श्रीलंका में प्रधानमंत्री रानिल विक्रमसिंघे के भारत दौरे से लौटते ही राजनीतिक और संवैधानिक संकट शुरू हो गया था. रानिल विक्रमसिंघे बर्खास्त हो गए. उनकी जगह राष्ट्रपति ने महिन्द्रा राजपक्षे को प्रधानमंत्री नियुक्त कर दिया.
श्रीलंका में लोकतंत्र ‘मूर्छित’, सुप्रीम कोर्ट ही फूंकेगी जान
संसद की बैठक टालने और फिर संसद को भंग कर नये चुनाव कराने की घोषणा हो गयी. मगर, सर्वोच्च न्यायालय ने राष्ट्रपति के फैसले को पलट दिया. संसद में नये प्रधानमंत्री के विरुद्ध अविश्वास प्रस्ताव भी पारित हो गया. संसद के भीतर राजनीतिक कटुता मारपीट में बदल गयी.
‘एक समय में दो-दो प्रधानमंत्री’ और ‘कोई प्रधानमंत्री नहीं’ की स्थिति बन गयी. सबकी नज़र इसी बात पर है कि आगे क्या होगा? श्रीलंकाई अदालत दिसम्बर के पहले हफ्ते में इस संकट पर विचार करने के लिए बैठेगी.
श्रीलंका में न पीएम, न मंत्री, न सरकार
श्रीलंका में प्रत्यक्ष तौर पर राजनीतिक संकट की शुरुआत 26 अक्टूबर को हुई. राष्ट्रपति मैत्रीपाला सिरिसेना ने प्रधानमंत्री रानिल विक्रमसिंघे को बर्खास्त कर दिया. राष्ट्रपति का दूसरा तत्काल फैसला था, उनकी जगह पूर्व राष्ट्रपति महिंद्रा राजपक्षे की बतौर प्रधानमंत्री नियुक्ति.
संसद में महिंद्रा राजपक्षे को बहुमत नहीं था, लिहाजा राष्ट्रपति ने 27 अक्टूबर को 16 नवंबर तक के लिए संसद भी निलम्बित कर दिया.
राजनीतिक संकट और गहरा गया जब स्पीकर कारु जयसूर्या ने 28 अक्टूबर को रानिल विक्रमसिंघे को देश के प्रधानमंत्री के तौर पर मान्यता दे दी. इस तरह अब श्रीलंका में एक साथ दो-दो प्रधानमंत्री हो गये.
राष्ट्रपति ही संकट की जड़
श्रीलंका में देखें तो राष्ट्रपति सिरीसेना ही राजनीतिक और संवैधानिक संकट की जड़ हैं. संकट पैदा करने से लेकर गहराने तक के केन्द्र में वही रहे हैं. राजनीतिक संकट सुलझाने के नाम पर राष्ट्रपति मैत्रिपाला सिरिसेना ने पांच नवंबर को संसद का सत्र बुलाने का फैसला किया.
मगर, खुद ही 10 नवंबर को संसद भंग करने की घोषणा कर दी. उन्होंने 5 जनवरी 2019 को श्रीलंका में आम चुनाव का भी ऐलान कर दिया. 19 से 26 नवंबर के बीच नामांकन और चुनाव के बाद नयी संसद की बैठक के लिए 17 जनवरी की तारीख तय हो गयी.
इधर चुनाव का ऐलान हुआ, उधर महिन्द्रा राजपक्षे ने अपने ‘किंगमेकर’ राष्ट्रपति मैत्रीपाल सिरीसेना का साथ छोड़ दिया. सिरीसेना की पार्टी एसएलएफपी से पांच दशक पुराना रिश्ता तोड़ते हुए वे श्रीलंका पीपुल्स पार्टी में शामिल हो गये. यह पार्टी पिछले साल बनी थी और हाल में हुए स्थानीय परिषद चुनाव में इसने 340 सीटों में से दो तिहाई सीटें हासिल की हैं.
सुप्रीम कोर्ट से है उम्मीद
श्रीलंका के सुप्रीम कोर्ट ने 13 नवंबर को संसद को बहाल कर दिया. सर्वोच्च न्यायालय ने राष्ट्रपति मैत्रीपाल सिरीसेना का फैसला उलट दिया. 5 जनवरी को घोषित मध्यावधि चुनाव की तैयारी पर भी रोक लग गयी. अब राष्ट्रपति सिरीसेना के फैसले से जुड़ी सभी याचिकाओं पर अदालत 4, 5 और 6 दिसम्बर को सुनवाई करेगी.
आजादी छिनने से छटपटा रही है संसद
सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद अगले ही दिन 14 नवंबर को संसद की बैठक हुई. बैठक में ‘नवनियुक्त प्रधानमंत्री’ महिंद्रा राजपक्षे के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव पारित हो गया. मगर, राष्ट्रपति सिरिसेना ने इसे स्वीकार करने से इनकार कर दिया. प्रस्ताव को लेकर पक्ष-विपक्ष ने अपने-अपने तरीके से दावे रखे हैं.
अगले दिन यानी 15 नवंबर को श्रीलंका की संसद में मारपीट की स्थिति पैदा हो गयी. एक ऐसी स्थिति बन गयी जब न कोई प्रधानमंत्री है, न कोई मंत्रिमंडल.
मारपीट की स्थिति इसलिए पैदा हुई क्योंकि स्पीकर ने संसद में मतदान के प्रस्ताव को स्वीकार पर उस पर चर्चा कराने की कोशिश की. मारपीट से पहले स्पीकर ने संसद से कहा, "कल हुए अविश्वास प्रस्ताव के मुताबिक फिलहाल कोई प्रधानमंत्री नहीं है और न ही कोई मंत्रिमंडल है, क्योंकि मतदान के सभी पद अमान्य हो गए हैं."
श्रीलंका संकट का भारत कनेक्शन
भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और श्रीलंकाई प्रधानमंत्री रानिल विक्रम सिंघे 20 अक्टूबर को मिले थे. इस मुलाकात की पृष्ठभूमि भी तनावपूर्ण रही. श्रीलंका के राष्ट्रपति सिरिसेना और उनके रक्षा सचिव की हत्या की साजिश करने के भारत पर आरोप हवा में तैर रहे थे. राष्ट्रपति ने खुद फोन पर बात करके पीएम नरेंद्र मोदी से इसका खंडन किया और इसे अफवाह बताया.
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से मुलाकात कर स्वदेश लौटते ही श्रीलंकाई प्रधानमंत्री विक्रमसिंघे ने एक बयान जारी किया. इस बयान में भारत के श्रीलंका में निवेश नहीं करने का ठीकरा बिना नाम लिए राष्ट्रपति सिरीसेना पर उन्होंने फोड़ा. यह बात राष्ट्रपति को नागवार गुजरी.
दोनों के बीच कटुता और बढ़ गयी. आखिरकार 26 अक्तूबर की शाम राष्ट्रपति ने ऐसा कदम उठाया कि श्रीलंका में राजनीतिक और संवैधानिक संकट रुकने का नाम नहीं ले रहा है.
श्रीलंका में संकट के पीछे चीन?
यह सवाल भी अहम है कि श्रीलंका में राजनीतिक संकट के पीछे क्या चीन का हाथ है? रानिल विक्रम सिंघे की युनाइटेड नेशनल पार्टी के सांसद रंजन रामनायके ने आरोप लगाया है कि चीन हर सांसद को 80 करोड़ रुपये दे रहा है ताकि वे महिन्द्रा राजपक्षे और उनकी पार्टी का समर्थन करे.
दूसरी अहम बात ये है कि प्रधानमंत्री पद पर नियुक्त होने और शपथ लेने के तुरंत बाद राजपक्षे ने सबसे पहले चीनी राजदूत से ही मुलाकात की.
इसके अलावा भी 2010 से लेकर 2015 के बीच जब महिंद्रा राजपक्षे श्रीलंका के राष्ट्रपति रहे, तो उसी दौरान खरबों रुपये का चीनी निवेश भी वहां हुआ था. हम्बनटोटा पोर्ट को 99 साल के लिए चीन को लीज पर देने की बात हो या फिर चीनी परमाणु पनडुब्बी श्रीलंकाई समुद्र में नज़र आने का मामला, इन्हें राजपक्षे और चीन के साथ नजदीकी रिश्ते के रूप में देखा जाता रहा है.
क्या होगा आगे?
श्रीलंका में अब फैसला लेने वाली शक्ति बेमतलब हो गयी है. राष्ट्रपति संसद को नहीं मान रहे हैं और संसद ने राष्ट्रपति के फैसले को पलट दिया है. ऐसे में सुप्रीम कोर्ट ही अंतिम रास्ता है. फिलहाल सुप्रीम कोर्ट ने राष्ट्रपति के फैसले को पलट कर राजनीतिक संकट को थाम रखा है.
मगर आने वाले तीन हफ्ते श्रीलंका के लिए महत्वपूर्ण होंगे. निस्संदेह लोकतंत्र की बहाली ही इलाज है. सुप्रीम कोर्ट से यही उम्मीद है. श्रीलंका के हालात पर पूरी दुनिया की नज़र है.
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