भारत के सबसे ज्यादा हिंसा वाले राज्यों में से एक में जातिवाद के अत्याचार से लड़ने के लिए दलित यूथ आर्मी बनाना कैसा है? 'भीम आर्मी' पर बनाई गई हमारी इस डॉक्युमेंट्री में आपको मिलेंगे कई दिलचस्प पहलू.

मुसीबत का संकेत

घड़कौली के चौकन्ने और चतुर मुखिया सुरेश पाल गांव के मुहाने पर लगे उस साइनबोर्ड को देखते ही समझ गए. बवाल होकर रहेगा. बोर्ड पर गांव में रार मचना तय है. उनका अंदाजा सही निकला. गांव में बोर्ड को लेकर ठन गई.

साल 2016. मार्च का महीना. खिली हुई धूप का दिन. जाड़े की कटाई हो चुकी हो थी. गांव के छोरे फुरसत में दिख रहे थे. साइनबोर्ड के इर्द-गिर्द जमा कुछ नौजवान लड़के आजकल के नए शगल में मशगूल थे. मोबाइल पर फिल्मों की अदला-बदली करते हुए वे साइनबोर्ड को देख-देख कर इतरा रहे थे. बोर्ड पर लिखी इबारतों के मतलब को लेकर जुनून का आलम था.

दूर से देखने पर यह साइनबोर्ड सरकारी दरियादिली में खड़ा किया किसी आम बोर्ड की तरह ही दिखता था.. लेकिन जरा सामने जाते ही हिंदी में लिखी और असहज करती उन लाइनों से सामना होता है, जिन्हें मंजूर करना घड़कौली के लिए कतई मुमकिन नहीं था. गांव की जो फिजा और फितरत थी उसमें ऊंची जातियों के लिए इसे जज्ब करना मुश्किल था.

साइन बोर्ड की इबारतों पर भड़के गांव के राजपूत, ब्राह्मण, झीमर और अहीर मुखिया सुरेश पाल के पास जा धमके. इन लोगों ने पाल को सलाह दी. कहा- समस्या मिल-बैठ कर सुलझ सकती है. बोर्ड नहीं हटेगा. इसकी गारंटी देते हैं. लेकिन इसमें लिखे शब्दों में एक को हटाना होगा. गांव में परचून की दुकान चलाने वाले वीरेंद्र सिंह राजपूत ने कहा - हां, सिर्फ एक शब्द हट जाए. हम चाहते हैं कि बोर्ड से ‘ग्रेट’ हट जाए. ग्रेट शब्द हटा दो. गांव की मुख्य सड़क पर लगी अंबेडकर की मूर्ति की परली तरफ के मकान में रहने वाले मोहर सिंह राजपूत इससे एक कदम आगे बढ़ कर सुझाते हैं. अगर चमार शब्द हट जाए तो और अच्छा हो.

एक विवादित साइन बोर्ड, जो सहारनपुर (उत्तरप्रदेश) के गढ़कौली गांव में सबसे पहले भीम आर्मी के आने का कारण बना (फोटो: ऐशा पॉल/द क्विंट)

जिस बोर्ड को लेकर बवाल हो रहा था , उस पर लिखा था-

द ग्रेट चमार.

गांव घड़कौली

आपका स्वागत करता है.

राजपूतों का कहना था, इस बोर्ड से चमार यह जताना चाहते हैं कि न सिर्फ वे महान हैं. बल्कि हर किसी से बेहतर हैं. यही दिक्कत है.

राजपूतों, ब्राह्मणों, अहीरों और झीमरों की बात सुनने के बाद मुखिया सुरेश पाल बोर्ड लगाने वाले लड़कों के समझाते हैं. कहते हैं- दलित होने का मुझे भी गर्व है. लेकिन इस तरह का बोर्ड लगाना बेवजह भड़काने वाली बात है.

लेकिन लड़के टस से मस नहीं हुए. उनका कहना था- बोर्ड एक निजी जमीन पर लगा है. चमार शब्द किसी को नीचा दिखाने के लिए इस्तेमाल नहीं किया गया है. चमार शब्द उन्हीं ऊंची जातियों के लोगों का दिया गया है. सदियों से चमड़े का काम करने वाले हिकारत से चमार कहे जाते रहे हैं. दलितों को अब खुद को चमार कहने में कोई हिचक नहीं है. उन्हें इसमें गर्व महसूस होता है.

बहुजन समाज पार्टी के विधायक ने इस मामले में हाथ डालने से इनकार कर दिया. उनका कहना था- राजपूत भी अपनी जमीन में ‘ग्रेट राजपूत’ का बोर्ड लगा लें. कौन इनकार करता है. गांव में तमाम जातियों की महानता का ऐलान करने वाले बोर्ड चारों ओर से लगे हैं.

पिछले साल मार्च महीने में ही घड़कौली में हरियाणा से राजपूतों की एक बारात आई थी. बोर्ड दिखते ही बाराती भड़क गए. वीरेंद्र सिंह राजपूत ने बताया- बारातियों ने कहा, अपने गांव में हम ऐसा कतई नहीं होने देते. वीरेंद्र सिंह कहते हैं- हमारे कुछ लड़कों ने बोर्ड के बारे में पुलिस में शिकायत दर्ज करा दी.

29 अप्रैल 2016 को ब्राह्मण डीएसपी आनंद पांडे अपनी टीम के साथ गांव पहुंचे. उस समय छपी अखबार की एक रिपोर्ट के मुताबिक – चूंकि राजपूतों ने साइन बोर्ड पर एतराज किया था इसलिए चमारों और राजपूतों के बीच समझौता कराने की कोशिश की गई. शुक्रवार सुबह पुलिस की मौजूदगी में बोर्ड को काला कर दिया गया.

सहारनपुर, कुम्हार हेड़ा, गढ़कौली, छुटमलपुर पश्चिमी उत्तर प्रदेश की सहारनपुर और छुटमलपुर जैसी जगह पर ऐतिहासिक रूप से दलित राजनीति का दबदबा रहा है.

लेकिन गांव के अन्य दलित दबने के मूड में नहीं थे. शिकायत करने वाले ठाकुरों और ब्राह्मण पुलिस वाले की धौंस सहना उन्हें बर्दाश्त नहीं था. पूरे माजरे को देख रहे एक दलित से रहा नहीं रहा गया. भीड़ से अलग खड़े उस शख्स ने चुपचाप ‘भीम आर्मी’ को फोन घुमा दिया.

इसके बाद फिल्मी अंदाज में जो कुछ हुआ, उसके बारे में चश्मदीदों ने कुछ यूं सुनाया –

साइनबोर्ड को काला करने के कुछ देर बाद दलितों के मसीहा और भारत के संविधान के रचयिता डॉ. भीमराव रामजी अंबेडकर की गांव में खड़ी प्रतिमा भी काली कर दी गई. दलित तमतमा गए. गांव के चौराहे पर गुस्साए दलित और ठाकुर भिड़ गए.

ठीक उसी वक्त धड़धड़ाती मोटरसाइकिलों पर सवार युवाओं का एक दल गांव में घुस आया. दूर से ही उन्होंने नारा लगाया- भीम आर्मी, जय भीम. काली पैंट, सफेद शर्ट और गहरे नीले का दुपट्टा गले में लपेटे, नौजवानों का लीडर मोटरसाइकिल से नीचे उतरा. कड़क मूंछ, बांके और कसरती बदने वाले इस नौजवान का नाम गांव के लोगों को मालूम नहीं था. पता चला कि इस नौजवान का नाम है- चंद्रशेखर.

दलितों की भीड़ बढ़ गई. डीएसपी पांडे और पुलिसवालों की कुटाई हो गई. मजबूर होकर और फोर्स बुलानी पड़ी. पुलिस ने लाठीचार्ज कर दिया. लेकिन दलित औरतें और मर्द कंधे से कंधे मिलाकर डटे रहे.

गढ़कौली में साइनबोर्ड के साथ चंद्रशेखर, जिन्होंने भीम आर्मी की शुरुआत की (फोटो: ऐशा पॉल/द क्विंट)

शाम तक खूब पत्थर चले. नारेबाजी होती रही. लड़ाई चलती रही. शाम गहराने तक गांव शांत हो चुका था लेकिन अंदर ही अंदर उफन रहा था.

सितंबर 2016 . गांव घड़कौली का मेरा यह पहला दौरा था. गांव के मुहाने पर साइनबोर्ड दोबारा लग चुका था. साइनबोर्ड एक बार फिर इसके पैरोकारों की महानता का ऐलान कर रहा था.

यूपी, 2017 के चुनाव के लिए तैयार हो रहा था. सूबे की चार बार सीएम रह चुकीं और दलित राजनीति का चेहरा मायावती 2012 और 2014 की हार के बाद अपनी राजनीतिक हैसियत फिर साबित करने की कवायद शुरू कर चुकी थीं.

आम लोगों के बीच उनकी हार की वजहों पर दो तरह की बातें हैं. पहली – उनकी दलित पहचान इतनी गहरी है कि वह अपर कास्ट वोटरों को अपने पाले में करने में नाकाम हैं. दूसरी यह कि उनकी दलित पहचान इतनी गहरी नहीं हैं कि वह अपनी जाति के वोटरों को एकजुट रख सकें.

मायावती का सत्ता में लौटाना बहुत कुछ इस असंभव पहेली को सफलतापूर्वक सुलझाने पर टिका है. घड़कौली इस पहेली का नमूना भर है.

जाति के नाम पर अत्याचार को रोकने का सबसे अच्छा तरीका क्या हो सकता है? क्या यह घड़कौली के निर्वाचित मुखिया सुरेश पाल की ओर से बीच-बचाव करने वाली राजनीति के जरिये संभव है? या फिर यह काम भीम आर्मी के करिश्माई नेता चंद्रशेखर के अपनाए गए टकराव के तरीके से होगा?

इसके अलावा एक और सवाल का जवाब जानना बाकी है. क्या चुनावी राजनीति जाति खत्म करने में सक्षम भी है? या फिर राजनीतिक दल इतने समझौतावादी हो चुके हैं कि बड़े सामाजिक बदलाव के काम करना उनके बूते की बात नहीं रही?

बहरहाल, जब हमने घड़कौली में चंद्रशेखर से मुलाकात की तो उन्होंने कहा कि राजनीतिक पार्टियां अपनी ओर से सबसे अच्छा काम यह कर सकती हैं कि वे सामाजिक बदलाव वाले आंदोलनों के लिए एक प्रोग्रेसिव स्पेस मुहैया कराएं.

चुनावों की अपनी जगह है. लेकिन राजनीतिक दलों को दोनों को संतुष्ट करना होगा. उन्हें, जिन्होंने अपनी जमीन पर बोर्ड लगाने के लिए लाठियां खाईं और उन्हें भी जिन्होंने लाठीचार्ज का ऑर्डर दिया.

हमें बीएसपी की जरूरत है. लेकिन हमें भीम आर्मी भी चाहिए.

पतंजलि की फैक्ट्री में काम करते हुए भीम आर्मी के सदस्य टिंकू को एहसास हुआ कि वह खुद डिटर्जेंट बना सकता है. देेखिए भीम शक्ति डिटर्जेंट पाउडर की पूरी कहानी.

एक आर्मी का गठन

013 में युवा चंद्रशेखर सरकारी डिग्री कॉलेज से पढ़ कर निकले ही थी और रोजगार तलाश रहे थे. लेकिन इसके बाद ही उनके पिता गोवर्धन दास को कैंसर हो गया और उन्हें अस्पताल में भर्ती कराना पड़ा. बीमारी को अपना वक्त लेना था. पिता और पुत्र बचे हुए वक्त को जी लेना चाहते थे. लेकिन एक साथ होते हुए अनजाने ही दोनों अलग-अलग हो चुके थे.

चंद्रशेखर ने अपनी जवानी का ज्यादातर वक्त देहरादून में बिताया था. स्कूलों और कॉलेजों वाला एक खुला उदार शहर. सरकारी टीचर पिता का तबादला होता रहा. चंद्रशेखर को तो खुले भेदभाव का सामना नहीं करना पड़ा. लेकिन वह कहते हैं पिता इसे वर्षों तक चुपचाप सहते रहे.

चंद्रशेखर कहते हैं- मेरे पिता हेडमास्टर थे. लेकिन अक्सर मीटिंगों उनका अपमान होता था. स्टाफ रूम में उनका गिलास दूसरे शिक्षकों के गिलास से अलग रखा जाता था. उन्होंने अपने साथ भेदभाव के मुझे सैकड़ों कहानियां सुनाईं. पहले वह मुझे ये बातें इसलिए नहीं बताते थे ताकि हममें हीन भावना न घर कर जाए.

रात-दिन मैं भीम आर्मी के बारे में सोचता रहता हूं. हर वक्त मेरे दिल में भीमराव अंबेडकर मौजूद रहते हैं. सहारनपुर के छुटमालपुर गांव में मौजूद अपने घर के दरवाजे पर लगे स्टीकर की ओर इशारा करते हुए चंद्रशेखर इसकी कैफियत बयां करते हैं. फोटो ( ईशा पॉल/द क्विंट)

पिता के निधन के बाद चंद्रशेखर दिल में कुछ करने की तमन्ना लिए हुए सहारनपुर के नजदीक अपने होमटाउन छुटमलपुर लौट आए. अपना बचपन उन्होंने यहीं गुजारा था. जल्द ही चंद्रशेखर को अहसास हो गया कि काम शुरू करने के लिए यह बिल्कुल मुफीद जगह है.

स्थानीय लोग बताते हैं कि छुटमलपुर 1959 में बसा था. नाथीराम नाम के एक दबंग दलित की सोच यह थी कि उनके समुदाय के लोगों का भविष्य गांव में नहीं बल्कि शहरों की सड़कों से जुड़ती शहरी बस्तियों में ही है. गांवों में उनका कोई भविष्य नहीं है जहां जमीन की मिल्कियत वाली जातियों का दबदबा है. नाथीराम मजदूरी का काम करते थे लेकिन दिग्गज कांग्रेस नेता महमूद अली खाने उनसे काफी प्रभावित हुए. उनकी सरपरस्ती की वजह से नाथीराम सरपंच बने. वह जिले के शुरुआती दलित सरपंचों में से एक थे. नाथीराम के पोते सतीश कुमार बताते हैं- नाथीराम खान के सचिव बन गए. उन्होंने खान से हाईवे पर दलितों के लिए जमीन आवंटित करने की गुजारिश की. और इस तरह छुटमलपुर अस्तित्व में आया.

आज छुटमलपुर 10000 की आबादी वाला शहरी बस्ती में तब्दील हो चुका है. दलित और मुस्लिमों के मिश्रित वाले इस शहर में एक बस स्टैंड, पेट्रोल पंप, मस्जिद, मंदिर और इंटर कॉलेज है. यह दिल्ली-सहारनपुर हाईवे से जुड़ा है.

चंद्रशेखर पेट्रोल पंप से थोड़ी ही दूरी पर एक साधारण एक मंजिला घर में रहते हैं. उनके छोटे से कमरे में एक बिस्तर और लकड़ी की साइड टेबल के बराबर जगह है. मेज पर 15 इंच के लैपटॉप के ऊपर टूटे हुए स्पीकर्स के सेट हैं.

कमरे में कपड़े टांगने के लिए लाइन से खूंटियां लगी हैं. कमरे के दूसरे कोने में पोस्टर लगा है. इस पर चंद्रशेखर की पसंदीदा अंबेडकर की लाइन लिखी है – जाओ और दीवारों पर लिख दो, तुम्हीं इस देश के शासक हो.

सतीश कहते हैं – छुटमलपुर के दलित शिक्षित और संगठित हैं. इसलिए जब चंद्रशेखर ने कहा कि वह संगठन बनाना चाहते हैं तो हमने तुरंत उनकी मदद का फैसला कर लिया.

भीम आर्मी के प्रमुख लोग चंद्रशेखर के पड़ोस में ही रहते हैं. सतीश कुमार खुद को उनके पुराने गाइड कहते हैं. उनका घर चंद्रशेखर के घर के पीछे ही है. जबकि संगठन के राष्ट्रीय संयोजक विनय रत्न सिंह उनसे घर से पांच मिनट की दूरी पर रहते हैं.

प्रशासन से भीम आर्मी की पहली भिड़ंत अगस्त 2015 में हुई. उस महीने दलित छात्रों ने शिकायत की थी की राजपूतों की ओर से चलाए जाने वाले इंटरकॉलेज में उनसे भेदभाव हो रहा है.

गढ़कौली में भीम आर्मी में भर्ती हुए नए लोगों के साथ चंद्रशेखर (फोटो: ऐशा पॉल/द क्विंट)

एक दलित छात्र अंकित कुमार ने आरोप लगाया – ठाकुर लड़के हम से जबरदस्ती झाड़ू लगवाते थे. गेम पीरियड के बाद जब पानी पीने की बारी आती थी तो दलितों को सबसे बाद में पानी पीना पड़ता था.

एक दिन भीम आर्मी चीजों को ठीक करने पहुंच गई. चंद्रशेखर के तरीके से. सतीश कुमार थोड़ा खुल कर बताते हैं- अगर वे हमारे दो लड़कों को पीटते थे तो हम उनके चार लड़कों की तुड़ाई कर डालते थे. इस तरह हम मामलों को निपटा डालते थे.

इन मामलों के एक साल बाद घड़कौली में साइनबोर्ड पर हुआ फसाद अहम मोड़ साबित हुआ.

सहारनपुर में दलित आंदोलन से मजबूती से जुड़े कार्यकर्ता राजकुमार बताते हैं, “ पहले हमने भीम आर्मी का नाम नहीं सुना था. हमने भीम आर्मी का नाम घड़कौली कांड के बाद ही सुना. ऐसी अफवाह थी कि में पुलिस चंद्रशेखर के खिलाफ एनएसए लगाना चाहती है. सो बीएसपी से लेकर बामसेफ और मेरे जैसे स्वतंत्र कायकर्ता ने अद्भुत एकता दिखाई. हमने चंद्रशेखर के समर्थन में एक विशाल रैली की. पुलिस पीछे हट गई. एनएसए नहीं लगा और चंद्रशेखर जेल से रिहा कर दिए गए.

राजकुमार यह मानते हैं कि दलित मूवमेंट की स्थानीय शाखा से जुड़ा हर कोई भीम आर्मी की टकराव वाली रणनीति का समर्थक नहीं है. लेकिन घड़कौली को चारो तरफ से समर्थन मिला. क्योंकि दलितों के लिए यह देखना बेहद रोमांचक था कि किस कदर एक दलित समूह पुलिस के सामने तन कर खड़ा हो गया है.

इसने बीएसपी के शुरुआती दिनों को याद दिला दी जब मायावती पुरानी खटारा साइकिल पर गांव-गांव जाकर दलित आंदोलन की अलख जगा रही थीं. उन दिनों उनके लिए दलितों का कोई मुद्दा छोटा नहीं था. हर मुद्दे पर वह निजी तौर पर दिलचस्पी लेती थीं.

गांधी ने गलत राह दिखाई. ज्यादातर दलित समूहों की तरह ही भीम आर्मी हरिजन शब्द से इनकार करती है. उनके लिए हरिजन शब्द सरपरस्ती और दया का भान कराता है. भी आर्मी की सबसे मुखर वक्ता ममता बता रही हैं क्यों हरिजन शब्द उन्हें मंजूर नहीं


एक प्राइवेट अस्पताल में नर्स और भीम आर्मी एक मात्र महिला सदस्य ममता कहती हैं - अब बहनजी को लखनऊ में हर वक्त उनके मनुवादी सलाहकार घेरे रहते हैं. नेताओं को समाज के हाथों घायलों के जख्मों पर मरहम लगाना चाहिए. बीएसपी अब यह काम नहीं करती. भीम आर्मी करती है.

बीएसपी के एक स्थानीय संगठनकर्ता कहते हैं, “ भीम आर्मी जो कर रही है उसका हम पूरा समर्थन करते हैं लेकिन आप हर वक्त पुलिस के खिलाफ हिंसा भड़काए नहीं रख सकते. “वह मानते हैं कि चंद्रशेखर ने काफी कम वक्त में सर्मथकों का एक मजबूत नेटवर्क बनाने में कामयाबी हासिल कर ली है. अगर घड़कौली की तरह ही पुलिस ने गांव वालों को गिरफ्तार करने का फैसला किया तो क्या आपके पास वह सांगठनिक ताकत है, जिससे आप मुकदमे अदालत में लड़ सकें.



एक हिंसक विरासत

एक सुबह चंद्रशेखर और भीम आर्मी के तीन तगड़े कार्यालय पदाधिकारी हुंडई सैंट्रो कार में बैठ कर गठेढ़ा पहुंच गए. जहां एक दिन पहले रविदास की एक मूर्ति पर कालिख पोत दी गई थी. चंद्रशेखर बताते हैं कि पहले तो पुलिस ने शिकायत दर्ज करने से मना कर दिया.

गठेढ़ी में चंद्रशेखर के साथ व्यस्त ट्रैफिक में हम आगे बढ़ते हैं. साथ चलते-चलते वह कहते हैं- दिक्कत यह है कि पुलिस इन मामलों की ठीक से जांच नहीं करती. इसके बजाय वह इस तरह की घटनाओं में पार्टी (पक्ष) बन जाती है.

रविदास की मूर्ति वाले मामले के बारे में हमें किसी ने फोन कर बुलाया. गठेड़ा में हमारी कोई मौजूदगी नहीं थी. फिर भी हम पहुंचे.

घड़कौली में साइनबोर्ड पर फसाद के बाद पुलिस का रुख ज्यादा सुलह-समझौते वाला हो चुका था. वह रविदास की मूर्ति वाली घटना की जांच करने को राजी हो गई. बहरहाल गठेढ़ी का आज का दौरा नौजवानों को भीम आर्मी में शामिल कराने के लिए है.

फिलहाल सैंट्रो हाईवे से थोड़ा नीचे उतरती है और एक जूस की दुकान प रुकती है. दुकान के ऊपर अंबेडकर की एक फोटोकॉपी तस्वीर लगी है. चंद्रशेखर कहते हैं यहां हमारे एक समर्थक हमारे काम के लिए कुछ चंदा देना चाहते हैं. दुर्भाग्य से वह इस समय बाल कटा रहे हैं.

स्थानीय दैनिक जनवाणी के आज के संस्करण के एक पेज का तीन चौथाई हिस्सा गठेड़ा की खबरों से भरा है. हेडिंग है- संत रविदास मूर्ति के अपमान पर भीम आर्मी आगबबूला.

चंद्रशेखर एक दूसरे अखबार में एक और खबर को दिखाते हैं- जिसमें कहा गया है कि उत्तराखंड में आटा चक्की को कथित तौर पर अपवित्र करने वाले एक दलित का प्राइमरी स्कूल के टीचर ने गला रेत डाला. वह कहते हैं- देखिये, मामले मूर्ति पर शुरू होते हैं और यहां खत्म होते हैं.

आनंद तेलतुंबड़े परसिस्टेंस इन कास्ट इन इंडिया में लिखते हैं : खैरलांजी की हत्याओं और भारत में छिपा हुआ नस्लभेद भारत में जाति संबंधों को जगजाहिर कर देता है. दलितों या कथित तौर पर निचली जातियों पर किए जाने वाले ये सुनियोजित और बर्बर हमले इन्हें अन्य किस्म की हिंसा से अलग करते हैं.

बातचीत के दौरान कुछ पुराने दलित कार्यकर्ताओं ने मुझे तमिलनाडु के कीजवेनमणि के बारे में बताया. 1968 में यहां जमींदारों ने 44 दलित पुरुष, महिलाओं और बच्चों को एक झोपड़ी में बंद कर जिंदा जला दिया था. चालीस के लपेटे में चल रहे इन कार्यकर्ताओं ने 1997 में बिहार के लक्ष्मणपुरबाथे के नरसंहार के बारे में बताया. यहां रणवीर सेना ने 58 दलितों की हत्या कर दी थी. इसके बाद 2000 में खैरलांजी की घटना हुई.

दिसंबर 2016 में चंद्रशेखर 29 साल के हो गए. उनके लिए दलित अत्याचार के उदाहरण रोहित वेमुला और गुजरात के ऊना जैसे मामले हैं. पीएचडी स्कॉलर रोहित वेमुला ने यूनिवर्सिटी की ओर से मुकदमा दर्ज किए जाने के बाद आत्महत्या कर ली थी, जबकि जुलाई 2016 में गुजरात के ऊना में मरे हुए जानवरों की खाल निकालने के आरोप में चार दलित युवाओं की सरेआम कोड़ों से पिटाई की गई थी. वीडियो वायरल होते ही पूरे देश में यह मामला गूंज उठा था.

घटना दर

जाति के लेकर हिंसा पूरे भारत में ही सामने आई हैं. क्लिक करके देखिए यह इंटरेक्टिव मैप, जहां सबसे ज्यादा हिंसा के मामले सामने आए हैं.

  • उत्तर प्रदेश

    2015 में इन 5 राज्यों में रजिस्टर हुए अत्याचार के सबसे ज्यादा मामले

    उत्तर प्रदेश: 8538

  • राजस्थान

    2015 में इन 5 राज्यों में रजिस्टर हुए अत्याचार के सबसे ज्यादा मामले

    राजस्थान: 6998

  • बिहार

    2015 में इन 5 राज्यों में रजिस्टर हुए अत्याचार के सबसे ज्यादा मामले

    बिहार: 6438

  • मध्य प्रदेश

    2015 में इन 5 राज्यों में रजिस्टर हुए अत्याचार के सबसे ज्यादा मामले

    मध्य प्रदेश: 4188

  • आन्ध्र प्रदेश

    2015 में इन 5 राज्यों में रजिस्टर हुए अत्याचार के सबसे ज्यादा मामले

    आन्ध्र प्रदेश: 4415

  • राजस्थान

    2015 में इन राज्यों में दलितों के खिलाफ अत्याचार के मामले में आए

    राजस्थान: 57.3

  • आन्ध्र प्रदेश

    2015 में इन राज्यों में दलितों के खिलाफ अत्याचार के मामले में आए

    आन्ध्र प्रदेश: 52.3

  • गोवा

    2015 में इन राज्यों में दलितों के खिलाफ अत्याचार के मामले में आए

    गोवा: 51.1

  • बिहार

    2015 में इन राज्यों में दलितों के खिलाफ अत्याचार के मामले में आए

    बिहार: 38.9

  • सिक्किम

    2015 में इन राज्यों में दलितों के खिलाफ अत्याचार के मामले में आए

    सिक्किम: 38.9

जाति के लेकर हिंसा पूरे भारत में ही सामने आई हैं. क्लिक करके देखिए यह इंटरेक्टिव मैप, जहां सबसे ज्यादा हिंसा के मामले सामने आए हैं.

चंद्रशेखर कहते हैं, भीम आर्मी का मकसद पूरे उत्तर प्रदेश को दलितों के खिलाफ होने वाले अत्याचार से मुक्त करना है. मैं दलितों के खिलाफ होने वाले किसी और अत्याचार के बारे में पढ़ना-सुनना नहीं चाहता. इन्हें बंद होने पड़ेंगे.

मारी बातचीत के दौरान चंद्रशेखर सामने से आ रहे बुजुर्ग को नमस्कार करने के लिए कुर्सी से उठ खड़े होते हैं. ये भीम आर्मी की माली मदद के मकसद से आते हुए लगते हैं. जूस कॉर्नर की ओर से कदम बढ़ाते हुए इस 70 साल के शख्स का नाम है राम सिंह. आंखों में कौंधती चमक वाला यह रिटायर्ड स्कूल टीचर समाज सेवा में दिलचस्पी रखता है.

सिंह कहते हैं दलितों को अंबानी या अडानी से पैसा नहीं मिलने वाला. अपने लड़कों की हमें ही मदद करनी होगी. वह भीम आर्मी को दलित युवा संगठनों की परंपरा के तौर पर ही देखते हैं, जो इस समुदाय के लिए बढ़िया काम कर रहे हैं. वह अपनी पेंशन से हर महीने 1000 रुपये दे सकते हैं. वह चंद्रशेखर की मोटरसाइकिल में पेट्रोल भरवा सकते हैं.

राम सिंह अपने कुर्ते से 500 का कड़क नोट निकालते हैं. चंद्रशेखर उनके बगल में खड़े होते हैं. भीम आर्मी के वॉट्सऐप ग्रुप के लिए एक फोटो खींची जाती है और फिर हम चल पड़ते हैं.



जातीय अत्याचार या सांप्रदायिक संघर्ष?

रविदास मंदिर में चंद्रशेखर के पहुंचते ही उत्साही लोगों की भीड़ जुट जाती है. मंदिर का गुलाबी रंग हल्का पड़ गयया है. एक मंजिला मंदिर में एक कमरे में संत रविदास की मूर्ति है. दूसरे में स्टोर. मंदिर के आंगन में अलग-अलग लाइन में लगभग 100 महिलाएं और पुरुष बैठे हैं.

मंदिर की दीवार से कुछ दूरी छाया में पुलिसवाले खाट पर पसरे हैं. यह गठेड़ा के हालत को बयां करता है. चंद्रशेखर के लिए यह ‘टेक्निकल मामला’ है.

पुजारी ने बताया कि दलित संत की मूर्ति तोड़ दी गई है. स्थानीय मुस्लिमों पर शक है. उन्होंने पुजारी को मारा और मूर्ति पर कालिख पोत दी. मुसलमानों ने कहा कि मंदिर में भजन बजने से नमाज में बाधा पहुंच रही है. यह दलितों के खिलाफ अत्याचार है या फिर सांप्रदायिक टकराव का मामला. चुनाव नजदीक हैं लिहाजा इस मामले के कई मायने हैं.

दलित और आदिवासियों का व्यापक हिंदू पहचान में खप जाने का इतिहास बड़ा जटिल है. 1996 में लिखी अपनी किताब, मैं हिंदू क्यों नहीं हूं (व्हाय आय एम नॉट अ हिंदू) में राजनीतिक सिद्धांतकार कांचा इलैया ने हिंदुत्व के दर्शन के सामने कई जटिल सवाल उठाए हैं. कांचा इलैया लिखते है-

मैं हिंदू के तौर पर पैदा नहीं हुआ. इसलिए कि मेरे माता-पिता नहीं जानते थे कि वे हिंदू हैं. मेरे माता-पिता की सिर्फ एक ही पहचान है. और वह थी उनकी जाति – कुरुमा

एनिहिलेशन ऑफ कास्ट में अंबेडकर इस विमर्श को ज्यादा सारगर्भित तरीके से उठाते हैं. जाति व्यवस्था को लेकर उनकी प्रसिद्ध टिप्पणी है – जब तक हिंदू-मुस्लिम दंगा न हो तब तक एक जाति को अन्य जातियों के साथ संबंधों का भान नहीं होता.

जातीय और धार्मिक पहचान का यह तनाव 1992 में यूपी की बाबरी मस्जिद टूटने के बाद जब-तब उभरता रहता है.

अगर गठेड़ा के पीड़ित खुद को ऐसे हिंदू समूह के तौर पर देखते, जो मुस्लिमों के हाथों सताए गए हों तो हिंदू वर्चस्ववादी मानसिकता वाली पार्टी मसलन बेजीपी और मुस्लिमो के भयादोहन पर राजनीति करने वाली समाजवादी पार्टी की राजनीति के मुफीद होता. यह मायावती के राजनीतिक अभियान के उस मूल सिद्धांत के भी खिलाफ होता, जो मुस्लिम-दलित का पैरोकार है.

लेकिन हिंदू-मुस्लिम राजनीति दलितों को नजरअंदाज करती है. दलित दोनों के सताए हुए हैं.

चंद्रशेखर बताते हैं, कानून के एक युवा छात्र के तौर पर उन्होंने आरएसएस समर्थित छात्र संगठन अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद की सदस्यता ले ली थी.

गठेड़ा गांव का पुजारी रविदास की मूर्ति के पास बैठता है, जाे 15वीं शताब्दी के महान संत थे, जिनके लिए दलितों के मन में श्रृद्धा है. नवंबर 2016 में, उनकी मूर्ति को तोड़ा गया. आरोप तीन मुस्लिम युवकों पर है, यह इलाके में साम्प्रदायिक हिंसा को हवा देने की कोशिश थी (फोटो: ऐशा पॉल/द क्विंट)

चंद्रशेखर कहते हैं जब भी मुस्लिम और दलितों में टकराव होता था, एबीवीपी तुरंत वहां पहुंच जाती थी. लेकिन जब ऊंची जाति के हिंदू छात्रों और दलितों के बीच टकराव होता, एबीवीपी का कहीं पता नहीं चलता था. इसके बाद मैंने अंबेडकर को पढ़ना शुरू किया और उन्हें महसूस हुआ कि दरअसल मैं भगवान में विश्वास ही नहीं करता.

मैं चाहता हूं कि हमारे लोग इस देश के शासक बनें. सुनिए हमारा पोडकास्ट, जिसमें भीम आर्मी के संस्थापक बताते हैं कि उनका संगठन दूसरी दलित पार्टियों और संगठनों से कैसे अलग है.

अब एक बार फिर रविदास मंदिर के मामले पर चलते हैं. चंद्रशेखर नास्तिकता पर लेक्चर नहीं देना चाहते. इसके बदले वह उन्हें कहते हैं , जो काम आपके हाथ में है उस पर ध्यान दो. बहरहाल, रविदास मंदिर वाले मामले की जांच शुरू हो चुकी है. वह लोगों को इसका ध्यान दिलाते हैं. वह कहते हैं कि उन्हें अंत तक इस मामले पर ध्यान बनाए रखना है और सांप्रदायिक राजनीति से दूर रहना है.

वह कहते हैं- "कल जब आप पर मुसीबत आई तो हम आपकी मदद को आए.

कल अगर किसी और गांव में कुछ होता है तो क्या मैं आप लोगों से वहां पहुंचने की उम्मीद करूं."

"हां." चंद्रशेखर के इर्द-गिर्द जमा लोग जोर से आवाज लगाते हैं.

चंद्रशेखर जोर से आवाज लगा कर कहते हैं – "हमें एकता बनाए रखने की जरूरत. भीम आर्मी यही करती है."



शिक्षा. आंदोलन. संगठन.

कुमारहेड़ा में बिजली चली गई है. हम मोबाइल के टॉर्च की रोशनी में बैठे हैं. पिचके गाल और कमजोर आवाज वाले तलविंदर सिंह कहते हैं- मैं इस गांव का अकेला आरएसएस सदस्य था. मेरे घर में भारत माता का पोस्टर था. श्यामा प्रसाद मुकर्जी की तस्वीर थी. मेरे पास आरएसएस का झंडा था. खाकी नेकर थी. मैं उनकी साइकिल रैलियों में शामिल होकर शाखाओं में गया. 2014 के लोकसभा चुनाव मैंने कम से कम कुमारहेड़ा 200 लोगों का वोट मोदी को दिलाया.

वर्ष 2010 में सिंह एक दवा दुकान में काम करते थे. मालिक सिंधी कारोबारी थे. वे ही उन्हें सहारनपुर के देहरादून चौक स्थित आरएसएस दफ्तर ले गए थे. सिंह को पहले तो शक हुआ लेकिन धीरे-धीरे अजीब रोमांच होने लगा. आनंद आने लगा. सिंह के लिए अपनी जाति का समर्पण बड़ी बात थी.

वे कहते थे- अपने दोस्तों से कहो हम जाति में विश्वास नहीं करते. उन्हें बताओ कि हम सब हिंदू हैं. हम सात खाते थे, पीते थे. घंटों राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय राजनीति पर बात करते थे.

सिंह बताते हैं - 2015 का साल था. एक दिन ठाकुर-ब्राह्मण महासभा के आयोजन में मैंने कुछ वरिष्ठ प्रचारकों को यह कहते सुना कि हमें सरकारी नौकरियों और शिक्षा संस्थानों में अनुसूचित जातियों के लिए लागू आरक्षण को खत्म करने की मांग करनी चाहिए.

मैंने हल्के-फुल्के अंदाज में कहा – गुरुजी हम रिजर्वेशन हटाने के लिए तैयार हैं. लेकिन पहले शिक्षा के निजीकरण को तो हटा दें. पीएम के बेटे को भी उस टूटे स्कूल में पढ़ने के लिए भेजो जहां मेहतर की लड़की पढ़ती है. प्रचारकों को इस पर गुस्सा आ गया. बात बढ़ते-बढ़ते जाति और वर्ण के व्यापक सवालों पर आ गई.

यह बताते सिंह रोने लगे. कहने लगे- उन्होंने मुझे गालियां दीं और आरएसएस दफ्तर बाहर निकाल दिया. दफ्तर में घुसने पर पाबंदी लगा दी.

अगले कुछ महीनों तक सिंह खोये-खोये से रहे. सिंह कहते हैं- मैं खुद को पहचान नहीं पा रहा था. मेरी पहचान क्या थी. मुझे पता नहीं था कि मैं अब क्या रह गया हूं. इस साल उन्होंने परिवार समेत लखनऊ के अंबेडकर मेमोरियल पार्क की यात्रा की. इसे वह तीर्थयात्रा कहते हैं.

भीम आर्मी के 15 वर्षीय शिक्षा मंत्री रोहित राज अंबेडकर के पास यूपी की वर्चस्व वाली जातियों के लिए एक सवाल है- उस समय आप लोग कहां थे, जब वे हमें पानी भी नहीं लेने देते थे? देखिये- यह पूरी स्टोरी.

सिंह कहते हैं कि मैं अंबेडकर पार्क की एक-एक मूर्ति के पास गया. मैंने बाबा साहेब, ज्योतिबा फुले का लिखा पढ़ा. हे भगवान, मुझे लगा कि मैंने अपने ही लोगों को धोखा दिया. इस अहसास के बाद मैंने भीम आर्मी में शामिल होने का फैसला किया.

एक बार फिर कुमारहेड़ा में हूं. चंद्रशेखर के एक प्रिय प्रोजेक्ट को देख रहा हूं. भीम आर्मी का पहला चलता हुआ ट्यूशन सेंटर. इसमें बड़ी क्लास के बच्चे छोटे बच्चों को पढ़ाते हैं. 27 साल के सेल्स टैक्स अफसर किशोर कुमार गौतम कहते हैं कि यहां सीनियर बच्चे जूनियर को पढ़ाते हैं और जूनियर अपने से छोटों को. गौतम नौकरी पर जाने से पहले हर सुबह दो घंटे बड़े बच्चों को प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी कराते हैं. कहते हैं- फैंसी आईएसकोचिंग संस्थानों का खर्चा हम बर्दाश्त नहीं कर सकते. हमारे वश का यही सबसे अच्छा इंतजाम है.

आरएसएस छोड़ चुके तलविंदर सिंह ने पुराने पंचायत को दोबारा पेंट कराने के लिए पैसा जुटाया है. अब यह कमरा अलग-अलग उम्र के बच्चों से भरा हुआ हुआ है. इनमें से कइयों ने लॉकेट, ताबीज पहने हुए हैं. कइयों ने कड़े पहन रखे हैं जिन पर अंबेडकर की तस्वीर लगी है.

12 साल की बच्ची अर्पण भारतीय ‘बाबा साहेब’ गीत गाती है. बताती है कि उसने यह अपने पिता के सेलफोन में लगे बाबासाहेब के थीम सांग को सुन कर सीखा है. बड़े बच्चे अपने फिजिक्स की किताब के साथ मशक्कत में लगे हैं. उनके 25 साल के शिक्षक उन्हें एक प्रेरक कहानी सुनाते हैं कि कैसे वह अपनी पढ़ाई का खर्चा जुटाने के लिए रात में बेकरी में काम करते थे.

एक कोने में लड़कों और एक लड़कियों का एक समूह पढ़ाई को लेकर अपने सपने का जिक्र करता है. उनका सपना है नौकरी पाना और इस बड़ी दुनिया में कुछ हासिल करने के लिए गांव छोड़ना. 10 साल की एक बच्ची मुझे याद दिलाती है- डॉ. अंबेडकर पढ़ाई के लिए अमेरिका तक गए. आगे बोलती है- लेकिन वे लौटे और उन्होंने हमें संविधान दिया.

च्चों ने इस लड़की की इस कहानी के लिए तालियां बजाईं. छोटी लड़की ने हाथ उठा कर नारा लगाया – जय भीम. सारे बच्चों ने जवाबी नारा लगाया –जय भीम.




साभार

क्विट लैब की पेशकश

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