ADVERTISEMENTREMOVE AD

संडे व्यू: अच्छा नहीं है नेताओं का ट्वीट करना, UP में है बुरा दौर

संडे व्यू में पढ़िए देश के बड़े अखबारों के बेस्ट आर्टिकल्स

Published
भारत
6 min read
story-hero-img
i
छोटा
मध्यम
बड़ा
Hindi Female

अच्छा नहीं है नेताओं का ट्वीट करना

करन थापर ने हिन्दुस्तान टाइम्स में राजनेताओं के ट्वीटर पर टिप्पणी करने को लेकर चिंता जताई है. करन लिखते हैं कि ट्वीटर पर अपनी बात कह हमारे नेता भी पाकिस्तान के नक्शे कदम पर चल पड़े हैं. वहां भी राजनेताओं को ट्वीटर की लत लग गई है और वो भी इसके जरिये लोगों से एकतरफा संवाद करते हैं.

करन थापर ने आतंकवाद के पाकिस्तानी विशेषज्ञ अहमद राशिद के उस लेख का हवाला दिया है, जिसमें उन्होंने नवाज शरीफ और आर्मी चीफ को ट्वीटर का बंदी करार दिया है. उन्होंने शरीफ के शासन को ट्वीट का शासन करार दिया है. करन लिखते हैं कि ट्वीटर की वजह से कोई भी किसी संवाद को कहीं से भी हासिल कर सकता है. बस उसके पास स्मार्टफोन होना चाहिए.

लेकिन इसकी गंभीर खामियों के बारे में शायद ही बात की जाती है. राशिद के लेख का हवाला देते हुए वह कहते हैं-पाकिस्तान में नेताओं की ओर से ट्वीटर के इस्तेमाल की वजह से प्रेस की आजादी को खतरा पैदा हो गया है. ट्वीटर पर संवाद करने की वजह से नेता मीडिया के सवालों से बच जाते हैं. इस वजह से पारदर्शिता का अभाव देखने को मिलता है. और सरकार की ओर से एक अघोषित सेंसर सामने आ जाता है. सरकार जो नहीं चाहती वह नहीं बताती है. भारत में भी यही स्थिति हो सकती है. जरा अपने पीएम के बारे में सोचिए जो ट्वीट करने में माहिर हैं. वह सिर्फ अपने भरोसेमंद कुछ पत्रकारों को ही इंटरव्यू देते हैं.

ADVERTISEMENTREMOVE AD

ड्राइव इन इंडिया को नारा बनाइए

टाइम्स ऑफ इंडिया में स्वामीनाथन एस.अंकलसरैया ने भारतीय ट्रक ड्राइवरों के खराब हालात का जिक्र करते हुए कहा है कि अगर उनके कामकाज में सुधार की कोशिश की जाए, ट्रक ड्राइविंग सेक्टर बड़ी तादाद में रोजगार पैदा कर सकता है. उनके काम को ज्यादा गरिमामयी बनाना होगा. ट्रक में रोजगार को गरिमापूर्ण और सामाजिक रूप से ज्यादा स्वीकार्य बनाना होगा.

खेत-बारी, निर्माण और ट्रकिंग के क्षेत्र मे कामगारों की कमी हो रही है क्योंकि इन्हें सम्मान नहीं मिलता. स्वामीनाथन ट्रकिंग के नए मॉडल का जिक्र करते हुए कहते हैं कि इस सेक्टर को ज्यादा आकर्षक बनाया जाए खासी तादाद में रोजगार पैदा किए जा सकते हैं. उन्होंने ट्रकिंग के रिले मॉडल का जिक्र किया है, जिसमें ड्राइवरों को कम घंटे काम करने पड़ते हैं और उनका समय कम लगता है. उन्होंने मेक इन इंडिया की जगह ड्राइव इन इंडिया का नारा दिया है.

स्वामीनाथन लिखते हैं- दिल्ली से मुंबई की दूरी नापने के लिए ट्रक ड्राइवरों को 80 लीटर डीजल मिलते हैं. ईंधन बचाने के लिए वे 45 किलोमीटर की स्पीड से चलते हैं. जिससे ईंधन बचे जिसे वे बेच सकें. इस चक्कर में ट्रक मंजिल तक देर से पहुंचते हैं और सामान की डिलीवरी में देरी होती है. इससे निर्यात की हमारी प्रतिस्पदर्धा कम हो जाती है.

0

यूपी का बुरा दौर

दैनिक जनसत्ता में ही तवलीन सिंह ने उत्तर प्रदेश लगातार पिछड़ते जाने पर चिंता व्यक्त की है. वह लिखती हैं- उत्तर प्रदेश के चुनाव अभियान में इतनी सारी बेकार बातें हुई हैं कि उसमें वह बात सुनाई नहीं दी, जो सबसे महत्त्वपूर्ण थी. जहां भारत के बाकी राज्यों में बेहतरी के आसार दिखते हैं, उत्तर प्रदेश में बदतरी के दिखते हैं.

उत्तर प्रदेश में विकास और आधुनिकता के आने से वहां के आम लोगों को कोई लाभ नहीं पहुंचा है. देहातों में न सड़कों का हाल अच्छा है, न स्कूलों का, न स्वास्थ्य केंद्रों का, न अस्पतालों का और न ही यहां स्वच्छ भारत अभियान से कोई फर्क पड़ा है.

दोष सिर्फ राज्य सरकार के सिर नहीं थोपा जा सकता, क्योंकि उत्तर प्रदेश ने मोदी को पूर्ण बहुमत तिहत्तर सांसद देकर दिया था 2014 में. प्रधानमंत्री के आदर्श गांव जयापुर से मैं जब बनारस गई तो और भी मायूस हुई. इस शहर का हाल वही है, जो पहले था. घाटों पर थोड़ी-बहुत सफाई जरूर हुई है, लेकिन अंदरूनी शहर में दिखती हैं वही गंदी गालियां, वही सड़ते कूड़े के ढेर और वही गंदी नालियां, जिनके किनारे बच्चे शौच करते दिखते हैं. उत्तर प्रदेश में विकास और परिवर्तन लाना आसान नहीं है, लेकिन प्रधानमंत्री का कहना बिलकुल ठीक है कि इस राज्य में परिवर्तन लाए बिना भारत भी आगे नहीं बढ़ सकेगा.

ADVERTISEMENTREMOVE AD

उच्च शिक्षा का बुरा हाल

हिंदी दैनिक जनसत्ता के कॉलम दूसरी नजर इस बार पी. चिदंबरम ने उच्च शिक्षा के हालात पर अपना रुख जाहिर किया है. वह लिखते हैं- यह एक अलिखित नियम है कि इस दुनिया में कम से कम एक क्षेत्र ऐसा है जहां दखलंदाजी हरगिज नहीं होनी चाहिए. यह क्षेत्र विश्वविद्यालय का है. कोई भी भारतीय विश्वविद्यालय विश्व के सर्वोत्तम दो सौ या उससे आगे की सूची में ही है.

यह एकमात्र उपलब्धि दरअसल चिंता का विषय होनी चाहिए. इसके पीछे पैसे की तंगी को मुख्य बाधा के तौर पर चिह्नित किया गया है. कम आवंटन समेत सारी बाधाएं न सिर्फ बनी रही हैं बल्कि और विकट हुई हैं. अधिकतर विश्वविद्यालयों में शिक्षण का स्तर बहुत खराब है और शोध-कार्य बहुत कम होते हैं या न के बराबर. आज कोई भी भारतीय विश्वविद्यालय गुणवत्ता के पैमाने पर खरा न उतरने के आरोप से बच नहीं सकता.

यह एक चमत्कार ही है कि सैकड़ों विद्यार्थी जो प्रारंभिक ज्ञान हासिल करते हैं वह उनकी देशज प्रतिभा और कठिन श्रम करने की तैयारी से जुड़ कर उन्हें विदेश के एक प्रतिष्ठित विश्वविद्यालय में पहुंचा देता है, जो उन्हें एक संभावनाप्रद कैरियर की तरफ ले जाता है. यह दुर्भाग्यपूर्ण मगर सच है कि भारतीय विद्यार्थी अपना श्रेष्ठतम तलाश पाते हैं, तो मौजूदा विश्वविद्यालयी व्यवस्था के सहारे नहीं, बल्कि खंडित व्यवस्था के बावजूद. यह एक ऐसा क्षेत्र है जहां सुधार की सख्त जरूरत है.

ADVERTISEMENTREMOVE AD

किसने की शुरुआत

अमर उजाला में रामचंद्र गुहा ने कट्टरपंथियों के आगे बेबस साहित्यकारों, बुद्धिजीवियों और उन्हें कट्टरपंथियों के विरोध से बचाने में सरकारों की नाकामी का जिक्र कि या है. आमतौर पर लेखकों और बुद्धिजीवियों को आक्रांत करने के लिए दक्षिणपंथी अराजक तत्वों को दोषी ठहराया जाता है. लेकिन गुहा ने याद दिलाया है कि राजीव गांधी की सरकार ने ही ईरान से पहले भारत में द सैटनिक वर्सेज को प्रतिबंधित किया था.

साहित्यप्रेमी कम्युनिस्ट मुख्यमंत्रियों ने ही सबसे पहले तसलीमा नसरीन की किताबों पर प्रतिबंध लगाया था और उन्हें पश्चिम बंगाल से बाहर निकाला था. गुहा लिखते हैं हिंदुत्ववादियों, शिवसैनिकों और जातिवादियों ने इसी असहिष्णुता को आगे बढ़ाया है इसे हिंसक बना दिया है लेकिन इसकी शुरुआत कांग्रेस और वाम ने की. वास्तव में अतीत की वामपंथी हठधर्मिता ने आज की दक्षिणपंथी कट्टरपंथी कट्टरता को सक्षम बनाया है और बढ़ावा दिया है.

वह लिखते हैं- लेखकों अध्येताओं और कलाकारों को हमलावर राजनीतिक संरक्षणवादियों से घबराना नहीं चाहिए और न ही उन्हें यह कहना चाहिए कि सिर्फ उनके सैद्धांतिक सहोदरों को ही पूरी बौद्धिक या रचनात्मक स्वतंत्रता प्राप्त है.

ADVERTISEMENTREMOVE AD

असहिष्णु देश बनता जा रहा है भारत

एशियन एज में पवन के. वर्मा दिल्ली के रामजस में छात्रों की अभिव्यक्ति दबाए जाने से पैदा विवाद का जिक्र करते हुए कहते हैं भारत तेजी से एक असहिष्णु देश बनता जा रहा है. वह लिखते हैं- मैं मानता हूं कि हमारे देश में बहुत सारे लोग उमर खालिद से सहमत नहीं होंगे. लेकिन मुझे समझ में नहीं आता कि चूंकि लोग उससे असहमत है इसलिए उसे बोलने नहीं देंगे. मुझे यह भी मंजूर नहीं कि देशभक्ति होने की परिभाषा को कुछ लोग बंधक बना ले.

उन्होंने लिखा है- जिस आरएसएस ने आजादी के आंदोलन ने हिस्सा नहीं लिया और ब्रिटिश राज की ओर से उसे अच्छे व्यवहार के लिए सर्टिफिकेट दिया वही अब देशभक्ति का पाठ पढ़ा रहे हैं. पवन लिखते हैं- लोकतंत्र का मतलब यह नहीं है कि हम कितने चुनाव कराते हैं. लोकतंत्र का मतलब ऐसी व्यवस्था से है जिसमें लोकतांत्रिक मिजाज पनपे.

लेकिन दुर्भाग्य से भारतीयों का जो एक नया वर्ग पनप रहा है वह तेजी से असहिष्णु होता जा रहा है. यह नया भारतीय सोचता है कि जो वह कह रहा है वही सही है. अगर कोई दूसरी बात कहता है जिससे वह सहमत नहीं है तो उसे मार-पीट कर चुप कराया जा सकता है. निश्चित तौर पर संविधान ने तो इस असहिष्णुता की राह नहीं दिखाई थी.

ADVERTISEMENTREMOVE AD

चुनावों में नदारद महिलाओं के मुद्दे

हिन्दुस्तान टाइम्स में ललिता पणिकर ने विधानसभा चुनावों में महिलाओं का मुद्दा न उठाने के लिए राजनीतिक पार्टियों को आड़े हाथ लिया है. उन्होंने लिखा है- कोई भी राजनीतिक पार्टी महिलाओं के मुद्दे नहीं उठा रही है.

नेता गधों, श्मशान घाट, कब्रिस्तान, प्रॉपर्टी और सर्जिकल स्ट्राइक की बात कर रहे हैं लेकिन महिलाओं के मुद्दे नहीं उठा रहे हैं. जबकि यूपी जैसे राज्य में महिलाओं की स्थिति बेहद खराब है. मातृ मृत्यु दर से लेकर, साक्षरता, बुनियादी सुविधाओं से लेकर उनकी सुरक्षा तक में यूपी का रिकार्ड बेहद खराब है. लेकिन आश्चर्य की बात है कि महिलाओं के मुद्दों की बात कोई नहीं कर रहा है. जयललिता हों या मायावती या ममता, सभी ने अच्छा काम किया है.

हम अक्सर महिलाओं की भलाई के लिए प्रतीकात्मक बातें करते हैं, मसलन शराबबंदी ने उनका कितना भला किया. लेकिन उनकी भलाई के लिए अन्य ठोस कदम उठाने से परहेज करते हैं.

(हैलो दोस्तों! हमारे Telegram चैनल से जुड़े रहिए यहां)

सत्ता से सच बोलने के लिए आप जैसे सहयोगियों की जरूरत होती है
मेंबर बनें
अधिक पढ़ें