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अयोध्या केस पर SC का फैसला- हिंदुओं को मिले विवादित भूमि

अयोध्या मामला पहली बार साल 1885 में कोर्ट पहुंचा

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कुंजी
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सुप्रीम कोर्ट ने अयोध्या के रामजन्मभूमि-बाबरी मस्जिद भूमि विवाद पर फैसला सुना दिया है. इस फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि विवादित जमीन हिंदुओं को दी जाए, केंद्र 3 महीने के अंदर योजना बनाए और मंदिर निर्माण के लिए एक ट्रस्ट का गठन करे. इसके साथ ही कोर्ट ने कहा है कि मुस्लिम पक्ष (सुन्नी वक्फ बोर्ड) को मस्जिद के लिए दूसरी जगह 5 एकड़ जमीन दी जाए.

सुप्रीम कोर्ट के इतिहास में केशवानंद भारती केस (68 दिन की सुनवाई) के बाद अयोध्या मामले पर सुनवाई सबसे लंबी सुनवाई थी. 

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अयोध्या भूमि विवाद क्या था?

अयोध्या मामला पहली बार साल 1885 में कोर्ट पहुंचा

सुप्रीम कोर्ट ने 1994 के इस्माइल फारुखी केस में अयोध्या विवाद को इन शब्दों में बयां किया था-

‘’अयोध्या भारत के उत्तरी हिस्से में स्थित उत्तर प्रदेश के फैजाबाद जिले का एक टाउनशिप है. यह लंबे समय से एक पवित्र तीर्थस्थल रहा है क्योंकि रामायण में इस स्थान को श्री राम का जन्म स्थान बताया गया है. रामजन्मभूमि-बाबरी मस्जिद के तौर पर जाना जाने वाला ढांचा साल 1528 में मीर बाकी ने एक मस्जिद के तौर पर बनवाया था. कुछ धड़े दावा करते हैं कि यह (ढांचा) श्री राम की जन्मभूमि मानी जाने वाली जमीन पर बनाया गया था, जहां पहले एक मंदिर था. ’’

यहां जिस मीर बाकी का जिक्र किया गया, उसे बाबर के कमांडर के तौर पर जाना जाता है.

हालांकि यह मजह हिंदू पक्ष और मुस्लिम पक्ष के बीच विवाद का मामला नहीं था. दरअसल इस मामले के 3 मुख्य याचिकाकर्ताओं में से दो- निर्मोही अखाड़ा और रामलला विराजमान हिंदू पक्ष से रहे. इन दोनों ने ही विवादित जमीन पर अपना-अपना हक जताया. जहां निर्मोही अखाड़ा की दलील थी कि लंबे समय से भगवान राम की सेवा करने की वजह से उसे जमीन मिलनी चाहिए, वहीं रामलला विराजमान ने कहा था कि इस जमीन पर मालिकी सिर्फ देवता की ही हो सकती है.

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पहली बार कोर्ट में कब पहुंचा अयोध्या मामला?

ये मामला पहली बार साल 1885 में कोर्ट पहुंचा. जब फैजाबाद कोर्ट में महंत रघुबर दास ने एक याचिका दाखिल की. इस याचिका में उन्होंने विवादित ढांचे के पास राम चबूतरे पर मंदिर बनाने की अनुमति मांगी थी. हालांकि फैजाबाद कोर्ट ने इस याचिका को खारिज कर दिया था. इसके बाद साल 1949 में एक बड़ी घटना हुई, जब 22-23 दिसंबर की रात विवादित ढांचे के मुख्य गुंबद के पास राम लला की मूर्तियां रख दी गईं. स्थानीय प्रशासन ने दंगे भड़क जाने की आशंका जताते हुए इन मूर्तियों को वहां से हटाने से इनकार कर दिया.

29 दिसंबर 1949 को फैजाबाद डिस्ट्रिक्ट कोर्ट ने पूरी जगह को कोड ऑफ क्रिमिनल प्रोसिजर (CrPC) की धारा 145 के तहत विवादित साइट घोषित कर दिया और इसका मालिकाना हक साबित होने तक इसे अटैच करके स्थानीय प्रशासन के हवाले कर दिया.

इसके बाद साल 1950 में अखिल भारतीय हिंदू महासभा के नेता गोपाल विशारद ने फैजाबाद डिस्ट्रिक्ट कोर्ट में याचिका दाखिल करके राम लाल की पूजा का अधिकार मांगा. उसी साल परमहंस रामचंद्र दास ने भी एक याचिका दाखिल की, उन्होंने भी राम लला की मूर्तियों की पूजा का अधिकार मांगा.

साल 1959 में निर्मोही अखाड़े ने विवादित भूमि का संरक्षक होने का दावा करते हुए इसके पूर्ण स्वामित्व (कंप्लीट पजेशन) लिए एक याचिका दाखिल की.

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सुन्नी वक्फ बोर्ड और राम लला विराजमान कब कोर्ट पहुंचे?

अयोध्या मामला पहली बार साल 1885 में कोर्ट पहुंचा

साल 1961 में सुन्नी वक्फ बोर्ड ने ये घोषित किए जाने की मांग के साथ याचिका दाखिल की कि बाबरी मस्जिद वक्फ की संपत्ति है और उसके आसपास की जगह कब्रिस्तान है. साल 1989 में भगवान राम लला विराजमान और श्री रामजन्मभूमि की तरफ से इलाहाबाद हाई कोर्ट के पूर्व जज देवकी नंदन अग्रवाल ने विवादित साइट के मालिकाना हक के लिए एक याचिका दाखिल की.

14 अगस्त 1989 को इलाहाबाद हाई कोर्ट ने विवादित ढांचा को लेकर यथास्थिति बनाए रखने का अंतरिम आदेश दिया. इसके बाद यह मामला लंबे समय तक ठंडे बस्ते में पड़ा रहा.

इसी बीच 6 दिसंबर 1992 को कई हिंदू संगठनों के कारसेवकों ने विवादित ढांचे को ढहा दिया.

3 अप्रैल, 1993 को केंद्र सरकार 2.77 एकड़ की कुल विवादित भूमि के 67.703 एकड़ हिस्से पर अधिग्रहण के लिए 'एक्यूजिशन ऑफ सर्टेन एरिया एट अयोध्या एक्ट' लेकर आई. इस कानून के खिलाफ कोर्ट में कई याचिकाएं दाखिल हुईं, जिनमें से एक इस्माइल फारुखी की याचिका थी.

24 अक्टूबर 1994 को सुप्रीम कोर्ट ने इस्माइल फारुखी की याचिका पर कहा था- मस्जिद इस्लाम की धार्मिक गतिविधियों का अभिन्न हिस्सा नहीं है. नमाज कहीं भी पढ़ी जा सकती है, इसलिए भारतीय संविधान के प्रावधान इसका (मस्जिद) अधिग्रहण प्रतिबंधित नहीं करते.

अप्रैल 2002 में इलाहाबाद हाई कोर्ट ने यह तय करने के लिए सुनवाई शुरू कर दी कि विवादित भूमि पर किसका मालिकाना हक है. इसी साल हाई कोर्ट ने भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग (ASI) को विवादित भूमि का सर्वे करने के लिए कहा. इसके बाद ASI ने 2003 में अपनी 574 पेजों की रिपोर्ट सौंपी, जिसमें विवादित भूमि के नीचे प्राचीन ढांचे के सबूत मिलने की बात कही गई.

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2010 में इलाहाबाद हाई कोर्ट ने क्या फैसला किया?

अयोध्या मामला पहली बार साल 1885 में कोर्ट पहुंचा

30 सितंबर, 2010 को इलाहाबाद हाई कोर्ट की 3 जजों की बेंच ने 2:1 के बहुमत से इस मामले पर अपना फैसला सुनाया और 2.77 एकड़ की विवादित भूमि को मामले के 3 मुख्य पक्षकारों- निर्मोही अखाड़ा, राम लला विराजमान और सुन्नी वक्फ बोर्ड के बीच बराबर-बराबर बांटने का आदेश दिया. 3 जजों की इस बेंच में जस्टिस एसयू खान, जस्टिस सुधीर अग्रवाल और जस्टिस धरमवीर शर्मा शामिल थे.

जस्टिस खान और जस्टिस अग्रवाल के बहुमत वाले फैसले के मुताबिक, कोई भी पक्ष दस्तावेजी सबूतों के जरिए विवादित भूमि पर अपना मालिकाना हक साबित करने में सफल नहीं हुआ.

फैसले में जस्टिस खान ने कहा था, ''मुस्लिम यह साबित नहीं कर पाए कि जमीन बाबर से जुड़ी थी, जिसके आदेश पर मस्जिद का निर्माण हुआ था. इसी तरह हिंदू भी यह साबित नहीं कर पाए कि यहां एक मंदिर को तोड़कर मस्जिद बनाई गई.'' ऐसे में  बाकी दलीलों को ध्यान में रखते हुए बहुमत के फैसले में एविडेंस एक्ट की धारा 110 के तहत हिंदू और मुस्लिम दोनों पक्षों को जॉइंट पजेशन (संयुक्त स्वामित्व) दे दिया गया. इसके तहत-

  • विवादित ढांचे के मुख्य गुंबद के पास वाली जगह (जहां राम लला की मूर्तियां रखी गई थीं) राम लला विराजमान को दी गई
  • राम चबूतरा और सीता रसोई वाली जगह निर्मोही अखाड़े को मिली
  • बाकी का तिहाई हिस्सा सुन्नी वक्फ बोर्ड को दिया गया

इलाहाबाद हाई कोर्ट के इस आदेश पर मामले के तीनों मुख्य पक्ष ही सहमत नहीं हुए और उन्होंने इस आदेश को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी. साल 2011 में सुप्रीम कोर्ट ने इलाहाबाद हाई कोर्ट के फैसले पर रोक लगा दी. सुप्रीम कोर्ट में इलाहाबाद हाई कोर्ट के आदेश के खिलाफ  हिंदू पक्ष और मुस्लिम पक्ष की कम से कम 14 याचिकाएं दाखिल हुईं.

सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले का हल मध्यस्थता के जरिए निकालने की कोशिश भी की. हालांकि इस कोशिश के नाकाम रहने के बाद 5 जजों की संविधान बेंच ने इस मामले पर रोजाना सुनवाई शुरू की. इस बेंच में सीजेआई रंजन गोगोई के अलावा जस्टिस एसए बोबडे, जस्टिस धनन्जय वाई चन्द्रचूड़, जस्टिस अशोक भूषण और जस्टिस एस अब्दुल नजीर शामिल हैं.

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सुप्रीम कोर्ट में हिंदू पक्ष और मुस्लिम पक्ष ने क्या दलीलें रखीं?

अयोध्या मामला पहली बार साल 1885 में कोर्ट पहुंचा

हिंदू पक्ष

  • वाल्मीकि रामायण में राम का जन्म स्थान अयोध्या बताया गया है. हमें आस्था को मानना पड़ेगा, लंबे समय से हिंदुओं की अटूट आस्था है कि जिस जगह पर विवादित ढांचा था, वहीं भगवान राम का जन्म स्थान है
  • इतिहास में अयोध्या आने वाले कई विदेशी यात्रियों ने इस जगह पर हिंदू आस्था का जिक्र किया था, जन्मस्थान के बारे में लिखा था
  • 1990 में ली गईं तस्वीरों में काले खंभों पर तांडव मुद्रा में शिव, कमल, हनुमान जैसी आकृतियां दिखी थीं.
  • ASI की रिपोर्ट में जमीन के नीचे मंदिर के सबूत मिले थे

मुस्लिम पक्ष

  • कोर्ट में मुकदमा सबूतों के आधार पर लड़ा जाना चाहिए, ना कि धार्मिक ग्रंथों में लिखी गई बातों के आधार पर.
    अयोध्या में 3 ऐसी जगहें हैं, जिनके जन्मस्थान होने का दावा किया जाता रहा है. मुस्लिमों की भी मस्जिद को लेकर आस्था है
  • विदेशी यात्रियों को स्थानीय लोगों ने जो बताया, उन्होंने (हिंदू आस्था के बारे में) लिख दिया
  • इमारत पर अरबी और फारसी में कई जगह अल्लाह लिखा गया था, जो मस्जिद की निशानी हैं
  • ASI की रिपोर्ट से जमीन के नीचे एक ढांचे का पता चला. हमारा मानना है कि वहां मस्जिद होने से पहले एक ईदगाह थी

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