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भूपेन हजारिका: असमिया का अपनापन, बांग्ला की मिठास, हिंदी का जादू 

संगीत की दुनिया का वो सितारा जिसकी रोशनी सरहदों के पार तक फैली

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देश में एक हिस्सा है जो नॉर्थ-ईस्ट कहलाता है. नॉर्थ-ईस्ट में एक राज्य है जो असम कहलाता है. असम में एक शहर है जिसे तिनसुकिया कहते हैं. तिनसुकिया में एक कस्बा है जिसका नाम है सदिया. और इसी सदिया से शुरू होता है एक पुल जो ब्रह्मपुत्र की ही बिटिया, लोहित नदी के ऊपर से गुजरता है. भारत का सबसे लंबा पुल. 9 किलोमीटर से भी ज्यादा. पुल का दूसरा सिरा अरुणाचल के ढोला कस्बे में पहुंचा देता है. 2017 के मई महीने की 26वीं तारीख को इस पुल को देश को समर्पित कर दिया गया. नाम रखा गया- भूपेन हजारिका सेतु.
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कहते हैं, भूपेन हजारिका सेतु के जरिए इन दो प्रदेशों के बीच की दूरी कम हो गई है. क्या देश के सबसे लंबे पुल का नाम इससे बेहतर हो सकता था?

शायद नहीं. भूपेन हजारिका ने इस देश के संगीत और संस्कृति की नदियों पर हजारों पुल बनाए. न जाने कितने बिखरे सिरों को उन्होंने अपने संगीत के जादू से समेटा. उन्हें जोड़ा. असम का लोक संगीत कुलाचें भरता हुआ मुंबई के समंदर में अठखेलियां करने पहुंच गया. हजारिका के रचे शब्दों का जादू कभी असमिया का अपनापन देता, कभी बांग्ला की मिठास का एहसास कराता तो कभी हिंदी में घुलकर देश से विदेश तक अपनी जगह बना लेता.

अच्छा हुआ भूपेन दा पत्रकार नहीं बने!

भूपेन हजारिका का जन्म तिनसुकिया, असम में हुआ. तारीख थी 8 सितंबर 1926. पिता का नाम नीलकांत और मां शांतिप्रिया. दस बच्चों में सबसे बड़े भूपेन को पारंपरिक असमिया संगीत की घुट्टी मिली मां से. भूपेन के घर के पास ब्रह्मपुत्र बहती थी. एक नदी उनके भीतर भी बह रही थी. छुटपन के दिनों से. रचनात्मकता की नदी. इस नदी के मीठे पानी का स्वाद भी दुनिया को बहुत जल्द चखने को मिला. महज 10 की उम्र में गाना और फिर 12 साल की उम्र में उन्होंने असमिया फिल्म इंद्रमालती के लिए न सिर्फ बतौर बाल कलाकार काम किया बल्कि एक क्रांतिकारी गाने के साथ अपनी आवाज का दम भी दिखाया.

भूपेन ने तेजपुर से मैट्रिक किया. फिर आगे की पढ़ाई के लिए असम के बड़े शहर यानी गुवाहाटी चले गए. 1942 में गुवाहाटी के ही कॉटन कॉलेज से इंटरमीडिएट किया. भूपेन पढ़ाई में काफी अच्छे थे. बीए के लिए वो पहुंचे बनारस हिंदू यूनिवर्सिटी. यहीं से उन्होंने 1946 में एमए किया. विषय था पॉलिटिकल साइंस. भूपेन की इच्छा पत्रकारिता में जाने की थी. कभी उनका मन होता कि वो वकील बन जाएं. संगीतकार बनना तब तक जेहन में नहीं था.

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किस्मत को कभी-कभी कुछ और मंजूर होता है. और अच्छा ही हुआ कि भूपेनदा पत्रकार या वकील नहीं बने वरना हमें सुरों का ये सफर कैसे मिलता. एक इंटरव्यू में हजारिका बताते हैं कि इस वक्त तक उन्होंने ठीक से शास्त्रीय संगीत नहीं सीखा था. बनारस में रहने का शायद सबसे बड़ा फायदा ये हुआ कि वो शहनाई की जान, उस्ताद बिस्मिल्लाह खान के संपर्क में आए. शास्त्रीय संगीत के सबक उन्होंने बनारस में रहते हुए ही सीखे.

लेकिन उन दिनों में जब वो संगीत की तरफ झुकने लगे थे, पढ़ाई से उनका मोहभंग कतई नहीं हुआ. आगे की पढ़ाई के लिए अमेरिका के न्यूयॉर्क पहुंचे जहां कोलंबिया यूनिवर्सिटी से उन्होंने पीएचडी की डिग्री हासिल की. वो पढ़ाई में इतने बेहतर थे कि सरकारी स्कॉलरशिप पर अमेरिका गए. लेकिन वहां से लौटकर आने के कुछ समय बाद जरूर भूपेनदा को फिल्मों और संगीत ने अपनी ओर खींच लिया. शायद ये नॉर्थ-ईस्ट का असर था. एक ऐसी जगह जहां कदम-कदम पर कुदरत के कमाल बिखरे हैं. जहां अपने राग सुनाती ब्रह्मपुत्र है. जहां बड़े शहरों का शोर नहीं है. जहां खुद के भीतर की आवाज सुनने का समय मिल जाता है.

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हर गीत पर दिल हूम-हूम करे

1993 में एक फिल्म आई- रुदाली. फिल्म की डायरेक्टर थीं कल्पना लाजमी और संगीत दे रहे थे भूपेन हजारिका. फिल्म का एक गाना बेहद मशहूर हुआ. दिल हूम-हूम करे. इस गाने की भी एक दिलचस्प कहानी है. दिल की धक-धक का तो सबको पता है लेकिन दिल के लिए हूम-हूम का इस्तेमाल सुनने वालों को नया लगा.

लेकिन कम लोग जानते हैं कि गुलजार की कलम से निकले इस नगमे के शुरूआती बोल भूपेन दा के ही एक गाने से लिए गए हैं. पहले आपको सुनवाते हैं रुदाली का हिंदी गाना और भूपेनदा की आवाज में ओरिजिनल गाना...जिसके बाद इस खूबसूरत कंपोजिशन के बारे में दो दिलचस्प किस्से और.

जब भूपेनदा रुदाली के लिए म्यूजिक कंपोज कर रहे थे तो उन्होंने फिल्म के सिनेमेटोग्राफर संतोष सिवान को फोन लगाया. हजारिका का सवाल था- “संतोष, तुम कौन सा लेंस लगाओगे इन गानों को फिल्माने के लिए.”

ये फिल्ममेकिंग के क्राफ्ट के लिए भूपेन दा की शिद्दत दिखाता है.

एक बार भूपेन दा फ्रैंकफर्ट एयरपोर्ट पर लाइन में खड़े थे. तभी एक पाकिस्तानी शख्स उनसे रूबरू हुआ. उसने पूछा- आदाब अर्ज है. आप हजारिका साहब हैं? भूपेन दा के हां में सिर हिलाने पर उस व्यक्ति का कहना था- बनाते जाइए ऐसा नगमा. इस्लामाबाद के घर-घर में दिल हूम-हूम कर रहा है. खुदा भला करे आपका !

भूपेनदा के गायन की बात हो तो 'ओ गंगा बहती हो क्यों' क्यों को कैसे भुलाया जा सकता है. हजारिका ने इसे कई भाषायों में गाया और हर भाषा में इस गीत ने लोगों के दिलों को झकझोरा.

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संगीतकार जो और भी बहुत कुछ था

भूपेन हजारिका की शख्सियत सिर्फ संगीत तक सीमित नहीं थी. दरअसल, कहन की परंपरा में उनका गहरा यकीन था. कितना कुछ कहना था उनको. इसलिए कभी वो कैमरे के पीछे चले जाते, कभी शब्दों से खेलते, कभी अपनी आवाज की खनक से लुभाते. कवि, गीतकार, अभिनेता, निर्माता, निर्देशक, संपादक, लेखक जैसी तमाम भूमिकाओं के साथ उन्होंने इंसाफ किया.

बात असमिया की हो तो उन्होंने एरा बातार सुर, लोतिघोती, मोन प्रजापति और सिराज जैसी फिल्मों में गीत-संगीत दिया

अरुणाचल प्रदेश से एक हिंदी फिल्म आई. नाम था- मेरा धरम, मेरी मां. इस फिल्म का निर्माण, निर्देशन और गीत-संगीत भूपने दा ने ही तैयार किया. असम और अरुणाचल सरकारों की गुजारिश पर हजारिका ने कई डॉक्यूमेंट्री और नाटक भी बनाए.

हिंदी फिल्मों के लिए भूपेन ने एक पल, रुदाली, साज, दरम्यां, गजगामिनी, दमन, पपीहा जैसी फिल्मों को अपने खूबसूरत संगीत से संवारा. ऐसे संगीत पर जिसकी हर धुन, हर नोट पर भूपेनदा के दस्तखत थे. इनमें से ज्यादातर फिल्में उन्होंने कल्पना लाजिमी के साथ ही कीं जो करीब तीन दशक तक उनकी साथी रहीं.

इसके साथ ही दूरदर्शन पर आने वाले कार्यक्रम ‘लोहित किनारे’ का संगीत भी भूपेन दा का ही दिया हुआ था. नॉर्थ-ईस्ट के लोक संगीत को भूपेन हजारिका ने देश के घर-घर में पहुंचा दिया.

भूपेन हजारिका को पद्म विभूषण से लेकर दादा साहेब फाल्के पुरस्कार और नेशनल अवॉर्ड तक तमाम पुरस्कार मिले. लेकिन, उनका सबसे बड़ा इनाम तो उनके सुनने वाले, उनके चाहने वाले ही रहे जो 100 से ज्यादा देशों में हमेशा उनके शो का बेसब्री से इंतजार करते और उन्हें सम्मान देते.

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एक ऐसे दौर में जब हिंदुस्तान से अमेरिका तक और यूरोप से एशिया तक तमाम मुल्क सतही बहसों और लकीरों के जाल में उलझे हैं, भूपेन दा रोशनी के जरूरी कतरे लेकर हाजिर होते हैं. भूपेन हजारिका ने सरहदों के परे जाकर लोगों को जोड़ा.अपने संगीत से. अपनी संस्कृति से. कई विदेशी संगीतकारों के साथ काम किया. वो कहते थे कि अमेरिका में उन्हें जैज का कीड़ा काट गया. उन्होंने नॉर्थ-ईस्ट में गन को गाने से बदलने की पुरजोर कोशिश की. भूपेन हजारिका सच्चे मायनों में संस्कृति के दूत थे. 5 नवंबर 2011 को भूपेन दा चले गए . अपनी सौम्य मुस्कुराहट, ट्रेडमार्क टोपी और सुर-संसार के साथ भूपेन हजारिका अपने चाहने वालों के दिलों में हमेशा रहेंगे.

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