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संडे व्यू: UP में युवा होंगे गेम चेंजर,क्या था बोस-गांधी का रिश्ता

पढ़िए संडे व्यू में आज के अखबारों के खास आर्टिकल

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भारत
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यूनिवर्सल बेसिक इनकम से दूर नहीं होगी गरीबी

पी चिदंबरम ने इस बार इंडियन एक्सप्रेस के अपने कॉलम में यूनिवर्सल बेसिक इनकम यानी यूबीआई की सुगबुगाहट को देखते हुए अपना नजरिया रखा है. चिदंबरम का कहना है कि सरकार यूनिवर्सल बेसिक इनकम को इसलिए लाना चाहती है कि इससे गरीबी दूर हो सके.

उसका मानना है कि एक निश्चित रकम लोगों के खाते में दे देने से गरीबी के पायदान पर खड़े लोगों में खर्च करने की शक्ति बढ़ेगी और, जिससे वे अपना जीवनस्तर सुधार सकेंगे. बराबरी के दृष्टिकोण से देखें तो यह अच्छा विचार है और मैं इसका समर्थन करूंगा.

लेकिन मेरा अब भी मानना है कि गरीबी को कम करने का सबसे कारगर विचार है आर्थिक विकास. चिदंबरम का कहना है कि 1991 के बाद से ऊंची विकास दर की वजह से भारत में गरीबी का अनुपात आधा रह गया है. देश में गरीबों की संख्या कुल आबादी की एक तिहाई रह गई है.

चिदंबरम लिखते हैं कि यह दुखद है कि बगैर व्यापक सलाह-मशविरे के ही यूनिवर्सल बेसिक इनकम जैसे विचारों को आगे बढ़ाने की कोशिश की जा रही है. लगता है कि सरकार नोटबंदी से हुई किरकिरी से बचने के लिए जल्दबाजी में इसे लाने की कोशिश कर रही है.

मेरा मानना है कि बगैर सावधानी के यूबीआई का खाका खींचा गया और इसके लिए वित्तीय संसाधन नहीं जुटाए गए तो यह फील गुड जैसा जुमला साबित होगी, जिसका गरीबी की समस्या पर कोई असर नहीं पड़ेगा.

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तमिल अस्मिता का कमजोर प्रतीक है जलीकट्टू

रामचंद्र गुहा ने इस सप्ताह हिन्दुस्तान टाइम्स में तमिलनाडु में जलीकट्टू पर प्रतिबंध के खिलाफ उभरे आंदोलन के संदर्भ में तमिल पहचान और अस्मिता की व्याख्या की है. जलीकट्टू आंदोलन के दौरान इस सप्ताह सड़कों पर उमड़े जनसैलाब में फंसने का अनुभव ले चुके गुहा तार्किक ढंग से अपनी बात रखते हैं.

उनका कहना है कि तमिलनाडु में जलीकट्टू की प्राचीन परंपरा रही है और इस आधार पर इस पर बैन के विरोध का वाजिब तर्क बनता है. जलीकट्टू का आयोजन हो सकता है लेकिन छोटे पैमाने पर . इस तरह कि न तो जानवर को चोट न पहुंचे और लोगों को शारीरिक नुकसान हो. लेकिन आंदोलन के पक्ष में जिस तरह के दावे किए जा रहे हैं वह कहीं नहीं टिकते.

यह तमिलों का विद्रोह नहीं था. यह सिर्फ कुछ जिलों में था और कुछ खास जाति के लोग ही इसका समर्थन कर रहे थे. दलित बुद्धिजीवियों ने इसका विरोध किया था. मवेशी पालन से दलितों की जीविका का नजदीकी संबंध रहा है. इसलिए उनका विरोध स्वाभाविक है.

गुहा लिखते हैं- मेरा मानना है कि जलीकट्टू को कहीं से भी सच्चे और वास्तविक तमिल पहचान से नहीं जोड़ा जा सकता. यह ठीक है कि तमिलों को अपने कला, स्थापत्य, साहित्य और संगीत की अपनी परंपरा पर गर्व होना चाहिए. लेकिन सामाजिक चेतना से लैस तमिल प्रगतिशील सामाजिक सुधारों की तमिल परंपरा से खुद को जोड़ना चाहेंगे.

वे आयोथी थास और पेरियार की परंपरा पर गर्व करना चाहेंगे. क्या जाति और लैंगिक भेदभाव से भरे और भारी सूखे के असर से जूझ रहे एक राज्य में पुरानी और शोषणकारी रवायतों का बचाव किया जा सकता है. तमिल पहचान को जलीकट्टू तक सीमित कर देना हास्यास्पद और त्रासद दोनों है. यह उसी तरह है जैसे भारतीय होने की पहचान को देश के झंडे को सम्मान देने से जोड़ देना.

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यूपी चुनाव : मोदी के लिए मुश्किल बनेंगे अधूरे सपने

टाइम्स ऑफ इंडिया में स्वामीनाथन एस अंकलसरैया ने अपने कॉलम स्वामीनोमिक्स में नोटबंदी के बाद बैंकों के पास आए अतिरिक्त रुपयों के लोगों के बीच बांटने का सवाल उठाया है. हालांकि उनका यह भी कहना है यूपी चुनाव का फैसला न तो नोटबंदी की कीमत करेगी और न ही वोटरों को दिए जाने वाले सौगात करेंगे. चुनाव में सबसे अहम भूमिका मोदी की छवि होगी.

उन्हें एक ऐसे नैतिक योद्धा की तरह देखा गया है जो भारत को बदल कर रख देगा . 2014 में उन्होंने इस छवि की बदौलत चुनाव जीते थे. उस दौरान उन्होंने कुछ सपने बेचे थे. पहला, रोजगार में बढ़ोतरी का सपना जो तेज आर्थिक बढ़ोतरी से संभव है.और दूसरा साफ-सुथरी सरकार की गारंटी, जो पुरानी भ्रष्ट राजनीति के खात्मे से संभव है. मोदी अब तक इन दोनों मोर्चों पर नतीजे देने में नाकाम रहे हैं. इंदिरा गांधी का गरीबी हटाओ और वीपी सिंह के 1989 के बोफोर्स के खिलाफ अभियान ने दोनों को फौरी चुनावी फायदे दिलाए थे.

हालांकि सपनों को बेचने के मामले में मोदी इंदिरा और वीपी सिंह दोनों से बेहतर हैं और योजनाओं को लागू करने में भी वह ज्यादा अच्छे हैं. लोगों के सपनों को सचाई में न बदल पाने की वजह से यूपी का मोर्चा मोदी के हाथ से निकल सकता है.

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राजनीति में युवा : यूपी बन सकता है गेम चेंजर

हिन्दुस्तान टाइम्स में चाणक्य ने राजनीति में युवा नेताओं की बढ़ती भागीदारी की वकालत करते हुए लिखा है कि राजनीति में युवा नेताओं के आगमन के संदर्भ में यूपी में अखिलेश यादव का उदाहरण नई राह दिखाएगा.

यूपी में समाजवादी पार्टी के युवा और बुजुर्ग नेतृत्व की लड़ाई में अखिलेश ने बाजी जीत ली और उनके साथ अब युवा कांग्रेस उपाध्यक्ष भी गठबंधन की कोशिश करते दिख रहे हैं. हालांकि अखिलेश और राहुल दोनों वंशवादी राजनीति की उपज हैं लेकिन दोनों इसे अपनी तरफ से बढ़ाने की कोशिश करते नहीं दिखते. उम्मीद है कि राजनीति में इन युवाओं के वर्चस्व के बाद माहौल कुछ अच्छा होगा.

चाणक्य लिखते हैं- अन्नाद्रमुक, शिवसेना, बीजू जनता दल से लेकर तृणमूल तक किसी ने भी नई पीढ़ी की विरासत तैयार नहीं की है. उम्मीद है कि यूपी में अखिलेश का उदाहरण दूसरी पार्टियों में युवाओं को अपना हक लेने को प्रेरित करेगा. अमेरिका में केनेडी जिंदगी के तीसरे दशक मे राष्ट्रपति बन चुके थे. क्लिंटन और ओबामा राष्ट्रपति बनने के समय उम्र के चौथे दशक में थे.

ब्रिटेन में टोनी ब्लेयर और डेविड कैमरन भी इसी उम्र में थे. कनाडा में जस्टिन ट्रुडे का उदाहरण सामने है . लेकिन भारत में राजीव गांधी के बाद कोई युवा नेता शीर्ष पद पर नहीं दिखा. हम जाति और वर्ग के समीकरण में उलझे भारतीय राजनीति में नएपन की बात करते हैं लेकिन यह तब तक नहीं होगा जब तक इसमें नई प्रतिभा, नई सोच और नए विचार नहीं आएंगे.

देश की राजनीति को ताजी हवा की जरूरत है. और इसमें ताजगी युवाओं की ऊर्जा और जोश से ही आएगी. इस लिहाज से देखें तो यूपी इसमें गेम चेंजर साबित हो सकता है.

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पुरानी दुनिया में जी रहा है भारत

इंडियन एक्सप्रेस में वरिष्ठ पत्रकार तवलीन सिंह ने दावोस में आयोजित वर्ल्ड इकोनॉमिक फोरम में चीन को दिए जा रहे तवज्जो का जिक्र करते हुए कहा है कि उन्हें आशंका है कि भारत आर्थिक तरक्की का एक और मौका न खो दे.

दावोस में उन्हें एक जगह मेक इन इंडिया का लोगो दिखा था. इसे देखने के बाद तवलीन कहती हैं- दुनिया चौथी औद्योगिक क्रांति की बात कर रही है और यहां हम मैन्यूफैक्चरिंग में ही पिछड़ रहे हैं. चौथी औद्योगिक क्रांति डिजिटाइजेशन और रोबोटिक्स की वजह से हाथ के रोजगार की कमी वाला दौर होगा. चीन ने 20 साल पहले मैन्यूफैक्चरिंग क्रांति शुरू की थी और उसने इसका एक चक्र पूरा कर लिया है.

हमारे यहां मैन्यूफैक्चिरंग को मजबूती देने वाला इन्फ्रास्ट्रक्चर भी नहीं है. भारत को इन्फ्रास्ट्रक्चर के लिए काफी पैसा चाहिए. इसके लिए काफी निजी निवेश चाहिए. और देश में ऐसा माहौल बनाया जा रहा है, जिसमें यह काम मुश्किल लग रह है.

तवलीन लिखती हैं- दावोस में सोलर टेक्नोलॉजी और मेडिकल साइंस में होलोग्राम पर एक सेशन में हिस्सा लेते हुए मुझे लगा कि मैं किसी दूसरे ग्रह से आई हूं. दुनिया काफी बदल चुकी है लेकिन अफसोस भारत अभी भी उसी पुरानी दुनिया में जी रहा है.

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ट्रंप की चुनौतियां

एशियन एज में यूपीए सरकार में मंत्री रह चुके मनीष तिवारी लिखते हैं- डोनल्ड ट्रंप व्हाइट हाउस में पधार चुके हैं. इमिग्रेशन, इस्लामी कट्टरता और चीन के हाथों अमेरिका की मैन्यूफैक्चरिंग क्षमता गंवाने जैसे मुद्दों पर देश के वोटरों को झकझोरने के बाद ट्रंप सरकार में क्या करेंगे, यह देखना दिलचस्प होगा.

लेकिन ट्रंप के सामने चार मुश्किल मोर्चें हैं जिन पर जूझना अमेरिका के लिए आसान नहीं होगा. पहला दक्षिण पूर्वी एशिया का मोर्चा. अगर वह यहां अमेरिका की मजबूत मौजूदगी का अहसास नहीं कराते तो चीन यहां हावी होगा और ऑस्ट्रेलिया, भारत, जापान, दक्षिण कोरिया और दक्षिण चीन सागर से सटे देशों के लिए मुश्किल होगी. दूसरा मोर्चा पश्चिम एशिया या मध्य पूर्व का है, जहां खैबर दर्रे से लेकर उससे दूर भारत और पाकिस्तान की वाघा सीमा तक ट्रंप के लिए बेहद उलझे समीकरण मौजूद हैं. इजराइल और फिलीस्तीन संघर्ष का समाधान निकालने की इच्छा जता चुके ट्रंप क्या भारत-पाकिस्तान मामले में भी अमेरिकी दखल की पहल करेंगे.

यह भी देखना होगा कि ट्रंप प्रशासन पेरिस समझौते पर क्या रुख अपनाता है. ट्रंप का तीसरा मोर्चा परमाणु अप्रसार का होगा. ट्रंप का चौथा मुश्किल मोर्चा साइबर सिक्यूरिटी का है. अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव में अमेरिका को साइबर सिक्यूरिटी के सवाल पर जूझना पड़ा है. कुल मिलाकर, ट्रंप के लिए यह दुनिया पहले से बिल्कुल अलग होगी.

अब देखना होगा कि सुबह-सुबह ट्रंप के दफ्तर से जो ट्वीट किया जाता है वह उनकी निजी राय है या फिर आतंरिक एजेंसियों की ओर से चलाए जाने वाले अमेरिकी प्रशासन का सलीके से तैयार किया गया नजरिया. साफ है कि आने वाले दिन बेहद दिलचस्प होंगे.

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बोस और गांधी के रिश्तों का सच

23 जनवरी को देश सुभाष चंद्र बोस की जयंती मनाएगा. इतिहासकार और स्तंभकार रामचंद्र गुहा ने इसकी पूर्व संध्या पर महात्मा गांधी और सुभाष चंद्र के बीच के संबंधों की पड़ताल की है. कोलकाता से प्रकाशित ‘द टेलीग्राफ’ में लिखे अपने लेख में गुहा ने कहा है कि आम लोगों के बीच सुभाष और गांधी के बीच राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता और वैर की बातें होती रहती हैं.

लेकिन इतिहास में ऐसे पुख्ता सबूत मौजूद हैं जो दोनों के बीच प्रतिद्वंद्विता और वैर के मिथक को ध्वस्त कर देते हैं. गांधी ने 1939 में सुभाष के दोबारा कांग्रेस अध्यक्ष चुने जाने का विरोध किया था. लेकिन सुभाष ने गांधी को स्वतंत्रता संग्राम का महान नायक माना था. सुभाष ने साफ कहा था- मेरे लिए यह त्रासदी होगी कि मैं अन्य लोगों का समर्थन तो हासिल कर लूं लेकिन भारत के महानतम व्यक्ति (महात्मा गांधी ) का विश्वास हासिल न कर पाऊं.

यहां तक कि सुभाष ने आईएनए के तीन ब्रिगेड में से एक का नाम महात्मा गांधी ब्रिगेड रखा था. गांधी ने आईएनए के नारे जय हिंद की तारीफ की थी. सुभाष को याद करते हुए उन्होंने कहा था- मैं बलिदान की उनकी क्षमता से हमेशा वाकिफ था. लेकिन उनकी संगठन, संसाधन जुटाने की क्षमता और सैन्य रुझान के बारे में देश से उनके जाने के बाद ही पता चला. मैं और सुभाष सिर्फ आजादी हासिल करने के साधन पर ही अलग-अलग मत रखते हैं.

बाद में गांधी ने आईएनए के एक सेनापति कैप्टन शाहनवाज खान की बिहार के दंगा पीड़ितों के लिए किए गए काम की जम कर तारीफ की. बहरहाल, भाजपा और संघ के लोग बोस के बारे में जो प्रचार कर रहे हैं वे बिल्कुल मनगढ़ंत हैं. बोस पर उनका दावा नक ली है.

उसी तरह कांग्रेस का दावा भी. ठीक उसी तरह सिर्फ बोस के बंगाली होने से तृणमूल का उन पर कोई हक नहीं बनता. बोस और उनकी ओर से बहुप्रशंसित नेता महात्मा गांधी हर भारतीय के हैं.

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