बेलबॉटम (Bell Bottom) COVID-19 महामारी की दूसरी लहर के बाद सिनेमाघरों में रिलीज होने वाली पहली बड़ी बॉलीवुड फिल्म बन गई है. महामारी के दौरान शूटिंग शुरू करने वाली यह पहली भारतीय फिल्मों में से एक थी. इसका सेट 1980 के दशक का है, जिसमें भारत विरोधी ताकतों द्वारा कई इंडियन एयरलाइंस का अपहरण होता है.
किसी भी कहानी का रुख मोड़ सकते हैं अक्षय कुमार
वास्तव में एक अलग शैली बननी चाहिए- "अक्षय कुमार" शैली. जहां अन्य सभी पात्र एक झूले पर झूल सकते हैं फिर भी फिल्म की कहानी पर इसका कोई असर नहीं पड़ता. क्योंकि अक्षय कुमार एकमात्र ऐसे कलाकार हैं जो कहानी के रुख को किधर भी मोड़ सकते हैं. यह फिल्म उसी शैली की है.
बाकी हम जानते हैं कि अक्षय कुमार की इस प्रकार की फिल्मों का अंत कैसे होना तय होता है - राष्ट्रगान, तिरंगे आदि के साथ.
इस फिल्म में कुमार की एंट्री के लिए कुछ मिनट अलग से रखे गए हैं और फिर कुमार की वही डेयर डेविलरी. चूंकि यह फिल्म बड़े पर्दे पर है, इसलिए इंटरवल के विज्ञापन तक में अक्षय कुमार नंदू को धमका रहे होंगे और फिर अक्षय कुमार द्वारा सारा मैटर निपटाने के साथ फिल्म खत्म होती है. कुल मिलाकर पूरी फिल्म में सिर्फ अक्षय कुमार ही अक्षय कुमार हैं.
इस फिल्म में भी, अक्षय कुमार की एंट्री तब होती है जब उनका रॉ बॉस (आदिल हुसैन) प्रधान मंत्री से कहता है "एक इंसान है जो केस से जुड़ी हर जानकारी दे सकता है". इसके बाद क्यू पर अक्षय कुमार बेलबॉटम पहनकर स्लो मोशन में चलते हैं. फिल्म का नाम हालांकि उनके कोड नाम पर रखा गया है, क्योंकि वह फिल्म में एक खुफिया एजेंट हैं.
हालांकि, यह कोई आश्चर्य नहीं है कि बेल बॉटम यानी अंशुल मल्होत्रा हर चीज में कितने अच्छे हैं. एक शतरंज खिलाड़ी जो कई भाषाएं बोल सकता है, गा सकता है, उसके पास फोटोग्राफिक मेमोरी है और बस वह "फिजिकल में थोड़ा पीछे" है.
निर्देशक रंजीत एम. तिवारी ने 1979 से 1984 तक में फ्लैशबैक पर बारीकी से काम किया है. खासतौर पर 1983 के संदर्भ में और यह दिखाने के लिए कि बेल बॉटम को व्यक्तिगत रूप से हाई जैकिंग मामलों में क्यों लगाया जाता है. फिल्म में हमें पता चलता है कि वह शादीशुदा हैं, लेकिन हम यह कभी नहीं जान पाते कि कुमार और उनकी ऑनस्क्रीन मां (डॉली अहलूवालिया) 70 के दशक की तरह क्यों दिखती हैं, जबकि बहू वाणी कपूर अपने बालों, मेकअप और ट्रेंडी कपड़ों के साथ 2021 की लगती हैं.
'जो जीता वही सिकंदर' से मामिक सिंह अक्षय के बड़े भाई के रूप में एक सीन में दिखते हैं.
कहानी आगे बढ़ती है. चूंकि यह सच्ची घटनाओं पर आधारित है, जिन्हें काल्पनिक बनाया गया है. हम लारा दत्ता से मिलते हैं. जो प्रोस्थेटिक्स, मेकअप और विग के साथ इंदिरा गांधी की भूमिका निभाती हैं, इसलिए फिल्म में हम उन्हें उनके वास्तविक रूप में नहीं देख पाते हैं. इस "लुक" के बारे में मीडिया में बहुत सारी चर्चा हुई और मुझे अभी भी नहीं समझ आया कि इससे क्या फर्क पड़ा! निश्चित रूप से "लुक" में समानता है, लेकिन शायद ही कोई भाव-भंगिमा है, जो शायद ही लारा दत्ता के फेवर में गई हो.
बहरहाल, पीएम के कमरे में रॉ के संस्थापक आरएन काओ भी हैं, जिनका रोल डेन्जिल स्मिथ द्वारा निभाया गया है. जिन्हें मुश्किल से एक भी लाइन बोलने को दी गई है. (हालांकि, यदि आप Google करें तो पता चलेगा कि उनकी कहानी इतनी आकर्षक और रोमांचक हैं कि तुलना करने पर बेलबॉटम के पहले हाफ की कहानी उसके आगे फीकी पड़ जाएगी).
असीम अरोड़ा और परवेज शेख की पटकथा एक मनोरंजक और बांधने वाले नाटक के रूप में अच्छी तरह से काम कर सकती थी. लेकिन "अक्षय कुमार शैली" के हवाई क्षेत्र में, यह फिल्म शुरू से ही एक "उच्च-उड़ान" वाली फिल्म रही है. जैन खान दुर्रानी मुख्य खलनायक की भूमिका में हैं, जो आईएसआई हाईजैकर हैं, जिनसे बेल बॉटम को निपटना होता है. दुर्रानी जिन्हें हमने पहले 'कुछ भीगे अल्फाज' और 'शिकारा' में देखा है, की एक प्रभावशाली उपस्थिति है. हालांकि, अनुमानतः यहां उन्हें अक्षय कुमार की प्रजेंस को खतरे में डालने की अनुमति नहीं रही होगी.
हुमा कुरैशी एक बड़े कैमियो में हैं. उसका रोल अंत में एक बड़े मोड़ का कारण है और वह भी अपने रोल को आदिल हुसैन की तरह दमदार तरीके से निभाती हैं. इन सबको अपना स्क्रीन टाइम काटना पड़ा है ताकि, अक्षय कुमार के रोल को बढ़ाया जा सके. यह अलग बात है कि फिल्म में इन सबका मजबूत अभिनय रहा है.
फिल्म में दुबई के लिए तारीफ के कसीदे पढ़े गए हैं जैसे कि वहां पर कोई भी निर्दोष नहीं मारा जाता है. हुमा कुरैशी एक सीन में बताती हैं कि यहां एक बाज को भी ट्रैंक्विलाइजर से मारा जाता है, बंदूक से नहीं. यह अजीब है न? लेकिन फिर भी ठीक है.
हालांकि आगे चीजें तब स्पष्ट हो जाती हैं, जब फिल्म में इस तरह की अनावश्यक तारीफ कई बार दोहराई जाती है. अगर इसे दुबई पीआर कहा जाए तो क्या ही आश्चर्य की बात है? क्लाइमेक्स में किडनैपर्स के साथ लड़ाई होती है, जबकि एक रेतीला तूफान भी होता है. यह रक्तहीन है क्योंकि "दुबई के धरती में खून नहीं बहा सकते".
निश्चित रूप से आपने इसे 2D में देखा, हालांकि यह केवल मेरा अनुमान है कि सैंडस्टॉर्म 3D पर थोड़ा बेहतर दिख सकता है. लेकिन इससे क्या फर्क पड़ता है?
3D मूल खामियों को ठीक तो कर नहीं देगा. फिल्म में विशेष रूप से निराशाजनक यह है कि कैसे वो अर्जेंसी या रहस्य की भावना पैदा करने में असमर्थ हैं. लोगों को निकालने की प्रक्रिया जारी है, आतंकवादी ऐसे दिखते हैं जैसे उन्हें अपने काम से मतलब है बस.
लेकिन हमें पता हैं कि अक्षय कुमार की फिल्म तब तक खत्म नहीं हो सकती, जब तक राष्ट्रगान नहीं बज जाता, और हमें थोड़ा घबराया हुआ महसूस करने के लिए हेरफेर नहीं की जाती है.
बेलबॉटम अक्षय कुमार की फिल्मोग्राफी में फिर से एक और फिल्म है, जहां उन्होंने एक बार फिर पर्दे पर एक आदर्श भारतीय की भूमिका निभाई है. जो अन्य देशवासियों को बचाने के लिए कोई गलत काम नहीं कर सकता है. यह फिल्म की वह विधि है, जो अंततः सब कुछ हाई जैक कर लेती है.
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