रिलीज से पहले ही 'पीहू' कई वजहों से सुर्खियों में रही है. सबसे पहले, ट्रेलर ने हर किसी का ध्यान खींचा, जहां बालकनी से लटकती हुई बच्ची को देखकर हम सबको 'मिनी हार्ट अटैक' आ गया. इसके बाद फिल्म के मार्केटिंग प्लान ने हमें चकराया. आपके मोबाइल पर एक कॉल आती है और दूसरी तरफ से एक रोती-चिल्लाती हुई की आवाज सुनाई देती है, इससे इससे पहले कि आप कुछ समझें, कॉल अचानक डिस्कनेक्ट हो जाता है और उसी नंबर पर कॉल बैक करने पर आपको फिल्म का ट्रेलर सुनाई देता है.
कई लोगों को इस तरह की प्रोमोशन स्ट्रैटजी पसंद नहीं आई. लेकिन आखिर में, घर के अंदर फंसे एक अकेले बच्चे की घटना पर बनी 93 मिनट की ये फिल्म दर्शकों की उत्सुकता हासिल करने में कामयाब रही. बातें चल रही हैं कि दो साल की बच्ची द्वारा निभाई गई सिंगल कैरेक्टर वाली इस फिल्म का नाम गिनीज बुक ऑफ वर्ल्ड रिकॉर्ड्स में दर्ज हो सकता है.
बिस्तर पर लेटी हुई पीहू के शॉट के साथ फिल्म शुरू होती है. जैसे ही कैमरा धीरे-धीरे पैन होता है, हमें पता चलता है कि हम कहां और किस परिस्थिति में हैं.घर में चारों तरफ बिखरे चमकीले कागज और आधी खाली प्लेटें हाल ही में हुई एक पार्टी की ओर इशारा करती हैं. शायद एक बर्थडे पार्टी ? लेकिन दीवारों पर सजे गुब्बारे और रिबन के साथ जैसे जैसे कैमरा घूमता है, हमें घर में एक डरावना सा सन्नाटा नजर आता है.
उत्सुकता बढ़ाती है फिल्म की शुरुआत
पीहू के बार-बार पुकारे जाने और जगाने की कोशिशों के बावजूद जब पीहू की मां नहीं उठती, तो हमारा सबसे बड़ा डर सच साबित हो जाता है. उनकी मौत हो चुकी है. यहां से हमारी उत्सुकता शुरू होती है- 'अब ये बच्ची क्या करेगी? क्या घर पर कोई नहीं है? पिता कहां है? अब क्या होगा?' फिल्म के शुरुआती कुछ मिनट सांसें थाम देती हैं.
बच्ची अपने आस-पास के खतरों से अनजान घर में बेफिक्री से घूमती है, और हम फिक्र करने वाले किसी अभिभावकों की तरह उसके हर कदम को देखते जाते हैं...और उम्मीद करते हैं कि वो महफूज रहेगी.
सब कुछ हमें डराता है. इलेक्ट्रिक प्रेस ऑन है, सीढ़ियां बहुत ऊंची और खड़ी हैं. वो कुकिंग चालू करती है! हम देखते हैं कि बच्ची उन तमाम चीजों से घिरी हुई है, जो उसकी जान ले सकते हैं - इलेक्ट्रिक प्लग पॉइंट्स, नींद की गोलियां, खुले नल - और फिक्र करने वाले दर्शकों के लिए यह खौफनाक है.
स्क्रिप्ट में ज्यादा कुछ नहीं
फिल्म के पहले आधे घंटे तक सभी राज से पर्दा उठने के बाद हमें एहसास होता है कि शुरुआती झटकों के बाद फिल्म की स्क्रिप्ट में ज्यादा कुछ नहीं है. फिल्म आखिरकार अपने दर्शकों को पूरी तरह से टेंशन की स्थिति में रखने में नाकामयाब होती है. जल्द ही हम बंद घर में अकेली पीहू को देखने के आदि हो जाते हैं. यहीं से असली समस्या शुरू होती है.
बेशक फिल्म में दिखाई गई स्थिति भयानक है. लेकिन कहानी में बिना किसी मोड़ के एक सिंगल आइडिया को फीचर फिल्म की शक्ल देकर 93 मिनट तक खींचना अच्छा नहीं लगता.
नन्हीं पीहू के किरदार में मायरा विश्वकर्मा, स्क्रीन पर प्यारी लगती है और हमें उसकी मासूमियत से प्यार हो जाता है. लेकिन फिल्म में लेखक-निर्देशक विनोद कापड़ी जज्बातों को लगातार बनाए रखने में विफल रहते है. इस टॉपिक पर अगर एक शॉर्ट फिल्म बनती तो वो बेहद दमदार होती. लेकिन एक फीचर फिल्म के तौर पर ये फीकी नजर आती है.
5 में से 2.5 क्विंट्स.
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