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2022 में जब देश बुलेट ट्रेन दौड़ाएगा, दुनिया कहां पहुंच चुकी होगी

क्या भारत तकनीक का कूड़ाघर है?

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भारत
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भारत तैयार हो रहा है. बुलेट ट्रेन में सवारी के लिए. गोली की रफ्तार के लिए. थोड़ा इंतजार और. मतलब थोड़ा लंबा! साल होगा 2022, महीना होगा अगस्त और आप मुंबई से अहमदाबाद तक का 509 किलोमीटर का सफर महज 2 घंटे में कर सकेंगे. सुनने में, सोचने में, पढ़ने में ये अच्छा लगता है. लगता है देश विकास के मायने बदल रहा है. विकास के एक्सीलरेटर पर पांव पूरा दबा सा लगता है. फिर दिक्कत क्या है?

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दिक्कत ये है कि बुलेट ट्रेन कम से कम विकास की पटरी पर तेज नहीं धीमी लगने लगती है. दुनिया की पहली बुलेट ट्रेन आई जापान में. साल था 1964. चीन भी 10 साल से बुलेट दौड़ा रहा है. फ्रांस, इटली, जर्मनी, साउथ कोरिया भी. फिर भारत क्यों एक ऐसी तकनीक, इतने सालों के बाद, हजारों करोड़ में खरीदकर इस्तेमाल करना चाहता है? सच पूछिए तो करीब एक लाख करोड़ से कुछ ऊपर. इसमें से ज्यादातर हिस्सा लोन होगा. उसी जापान से जो बुलेट ट्रेन चलाने में भारत की मदद करने वाला है. पर बड़ा सवाल ये है कि 2022 तक दुनिया कहां पहुंच चुकी होगी और भारत 320 किलोमीटर की रफ्तार से बुलेट ट्रेन चला रहा होगा.

ठीक वैसे ही जैसे दुनिया 5जी से पार जाने की दिशा में बढ़ रही है और हम 4जी इंटरनेट भी ठीक से नहीं चला पा रहे. कहीं रफ्तार की सड़क पर बड़ा फैसला कोई चूक तो नहीं? आइए समझते हैं कि दुनिया भर में बुलेट ट्रेन अभी कहां है और आने वाले वक्त में कहां पहुंचने वाली है.
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अप्रैल 2015 में जापान ने मैग्नेटिक लेविटेशन यानी मैग्लेव ट्रेन या आसान जुबान में बुलेट ट्रेन का टेस्ट किया. सात बोगी वाली इस ट्रेन ने टॉप स्पीड के मामले में वर्ल्ड रिकॉर्ड कायम कर दिखाया. जानते हैं ये ट्रेन कितने किलोमीटर की टॉप स्पीड पर पहुंची. 603 किलोमीटर प्रति घंटा. छह सौ तीन. सही पढ़ा आपने. और ये दो साल पहले हो चुका है. हम 2022 के लिए 320 किलोमीटर प्रतिघंटे की बात कर रहे हैं

क्या भारत तकनीक का कूड़ाघर है?

जापान को बुलेट ट्रेन चलाते 50 साल हो चुके हैं. जापान के नाम करीब 2700 किलोमीटर का नेटवर्क है. जापान में बुलेट ट्रेन शिंकांसेन के नाम से जानी जाती है. शिंकांसेन के 50 साल लंबे इतिहास में एक भी बड़ा ट्रेन हादसा दर्ज नहीं है.

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चलो, जापान को मानकर चला जाता है न...तकनीक का शहंशाह. पड़ोस में चलते हैं. चीन में. चीन ने महज कुछ साल पहले ही हाई स्पीड रेल की शुरुआत की. कुछ-कुछ शुरूआत 90 के दशक के खत्म होते-होते हो गई थी लेकिन सही मायने में रफ्तार पकड़ी 2007 में. लेकिन सिर्फ 10 साल में चीन कहां से कहां पहुंच गया. स्पीड के मामले में भी और रेल नेटवर्क के मामले में भी. चीन में बुलेट ट्रेन की टॉप स्पीड है 430 किलोमीटर. और हाई स्पीड रेल नेटवर्क पहुंच गया 22 हजार किलोमीटर पर. ये दुनिया के कुल हाई स्पीड रेल नेटवर्क का करीब 60 फीसदी है. खास बात ये है कि बुलेट ट्रेन चलाने के लिए चीन ने किसी देश की मदद नहीं ली. सब खुद के दम पर किया.

509 किलोमीटर का ट्रैक बिछाने के लिए देश को 1 लाख करोड़ खर्च करना पड़ रहा है. ऐसे में 22 हजार किलोमीटर ट्रैक तो छोड़िए, 5 या 10 हजार किलोमीटर ट्रैक के बारे में सोचना भी बेमानी लगता है.
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फ्रांस आज से 10 साल पहले ही 574 किलोमीटर की टॉप स्पीड हासिल कर चुका है. हालांकि ये सिर्फ एक टेस्ट था. लेकिन, टेस्ट के बाद ही चीजें जमीन पर उतरती हां. यानी माना जा सकता है कि फ्रांस आने वाले कुछ सालों में इस स्पीड पर ट्रेन दौड़ाए. इटली में जो बुलेट ट्रेन चल रही है वो अब भी कुछ लाइन पर 360 किलोमीटर की रफ्तार भर रही है. फिर याद कर लीजिए कि भारत 2022 में 320 किलोमीटर स्पीड वाली मेट्रो दौड़ाने जा रहा है.

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इन तमाम एशियाई और यूरोपीय देशों के उदाहरणों से साफ है कि हमने बहुत देर कर दी है. कहा तो ये भी जा सकता है कि देर आए, दुरुस्त आए. लेकिन भारत के मामले में ये इसलिए खारिज हो जाता है कि यहां मौजूदा नेटवर्क को संभालने में ही पसीना आ रहा है. शताब्दी, राजधानी या गतिमान क्या अपनी सही स्पीड से चल पा रही हैं? करीब महीने भर में ही चार हादसे ये बताते हैं कि बुलेट ट्रेन एक सपना तो हो सकता है लेकिन इस सपने को जमीन पर उतारने के लिए जो खर्च किया जा रहा है, उसकी कीमत देश को कई और मोर्चों पर चुकानी पड़ सकती है.

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सवाल ये है कि क्या भारत पूरी दुनिया की तकनीक का कूड़ाघर है? जहां तमाम देश अपनी तकनीक खपा कर, पैसा कमाकर निकल जाते हैं. क्या इसरो को छोड़कर बाकी संस्थान वो लक्ष्य हासिल करने में चूक रहे हैं जो खुद के दम पर देश को जरूरी क्षेत्रों में तकनीक के स्तर पर मजबूत कर सकें? इन सवालों का जवाब ढूंढ़ना भी जरूरी है.

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