(इलाहाबाद हाईकोर्ट ने ट्रिपल तलाक को असंवैधानिक ठहराने के बाद क्विंट हिंदी इस मुद्दे पर शाहिद सिद्दीकी के विचार पुन: प्रकाशित कर रही है. ये लेख सबसे पहले 5 सितंबर, 2016 को प्रकाशित किया गया था.)
तीन बार तलाक कहने पर तलाक को मान्यता देने वाले आॅल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड (एआईएमपीएलबी) ने इसके समर्थन में एक बहुत ही अजीब तर्क दिया है. बोर्ड ने शुक्रवार को कहा, ‘किसी औरत की हत्या करने से तो बेहतर है कि उसे तलाक दे दिया जाए.’
बोर्ड ने जिस तरह का तर्क दिया है, उससे इस्लाम का विरोध करने वाले हर उस शख्स की बात और भी अधिक पुख्ता हो गई है कि इस धर्म में महिलाओं को दबाया जाता है.
बोर्ड ने ये भी कहा कि शरिया में मर्दों को तलाक देने का हक इसलिए दिया गया है, क्योंकि उनमें फैसले लेने की बेहतर समझ होती है और वो कम भावुक होते हैं. इस तर्क में भी यही बात सामने आ रही है कि पुरुषों के मुकाबले महिलाएं कमतर होती हैं और वो तर्कसंगत फैसले नहीं ले सकतीं.
असल में बोर्ड उन सभी आलोचकों और इस्लाम से डरने वालों की बातों को सही ठहराता है, जो ये कहते हैं कि इस्लाम में महिलाओं के साथ बुरा व्यवहार होता है और उन्हें मर्दों से कमतर आंका जाता है.
एआईएमपीएलबी के इन तर्कों ने इस्लाम को सबसे ज्यादा नुकसान पहुंचाया है.
बोर्ड की शुरुआत सम्मानजनक
एआईएमपीएलबी की स्थापना 1973 में कई सम्मानित इस्लामिक विद्वानों ने की थी. इसमें जाने-माने मौलाना अली मियां, मौलाना मिन्नत उल्लाह रहमानी, काजी मुजाहिदुल इस्लाम और मौलाना अब्दुल करीम पारिख शामिल थे. इनको चुना नहीं गया था, लेकिन ये लोग अधिकतर मान्यताओं के प्रतिनिधि थे.
बोर्ड की इसलिए भी इज्जत थी कि इसकी अगुवाई मौलाना अली मियां कर रहे थे, जो मॉडरेट विचारधाराओं के होने के साथ एक जाने-माने विद्वान भी थे.
और फिर आए सुर्खियों में
1985 में शाह बानो मामले में बोर्ड लोगों की नजर में आया, जब उसने सुप्रीम कोर्ट के फैसले के खिलाफ एक बड़ा विरोध प्रदर्शन किया. बोर्ड का कहना था कि सुप्रीम कोर्ट का फैसला शरिया या यूं कहे कि मुसलमानों के निजी कानूनों में दखल दे रहा था.
राजीव गांधी को आखिरकार बोर्ड के सामने झुकना पड़ा और उन्होंने 1986 में मुस्लिम महिला सुरक्षा अधिनियम लागू कर दिया, जिससे सुप्रीम कोर्ट के फैसले को पलटा जा सके.
इस फैसले के बाद बोर्ड का हौसला काफी बढ़ गया और इसमें राजनीति से प्रेरित कई तरह के लोगों ने अपनी जगह बना ली.
एआईएमपीएलबी ने राजीव गांधी से वादा किया था कि वो जल्द ही शरिया कानून में बदलाव करेंगे और बोर्ड में महिलाओं का प्रतिनिधित्व होगा.
लेकिन 30 साल बाद भी वो वादे अधूरे हैं.
गलत और सही
एआईएमपीएलबी का ये दावा तो सही है कि सुप्रीम कोर्ट पूरे देश में एक समान नागरिक संहिता बनाकर लागू नहीं कर सकता. ये हक केवल संसद के पास है. लेकिन किसी को तीन बार तलाक कहना न केवल कुरान के खिलाफ है, बल्कि इस्लाम के कई कानूनों ने इसे सिरे से नकार भी दिया है. बोर्ड अगर इस बात की पैरवी करता कि तीन बार तलाक कहना गलत है और इसे मान्यता नहीं देता तो उसका पक्ष मजबूत होता.
बोर्ड को महिलाओं के प्रति गलत विचारों के खिलाफ आवाज उठानी होगी
बोर्ड के सदस्यों ने जब ये कहा कि महिला की हत्या करने से अच्छा है कि उसे तलाक दे दिया जाए, तो ऐसा कहकर उन्होंने अपनी बेवकूफी का परिचय दिया. उन्होंने एक गलत चीज को दूसरी गलत चीज से सही साबित करने की कोशिश की है. ये एक अनैतिक तर्क है, जो एक तथाकथित धार्मिक संस्था की तरफ से आया है.
अगर वो ऐसा नहीं करते हैं, तो मुस्लिम उलेमाओं, इस्लामिक विद्वानों और बुद्धिजीवियों को सामने आना चाहिए और इस बोर्ड को अप्रासंगिक घोषित कर देना चाहिए. अब समय आ गया है कि मुस्लिम उलेमा साहस और दूरदर्शिता के साथ जरूरी सुधार करें, जो कुरान और हदीस में बताए गए हैं, जिससे मुस्लिम समुदाय मजबूत बन सके. ऐसा करने से समुदाय अपने मूलभूत विचारों की रक्षा अंदर और बाहर दोनों तरफ से कर सकेगा.
वक्त आ गया है कि कट्टरपंथी उग्रवादी संगठनों का सामना किया जाए, जो मुस्लिम समाज को कैंसर की तरह नुकसान पहुंचा रहे हैं. तीन बार तलाक और बहुविवाह जैसे अप्रासंगिक और बेकार के मुद्दों पर समय गंवाना सही नहीं है. इस्लाम को विरोधियों और आलोचकों से इतना खतरा नहीं है जितना अपने लोगों से है.
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