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मूवी रिव्यू: ‘शादी में जरूर आना’, लेकिन किसकी शादी में?

‘शादी में जरूर आना’ फिल्म के नाम पर मत जाइएगा, क्योंकि नाम बड़े और दर्शन छोटे का मुहावरा यहां फिट बैठता है.

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'शादी में जरूर आना'. नहीं, नहीं.. मेरी शादी की बात नहीं हो रही है, न ही इंडिया के मोस्ट वांटेड बैचलर सलमान खान और राहुल गांधी की. यहां बात हो रही है 'न्यूटन', 'सिटी लाइट्स' और 'बरेली की बर्फी' जैसी फिल्म के हीरो राजकुमार राव की फिल्म शादी में जरूर आना की.

फिल्म शुक्रवार को रिलीज हो चुकी है. इसमें राव के अपोजिट एक्ट्रेस कृति खरबंदा हैं. फिल्म में बॉलीवुड की बाकी फिल्मों की तरह ही लोकल लोकेशन और देसी टच देने की कोशिश की गई है.

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लेकिन सबसे पहले आपको ये बता दें कि इस फिल्म के नाम पर मत जाइएगा, क्योंकि नाम बड़े और दर्शन छोटे का मुहावरा यहां फिट बैठता है. आइए, शब्दों के जरिए आपको दर्शन कराते हैं फिल्म की कहानी से.

कानपुर का सहारा काम न आया

फिल्म की कहानी शुरू होती है कानपुर शहर से, जिनकी शादी के चक्कर में इस फिल्म का नाम मेरी शादी में जरूर आना रखा गया है. उनका नाम है सत्येंद्र मिश्रा उर्फ सत्तू है, खाने वाला सत्तू नहीं.

ये सत्तू जो भी करता है, पूरी शिद्दत से करता है. फिर चाहे प्यार में डूबना हो या नफरत में टूटना. सत्तू भैया मतलब मिश्रा जी को उसके मामा शादी के लिए एक लड़की की फोटो दिखाते हैं. सत्तू की फेमिली को लड़की पसंद आ जाती है. 

मम्मी मुझे शादी नहीं करनी है.. अरे एक बार लड़के से मिल तो लो

लेकिन शुक्ला जी की पत्नी मतलब कृति खरबंदा मतलब आरती की मां चाहती हैं कि आरती अपने होने वाले पति से एक बार मिल ले. बॉलीवुड की बाकी फिल्मों की तरह यहां भी कृति मां की बात मान लेती हैं. हमेशा की तरह यहां भी लड़की को करियर बनाना होता है. लेकिन फिर भी पापा की जिद के आगे झुकते हुए रिश्ते के लिए हां कर देती है. सत्तू भैया लड़की को देखते ही प्यार में डूब जाते हैं. मानो इश्क वाला लव हो गया हो.

दहेज के बिना तो शादी ही पूरी नहीं होती है

फिर वही शादी की तैयारी, दहेज की मांग. और परिवार में दहेज को लेकर नोक-झोंक. लेकिन नजरें मिलना, रोमांटिक गाने और प्यार भरे डायलॉग के बाद शुरू होती है असली कहानी. प्यार के बुलबुले पर गोता लगा रहे दर्शक अचानक अकेलेपन के सूखे दरिया में डूबने को मजबूर हो जाते हैं. फिल्म पूरी तरह से करवट लेती है.

किसी भी शादी के लिए दो लोगों की सबसे ज्यादा जरूरत होती है. एक दूल्हा दूसरी दुल्हन. और अगर दुल्हन शादी के मंडप में आने से पहले ही भाग जाए, तो फिर कैसी शादी.

मंडप से दुल्हन गायब

कहानी के सेकंड हाफ में स्क्रीनप्ले मानो उबड़-खाबड़ सड़कों से गुजर रहा हो. प्यार से फिल्म रिवेंज मतलब बदले की तरफ मुड़ जाता है. दुल्हन मंडप से गायब. सत्तू भैया को लगता है कि उनकी आरती ने उसके साथ धोखा किया है. और फिर सत्तू भैया बन जाते हैं एंग्री यंग मैन.

स्क्रिप्ट ले डूबी डायरेक्शन और एक्टिंग दोनों को

इस फिल्म की डायरेक्टर रत्ना सिन्हा ने लोकेशन पर जबरदस्त काम किया है. उन्हें कानपुर की बोली और लोगों के हाव भाव की समझ है. जिस तरह समाज में दहेज एक बड़ा मुद्दा है, वो भी फिल्म में दिखलाया गया है. लेकिन यही दहेज एक कमजोर कड़ी भी है इस फिल्म में.

एक्टिंग के मामले में राजकुमार राव ने साबित कर दिया है कि वो किसी भी रोल में आसानी से ढल सकते हैं. पहले हाफ में कृति की एक्टिंग की तारीफ की जा सकती, लेकिन स्क्रिप्ट के ढीलेपन से एक्टिंग भी कमजोर पड़ने लगती है.
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प्यार और जंग में सब कुछ जायज होता है

फिल्म लंबी खिंचती हुए 5 साल आगे बढ़ जाती है. सत्तू आईएएस ऑफिसर बन जाता है और आरती पीसीएस ऑफिसर. दोनों एक बार फिर आमने-सामने होते हैं. फिर बॉलीवुड का वही घिसा-पिटा डायलॉग सत्तू अपने मुंह से निकालता है कि प्यार और जंग में सब जायज है. और फिर शुरू होता है बदले का खेल.

दूल्हा और दुल्हन के अलावा फिल्म में परिवार भी है, जो वक्त पड़ने पर अपना दर्शन दे जाते हैं. गोविन्द नामदेव, केके रैना, नवीन परिहर, विपिन शर्मा स्क्रिप्ट को संभालने की कोशिश करते हैं. लेकिन काम ही इतना मुश्किल है कि समझ नहीं आता किसकी शादी में आने के लिए कहा जा रहा है.

सब कहानी हम बता ही देंगे तो आप क्या करेंगे. एक बार तो देखा जा सकता है सिर्फ ये जानने के लिए कि क्या जिस शादी में डायरेक्टर रत्ना सिन्हा ने बुलाया था, वो होती भी है कि नहीं?

हम देते हैं इस फिल्म को 5 में से 2 क्विंट

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