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क्‍या है मराठा आंदोलन में खास, जानें 5 अहम बातें

जानिए क्या वाकई महाराष्ट्र मराठा और दलितों के जातीय संघर्ष के मुहाने पर पहुंच गया है?

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भारत
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महाराष्ट्र में इन दिनों लाखों की संख्या में प्रदर्शनकारी सड़कों पर उतर रहे हैं.

चाहें वो अकोला, नांदेड़, बीड, उस्मानाबाद और सतारा जैसे छोटे शहरी कस्बे हों या फिर औरंगाबाद, जलगांव, जालना, लातूर और अहमदनगर के तालुका मुख्यालय हों. बीते दिनों इन सभी जगहों पर किलोमीटरों लंबे विशाल मूक प्रदर्शन देखे गए.

काफी संयमित, अनुशासनबद्ध और शांतिपूर्ण ढंग से निकाले गए लाखों लोगों के इन गैरराजनीतिक प्रदर्शनों में एक ही नारा सुनाई दिया- ‘एक मराठा, लाख मराठा’.

कहा जा रहा है कि प्रदर्शनकारी मराठा समुदाय के लोग हैं, जो राजनीतिज्ञों से नाराज हैं. कुछ का कहना है कि मराठा समुदाय सूबे में दलितों के रवैये से खफा हैं, जिस वजह से महाराष्ट्र मराठा और दलितों के जातीय संघर्ष के मुहाने पर पहुंच गया है.

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लेकिन ऐसा होना, क्या रातोंरात संभव है?

नहीं. जानकारों की मानें, तो यह सिलसिला पिछले डेढ़ महीने से जारी है और तभी से यह मुद्दा सुलग रहा है. राज्य प्रशासन इसे दबाने की कोशिश करता रहा. राजनीतिज्ञों ने भी इसे भाव नहीं दिया. लेकिन अहमदनगर और औरंगाबाद के बाद पूरे महाराष्ट्र के मराठाओं का एकजुट होकर सड़कों पर उतर आना, नेताओं की बेचैनी का कारण बन रहा है.

...तो डेढ़ महीना पहले ऐसा क्या हुआ, जिसे लेकर मराठा समुदाय नाराज है?

दरअसल 13-14 जुलाई को अहमदनगर जिले के कोपर्डी गांव में एक मराठा लड़की अपने दादा-दादी को देखने गई और वापस नहीं लौटी. बाद में गांव के एक खेत में उसका शव मिला. बलात्कार के बाद गला घोंटकर उसकी हत्या कर दी गई थी. इसका आरोप कुछ दलित लड़कों पर लगा था. कुछ लोग कहते हैं कि इस घटना के कारण ही मराठा समाज के लोग हर जिले में लाखों की तादाद में मोर्चा बनाकर सड़कों पर उतर रहे हैं.

जानिए क्या वाकई महाराष्ट्र मराठा और दलितों के जातीय संघर्ष के मुहाने पर पहुंच गया है?
ऐसे में यह सवाल जरूर उठता है कि क्या सिर्फ एक आपराधिक घटना इस किस्म के विशाल प्रदर्शन को शक्ल दे सकती है?

रैली में शामिल लोग कुछ दिलचस्प बातें बताते हैं. उनका कहना है कि उनके प्रदर्शन का कोई चेहरा नहीं है. स्कूल और कॉलेजों की लड़कियों का एक समूह प्रदर्शन को लीड करता है. वो आगे-आगे चलकर कलेक्टर को अपना मांगपत्र देती हैं. इनके पीछे युवक-युवतियां, स्टूडेंट्स और समाज के लोग होते हैं. रैली में सबसे पीछे सफाई ब्रिगेड होता है, जो जुलूस में चल रहे लोगों के फैलाए कचरे को साफ करता चलता है.

प्रदर्शनकारी हर कस्बे या शहर के सबसे बड़े चौक पर जमा होते हैं. अब तक हुई सभी रैलियों में 8-10 लाख लोगों की मौजूदगी दर्ज की गई. रैलियों का यह दौर 15 अक्टूबर तक चलना है.
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इन प्रदर्शनकारियों के मांगपत्र में डिमांड्स क्याहैं?

  • प्रदर्शनकारियों की पहली मांग है कि कोपर्डी में हुई सामूहिक बलात्कार की घटना के दो फरार आरोपियों को फांसी की सजा दी जाए.
  • दूसरी मांग है- दलित उत्पीड़न रोकथाम कानून में बदलाव की. मराठा समुदाय का मानना है कि इस कानून का बड़े पैमाने पर दुरुपयोग हो रहा है.
  • गुजरात के पटेलों और हरियाणा के जाटों की तरह मराठा समाज भी शिक्षा और नौकरियों में आरक्षण की मांग कर रहा है. यह इनकी तीसरी मांग है.
  • महाराष्ट्र में सबसे ज्यादा किसान मराठा हैं, जो किसानों के हित में एमएस स्वामीनाथन आयोग की सिफारिशें लागू करने की मांग भी कर रहे हैं. इन सिफारिशों में किसानों के कर्ज माफ करने पर जोर दिया गया है. यह प्रदर्शनकारियों की चौथी मांग है.

दलित बलात्कारियों को फांसी हो. दलित समाज मराठाओं की इस मांग के समर्थन में है. लेकिन दलित यह नहीं समझ पा रहे कि बलात्कार केस और एट्रोसिटी कानून में बदलाव का क्या ताल्लुक है?
जानिए क्या वाकई महाराष्ट्र मराठा और दलितों के जातीय संघर्ष के मुहाने पर पहुंच गया है?

महाराष्ट्र में मराठा आबादी 30% से ऊपर है. इसने राज्य को 18 में से 13 सीएम दिए हैं. तो अपेक्षाकृत संपन्न मराठा समुदाय को क्यों लगता है कि विकास की दौड़ में वो पीछे छूट गए हैं? और उन्हें आरक्षण की जरूरत है?

मराठा समुदाय की आरक्षण की मांग अगर जाटों और पटेलों की मांग से मिलती-जुलती लगती है, तो इनकी समस्या भी कमोबेश एक जैसी ही है. और वह है खेती की समस्या. इसलिए हालिया मराठा आंदोलन उन शहरी मराठा परिवारों से ज्यादा, उन लोगों के उग्र सवालों को सामने लाता है, जो मराठा होने के साथ-साथ कृषि आधारित परिवारों से वास्ता रखते हैं. इसके लिए कुछ पहलुओं पर नजर डालें:

  • एक अनुमान के मुताबिक मराठा समुदाय महाराष्ट्र की जनसंख्या के 30% से कुछ ज्यादा है. यानी करीब 4 करोड़ लोग.
  • इनमें महज 4% मराठा ऐसे हैं, जिनके पास 20 एकड़ से ज्यादा जमीन है.
  • समाज के इस हिस्से को अपने-अपने इलाकों में संपन्नता की मिसाल माना जाता है.
  • लेकिन 90-95% मराठा हाशिये पर पड़े किसान हैं या फिर भूमिहीन किसान, जो समस्याओं से जूझ रहे हैं. वे असिंचित भूमि पर खेती करते हैं. वे शिक्षा से वंचित हैं. उनका दैनिक जीवन दर्दनाक है. इनमें कई भयंकर गरीबी के शिकार भी हैं.
  • महाराष्ट्र में जितने किसानों ने खुदकुशी की है, उनमें 90% मराठा समुदाय से हैं.
  • किसान परिवार जो कि इन प्रदर्शनों में शामिल हो रहे हैं, उनका कहना है कि चूंकि वे सामान्य वर्ग में शामिल हैं, इसलिए उन्हें नौकरियां नहीं मिलती.
  • आईएएस और आईपीएस स्तर की नौकरियों में मराठा समुदाय के लोग नहीं के बराबर हैं. यहां तक कि न्यायिक सेवा समेत कॉरपोरेट क्षेत्र में भी मराठा समुदाय का प्रतिनिधित्व नहीं मिलता.

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...तो क्या इस प्रदर्शन को खेती-किसानी से जुड़ी समस्याओं के खिलाफ एकजुट होना कहा जाए?

ऐसा कहा जा सकता है. क्योंकि गांव से फसल जिस कीमत पर उठ रही है और जिस कीमत पर शहरों के रिटेल बाजारों में बेची जा रही है, उसमें भारी अंतर है. किसानों को गेहूं और चावल के दाम नहीं मिल रहे. फिर बच्चों को खेती की आमदनी के भरोसे शहरों में पढ़ाना और उनका खर्च उठाना असंभव हो चुका है. चिकित्सा के खर्च को झेलना भी किसान के काबू से बाहर हो चुका है. यही वजह है कि इस आंदोलन में शिक्षा और स्वास्थ्य का सार्वजनीकरण और सरकारीकरण करने की मांग भी की जा रही है. यही वजह है कि आत्महत्या करते किसानों के बीच काम कर रहे संगठन और दूसरे समुदाय के लोग भी इन प्रदर्शनों में शामिल हो रहे हैं.

जब सूबे की इतनी बड़ी आबादी अपने मुद्दों को लेकर आंदोलित हो रही है, तो राजनीतिक दल कहां हैं? क्या सियासी पार्टियां इन प्रदर्शनों में कोई संभावना तलाश रही हैं?

इन विशाल प्रदर्शनों से महाराष्ट्र के सियासी समुद्र में सूनामी जैसा माहौल है. सभी राजनीतिक दल फूंक-फूंक कर कदम रख रहे हैं. हर पार्टी को लग रहा है कि कोई नया मराठा नेता इसकी कमान संभालकर एक समानांतर ताकत बनने की कोशिश न करने लगे.

ऐसा हुआ तो कई राजनीतिक दलों का सियासी गणित बिगाड़ सकता है. इसलिए मराठा नेतृत्व वाली एनसीपी और कांग्रेस जैसी पार्टियां भी घबराई हुई हैं, क्योंकि वे जानती हैं कि गरीब मराठा जाग उठा है और उसे नेतृत्व की जरूरत नहीं है. लोग शांतिपूर्ण तरीके से अपनी बात प्रशासन तक पहुंचा रहे हैं.

वहीं हरियाणा और गुजरात के बवंडर को काबू करने के बाद महाराष्ट्र की यह स्थिति देखकर ‘ब्राह्मण शासित’ महाराष्ट्र की बीजेपी सरकार को भी डर लग रहा है. बीजेपी को अभी यह नहीं पता है कि इस आंदोलन के पीछे कौन है, इसलिए वह सिर्फ सही वक्त और सही दाव का इंतजार कर रही है.

जानिए क्या वाकई महाराष्ट्र मराठा और दलितों के जातीय संघर्ष के मुहाने पर पहुंच गया है?

‘मरता, क्या न करता’. एक पुरानी कहावत है. मराठा समुदाय के कर्ज में डूबे किसानों की यही स्थिति है. ऐसे में बेरोजगार नौजवान उनके साथ हैं. महिलाएं और छात्र उनकी रैलियों को लीड कर रहे हैं. अब तक हर रैली में करीब 10 लाख लोग शामिल हुए हैं. रैलियां आगे भी होंगी. और यह सिलसिला अभी लंबा चल सकता है. ऐसे में किसानों के मुद्दों पर केंद्रित इस प्रदर्शन को हरियाणा की तरह ‘एक बनाम 36 बिरादरी’ के झगड़े और राजनीति में तबदील होने से बचाना, मराठा समुदाय के लिए बड़ा चैलेंज होगा.

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