रॉ एप्पल और गाजर खा लीजिए, क्योंकि अगर 'रॉ' फिल्म देख ली, तो सिर्फ दिमाग खर्च होगा, क्योंकि इस फिल्म में न सस्पेंस है, न एक्शन और न थ्रिल.
फिल्म में एक सीन आता है जब एक किरदार कहता है- "ये सब बहुत साफ जाहिर है", और ये सुनकर ऐसा लगता है कि मानों हमें सीधे तौर पर यही कहा जा रहा है! यह वास्तव में बहुत साफ जाहिर है और जिस तरीके से कहानी को बताया गया है वो किसी भी मामले में मदद नहीं करता है.
रॉबी ग्रेवाल द्वारा लिखित और निर्देशित ‘रॉ’ को 1970 के दशक की पृष्ठभूमि में दिखाया गया है, जो बांग्लादेश को बनाने वाली घटनाओं के लिए जिम्मेदार हैं. फिल्म में कहानी के मुताबिक सिनेमैटोग्राफी का अच्छा इस्तेमाल किया गया है.
ये भी पढ़ें - Review: अक्षय कुमार की ‘केसरी’ एक ऐतिहासिक युद्ध गाथा है
हां में हां मिलाते जॉन
जॉन अब्राहम ने एक बैंक कैशियर का रोल निभाया है, जिसे रॉ चीफ जासूस के रूप में रखता है और उसे हमारे सबसे बड़े दुश्मन देश में पहले मिशन पर भेजे जाने का मुश्किल काम दिया जाता है. फिल्म में ये दिखाने की बजाय कि ऐसे अहम और जोखिम भरे काम के लिए कैसी ट्रेनिंग की जरुरत होती है, फिल्म में ये दिखाया जाता है कि जैकी श्रॉफ और जॉन अब्राहम वॉक पर जा रहे हैं, जहां श्रॉफ, अब्राहम को ज्ञान दे रहे हैं कि कैसे हमेशा सतर्क रहना चाहिए और कोड मैसेज को कैसे समझना चाहिए. जॉन बस हां में हां मिलाते हैं और वो जंग के लिए तैयार हैं!
यहां RAW का मतलब रोमियो, अकबर और वॉल्टर है - इन तीन किरदारों को जॉन ने एक ही तरह के एक्सप्रेशन देकर निभाया है. जॉन अब्राहम अपने असली मसल्स के अलावा एक्टिंग के मसल्स की नुमाइश करने के लिए भी वाकई कड़ी मेहनत करते हैं. जब तक पंच और पोज देना होता है, जॉन असरदार साबित होते हैं, लेकिन जिस पल एक इमोशनल सीन सामने आता है, उनकी चौड़ी आंखों का एक्सप्रेशन एक अदाकार के रूप में उनकी कमी की ओर ध्यान खींचता है.
सिकंदर खेर, जो अपनी पिछली फिल्म 'मिलन टॉकीज' में एक मानसिक गुस्से वाले पति के किरदार में काफी अच्छे थे, इस फिल्म में प्रभावशाली तो हैं, लेकिन बहुत सीमित दायरे के साथ. इसी तरह जैकी श्रॉफ भी कुछ नाटकीय डायलॉग्स के लिए फिल्म में मौजूद हैं.
जासूस पर मूवी-लेकिन बिना सस्पेंस के
हालांकि 'रॉ' का एक दिलचस्प आधार और नेक इरादे हैं, लेकिन यह साबित करता है कि फिल्म का सबसे बड़ा प्रदर्शन इसका पूरी तरह से साफ अनुमान है. फिल्म में 'आगे क्या होने वाला है' से दर्शकों को बांधने के लिए शायद ही कोई तनाव या रहस्य है. पाकिस्तानी हथियार डीलर के किरदार में अनिल जॉर्ज का प्रदर्शन शानदार है और जब भी वे फ्रेम में होते हैं, तो 'रॉ' पूरी तरह से एक अलग फिल्म नजर आती है. मौनी रॉय और कई व्यर्थ के गाने जब-जब सबसे नामुनासिब समय पर आते हैं, तो फिल्म का फ्लेवर गायब हो जाता है.
कुल मिलाकर 'रॉ' में कुछ भी नया नहीं है. यह हमें एक अहम सबक देता है. एक फिल्म किसी भी विषय पर हो सकती है, लेकिन जो भी होना चाहिए वो उबाऊ नहीं होना चाहिए! अफसोस की बात है कि 144 मिनट की इस फिल्म में ज्यादातर हिस्सा उबाऊ ही है.
ये भी पढ़ें - No Fathers In Kashmir रिव्यू: चेहरे पर मुस्कान ला देंगे ये बच्चे
(क्विंट हिन्दी, हर मुद्दे पर बनता आपकी आवाज, करता है सवाल. आज ही मेंबर बनें और हमारी पत्रकारिता को आकार देने में सक्रिय भूमिका निभाएं.)