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CBI हो या RBI, मैं सरकार हूं, ये मेरी मर्जी से ही चलेंगे भाई!

मैं हूं सरकार. सीबीआई डायरेक्टर को मैं चुन सकता हूं और हटा भी सकता हूं.

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मैं सरकार हूं. जनता की नब्ज मैं समझता हूं. चुनावों में इतना सिर-फुटौवल इसीलिए थोड़े ही करता हूं कि कोई गवर्नर या कोई डायरेक्टर ऑटोनोमी के नाम पर हमसे ऊंची आवाज में बात करने की जुर्रत करे. इतनी मजाल! ऑटोनोमी क्या होती है भाई?

मैं सरकार हूं. क्या मीडिया को अपनी मर्जी से खबरें छापने की इजाजत दे दूं? क्या पुलिस को कानून-व्यवस्था बनाए रखने के लिए खुली छूट दे दूं? चुनाव आयोग को मनमानी करने दूं? सीएजी को कुछ भी ऑडिट करने दे दूं? ट्रांसफर-पोस्टिंग को पूरी तरह पारदर्शी कर दूं? इनकम टैक्स डिपार्टमेंट का इस्तेमाल न करूं? सीबीआई को अपने-आप सारे मामले सुलझाने दूं? ट्राई और आईआरडीए मनमानी करते रहें और मैं चुप रहूं?

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वाह भाई, वाह! तो मैं क्या संन्यास ले लूं. चैरिटी खोल दूं. सब अगर अपनी मर्जी से काम करेंगे, तो सरकार का क्या काम? चुनाव जीतने के लिए इतनी मेहनत क्यों करूं, अरबों रुपये क्यों खर्च करूं. एक एनजीओ न खोल लूं और समाजसेवा में लग जाऊं.

चुनाव का क्या मतलब, अगर जीतने वालों के इशारे पर सब न नाचें. जनता के प्रतिनिधि के हुक्म को तो सबको मानना अनिवार्य है. इसमें कोई कंफ्यूजन नहीं होना चाहिए. है कि नहीं?

मैं हूं सरकार. संस्था बनाना, बिगाड़ना मेरा काम है. थोथली तर्क से मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता है. बोलते हैं कि चुनाव आयोग का स्वायत्त होना जरूरी है, नहीं तो निष्पक्ष चुनाव कैसे होंगे. चुनाव में धांधली होगी और जनता का प्रतिनिधि वही चुना जाएगा, जो सबसे ज्यादा धांधली करेगा. लोकतंत्र के लिए चुनाव आयोग का स्वतंत्र और निष्‍पक्ष होना बेहद जरूरी है, नहीं तो चुनाव कराने का कोई मतलब नहीं बचेगा.

एक मिनट के लिए मैं मान भी लूं कि चुनाव आयोग का स्वायत्त होना बेहद जरूरी है. लेकिन मेरा क्या. मैं सरकार हूं सबसे ऊपर, संप्रभु. चुनाव आयोग हमारी बातों की अनदेखी कैसे कर सकता है. इसकी वजह से चुनाव निष्पक्ष न हों मेरा क्या. मैं एलेक्ट हुआ हूं और मुझे तो राज करना है.

मैं हूं सरकार. रिजर्व बैंक को मैं अपनी उंगली पर नचाऊंगा. बैंकिंग सेक्टर मेरे इशारे पर चलेगा. यह कौन-सी दलील है कि सेक्टर रेगुलेटर यानी आरबीआई की स्वायत्तता बेहद जरूरी है. ऐसा इसीलिए कि बैंकों का राजनीतिकरण न हो, फैसले सेक्टर की जरूरत के हिसाब से हों, लोन केवल चहेतों को न बांटा जाए और जरूरतमंदों को भगा दिया जाए.

ब्याज की दर सेक्टर की जरूरत, बाजार के माहौल और महंगाई दर के हिसाब से तय हों, इसीलिए नहीं कि चुनाव आने वाले हैं और सस्ती ब्याज दर से वोटरों को खुश किया जाए. फैसलों का राजनीतिकरण होगा, तो बैंक डूब जाएंगे और इकनॉमी बर्बाद हो जाएगी. बैंकिंग सेक्टर एक्सपर्ट का काम है और इसे उन्हीं के हवाले छोड़ दिया जाए.

अरे, कैसी बकवास दलीलें हैं! मैं स्वयंभू हूं. मुझसे ज्यादा कौन जानता. आरबीआई एक्ट के क्लाउज को छोड़िए, जिसको आजाद भारत में कभी यूज नहीं किया गया, ताकि इसकी स्वायत्तता बरकरार रहे. मैं सरकार हूं, इसीलिए सर्वशक्तिमान हूं. एक्ट-वेक्ट इसके आड़े आ ही नहीं सकता.
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मैं हूं सरकार. सीबीआई डायरेक्टर को मैं चुन सकता हूं और हटा भी सकता हूं. मेरी मर्जी. मैं सर्वशक्तिमान हूं, तो स्वाभाविक है कि मेरी इजाजत के बगैर यह कैसे तय हो सकता है कि किसके खिलाफ जांच हो सकती है और किसके खिलाफ नहीं. जांच की दिशा मैं क्यों नहीं तय कर सकता हूं?

कहने वाले कहते रहें कि सीबीआई का पॉलिटिकल इस्तेमाल होता है, राजनीतिक विरोधियों को चुप कराने का यह हथियार बन गया है. और अगर इसकी स्वायत्तता नहीं बची, तो देश में मामलों की निष्पक्ष जांच के बारे में भूल जाइए. यह सब बकवास. मैं सरकार हूं, तो डायरेक्शन मैं नहीं दूंगा, तो और कौन देगा?

संस्थाओं की ऑटोनोमी एक नया जुमला बन गई है. इस जुमले से मुझे सख्त नफरत है. मेरी सरकार, मेरा राज. मैं यहां संस्थाओं को हेल्दी बनाने नहीं आया हूं. वो मजबूत हों या कमजोर, मेरा क्या. मेरा काम है राज करना. इसके रास्ते में आने वाली रुकावटें हटाने से संस्थाएं कमजोर होती हैं, तो मेरी बला से. ये मेरा सिरदर्द कतई नहीं हो सकता है.

(यह एक व्यंग्‍य लेख है)

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