर और साधारण इंसान के रूप में वह जमे हैं. उनके अभिनय में यहां कुछ लाउड नहीं है. मैदान और परिवार में वह कहीं नाटकीय नहीं होते. मैदान पर किसी खिलाड़ी की नकल नहीं करते. फिल्म में अन्य एक्टर्स की बात करे तो इस फिल्म में सब ने अपना काम बखूबी किया है. प्रवीण तांबे के पिता के रूप में अरुण नलवाडे, तांबे की मां के रूप में आदर्श छाया कदम और उनकी पत्नी वैशाली के रूप में शक्तिशाली अंजलि पाटिल का काम तारीफ करने योग्य है

प्रवीण तांबे ने अपना आईपीएल डेब्यू 41 साल की उम्र में एक मंच पर और एक ऐसे खेल में किया जो अभी भी युवाओं के लिए सपना है. खास बात यह है कि उन्होंने मुंबई के लिए भी रणजी में डेब्यू किया था. फिर से, उस निर्देशक को श्रेय जो यह दिखा सकता है कि टी20 लीग की तुलना में लाल गेंद का क्रिकेट सबसे अधिक बार क्रिकेटर के दिल के करीब होता है, भले ही वह अंतरराष्ट्रीय स्तर पर ही क्यों न हो.

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