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जब मैं कश्‍मीर पहुंची, वो भी किसी मर्द के साथ के बिना: पार्ट3

बिना पर्याप्त जानकारी और बिना फोन के मुश्किल तो होगी ही..

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श्रीनगर घूमने, शॉपिंग करने के बाद अगले दिन गुलमर्ग जाना था. कोई आइडिया नहीं था कि पहुंचना कैसे है लेकिन जाना तय था. फिर वही दिमागी फितूर कि निकलते वक्त ही पता करूंगी. पहले से आने-जाने का टेंशन नहीं लूंगी. होटल में जानकारी ली तो पता चला कि श्रीनगर से गुलमर्ग जाने तक दो-ढाई घन्टे का वक्त लगेगा.

ज्यादा ही एडवेंचरस होते हुए मैंने सोचा गाड़ी बुक क्यों करना..यहां के लोकल की तरह ही जाऊंगी. (जबकि वहां के लोग खुद अपनी गाड़ी या गाड़ी बुक कर के जाते हैं).

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चूंकि फोन-इंटरनेट कुछ भी नहीं था तो ज़ुबानी बताए गए रूट के मुताबिक पहले ऑटो से पारिमपोरा पहुंची. वहां के ऑटो में भी कार की तरह दरवाजे होते हैं. रास्ते में पुलिस सायरन, चेकपोइंट्स, हथियार के साथ खड़े चौकन्ने आर्मी वाले सैकड़ों ट्रक...सिर्फ यही दिखा.

भीड़ में 'हिंदुस्तानी'

पारिमपोरा से तंगमर्ग के लिए लोकल बस ली गई. तंगमर्ग से आगे गुलमर्ग जाने के लिए शेयरिंग वाली सूमो, जीप वगैरह चलती है. पारिमपोरा से शुरु हुआ असली कश्मीर दर्शन. और गांवों में घटती आर्मी. गांव-गांव से होते हुए बस आगे बढ़ रही थी और अब आर्मी नहीं दिख रही थी.

क्रिकेट को लेकर इतना प्यार.. कुछ-कुछ किलोमीटर पर बच्चे क्रिकेट खेलते दिख रहे थे.

एक बात नोटिस की. गांवों में क्रिकेट को लेकर खास लगाव दिखा. वहां गांवों से गुजरते हुए जितनी भी ऐड होर्डिंग्स दिखी उनपर विराट कोहली और धोनी जैसे क्रिकेट ‘स्टार’ नहीं बल्कि बेहद स्थानीय क्रिकेट स्टार्स की तस्वीरें थी. कई नए हीरो दिखे. पता चला कि वहां उन खिलाड़ियों को कैसे सम्मान देते हैं.

अब आर्मी दिखनी बंद हो गई थी लेकिन इंटरनेट पर वायरल हुई कई तस्वीर जिनमें आर्मी के लिए 'इंडियन डॉग्स गो बैक' लिखा होता था, मैंने उनमें से 2-4 देखें, पहचाना कि ये तो मैं देख चुकी हूं 'UNREST KASHMIR' से सम्बंधित लिखे गए कई लेख-आर्टिकल्स में इन्हीं तस्वीरों का इस्तेमाल किया जाता है. फिर तो दीवारों पर लिखे ऐसे स्लोगन्स गुलमर्ग तक मेरी आंखों के सामने से लगातार गुजरते रहे. रंगे-पुते दिवारों को देखकर आतंकी बुरहान वानी वहां के गांवों का 'हीरो' लगा मुझे.

मुझे डर लगा. बस की उस भीड़ में मैंने खुद को ‘हिंदुस्तानी’ महसूस किया. उसके बाद जिस भी मकान के कांच मुझे टूटे हुए दिखे मुझे सिर्फ पथरबाजी याद आई. उनके टूटने की असल वजह चाहे जो भी रही हो.

कई गांव-बादीपोरा, हयातपोरा, कुंजर कई गांवों को मैंने पार किया. सवारियों को चढ़ते-उतरते देखा.

बस की भीड़ में बिना हिजाब की बाहरी लड़की को सब घूर रहे थे. बस जहां-जहां रुकती वहां भी लोगों की नजरें वैसे ही घूरती. बस काफी धीरे चलती है. हरियाणा रोडवेज से टक्कर लेने में 100 साल लग जाए उन्हें!

गुलमर्ग पहुंचने के बाद लगा कि तन-मन के लिए प्रकृति से ज्यादा हीलिंग कैपेसिटी किसी और के पास नहीं है. लगा कि अगर यहां मरने से पहले कोई मेरी अंतिम इच्छा ना भी पूछे तो कोई अफसोस नहीं!

 बिना पर्याप्त जानकारी और बिना फोन के मुश्किल तो होगी ही..

स्नोफॉल हो रहा था. 200 रुपए में स्लेज (बर्फ पर चलने वाली लकड़ी की गाड़ी) पर बिठा कर गुलमर्ग दिखाने वाले कई स्लेज वाले हमें देखते ही पीछे लग गए. हमने मना करते हुए कहा- हम घूम लेंगे. हमें स्लेज पर नहीं घूमना. पर वो कस्टमर को छोड़ना नहीं चाह रहे थे. उनकी कमाई को लेकर जिद की वजह से हम परेशान हो गए. उनमें से एक तो काफी आगे तक हमारे साथ आ गया.

उसने कहा, “कोई मर्द नहीं है साथ में. आप हमारे साथ चलो कोई दिक्कत नहीं होगी.

हमने तंग होकर कहा, “भइया, छोड़ दीजिए हम खुद सैर कर लेंगे.

फिर जवाब में उस स्लेजवाले ने कहा, “ठीक है जाओ. ऐसे भी आपके हिंदुस्तान में लोग परेशान करते होंगे. हमारे कश्मीर में ऐसा नहीं होता.”

ये सुनते ही मेरे साथ गई दोस्त ने उसे पलट कर जवाब दे दिया- “कश्मीर भी हिंदुस्तान में है!” फिर तो ये छोटी सी बात भारत-पाक की तीखी नोक-झोंक में बदल गई. स्लेजवाला हमें चिढ़ाने के लहजे से पाकिस्तान जिंदाबाद चिल्लाते हुए बर्फ पर फिसलता हुआ चला गया.

गुलमर्ग में आसपास के ग्रामीण ही काम करते हैं. जितने लोगों से बात की चाहे वो गाड़ी वाले हों, स्लेज वाले, बूट वाले सभी के लिए हम ‘हिंदुस्तानी’ और वो 'कश्मीरी' और पाकिस्तान समर्थक. नहीं समर्थक भी नहीं वो खुद को पाकिस्तानी ही मानते हैं!

पढ़े-लिखे लोगों से बात करो तो लगेगा वो ‘फ्रीडम’ चाहते हैं. आजाद कश्मीर, आर्मी से छुटकारा, समान अधिकार की बात करते हैं. लेकिन गांव के लोगों से या कम पढ़े-लिखे लोगों से बात कर लगा कि उन्हें इस देश का साथ बिल्कुल मंजूर नहीं.

एक तरफ गश्त पर लगी आर्मी और दूसरी तरफ ये सब देख-सुन मन फीका सा हो गया.

जब लुभावना स्नोफाॅल डरावना लगने लगा

सूरज ढलने से पहले हमें गुलमर्ग से वापस श्रीनगर आना था. उसी शेयरिंग सूमो से वापस होना था जिससे आये थे. सूमो ड्राइवर हमारे पीछे लगे थे क्योंकि उनको डर था कि हम किसी और गाड़ी से वापस ना जाएं वरना उनकी कमाई पर असर पड़ेगा.

 बिना पर्याप्त जानकारी और बिना फोन के मुश्किल तो होगी ही..

इसके बाद का अनुभव बुरा रहा, डरावना या अच्छा ये मैं तय नहीं कर पाई.

हुआ यूं कि वापसी के समय गुलमर्ग से तंगमर्ग आने के बाद श्रीनगर के लिए गाड़ी करनी थी. पर 6:30 बजे शाम में हम तंगमर्ग पहुंचे. ड्राइवर ने कहा अब वापसी मुश्किल है क्योंकि बस नहीं चलती शाम के बाद. मुझे किराए पर लिए बूट और ओवरकोट वापस करने थे और अपने जूते और बाकी रखी चीजें वहीं से वापस लेनी थी.

तंगमर्ग पूरा अंधेरे में डूबा था. गांवों में बिजली की समस्या गहरी है. श्रीनगर राजधानी होने के बावजूद बिजली समस्या से ग्रस्त है. स्नोफॉल चालू था जो दिन में मन को लुभा रहा था, उस वक्त डरावना लग रहा था. डर लगा कि अनजान जगह फंस गई हूं जहां के लोगों के लिए हम 'हिंदुस्तानी' हैं.

ड्राइवर ने डर को भांपते हुए अपनी कमाई का बंदोबस्त किया. ट्रिपल पैसे मांगे और गाड़ी बुक कर श्रीनगर चलने के लिए कहा.

उस समय मुझे खुद पर जरूरत से ज्यादा बहादुर बनने पर बेहद गुस्सा आया. अफसोस हुआ कि गाड़ी बुक कर के आनी चाहिए थी. लोकल की तरह सफर नहीं करनी चाहिए थी. सन्नाटे वाला अंधेरा बेहद डरावना लग रहा था. 

तंगमर्ग और आसपास के इलाके में आतंकी गतिविधि- एनकाउंटर होते हैं.

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..बिना मर्द के मुसीबत खड़ी कर दी जाती है

ड्राइवर जरा ठीक नहीं मालूम हुआ. वो हमें अकेला भी नहीं छोड़ रहा था. हमारी हर एक्टिविटी पर नजर कि हम वापस उसके बिना कैसे जा सकते हैं? पर थोड़ा बोल्ड होकर उसको बोला कि-”आप जाओ हमारे दोस्त अपनी गाड़ी लेकर आ रहे हैं.” बिना नेटवर्क वाला फोन निकालकर उसके सामने एक्टिंग कर ली कि सच में कोई आ रहा हो पर हलक जो सूख रही थी अंदर ही अंदर वो मैं कभी नहीं भूल सकती.

...पर अच्छे और बुरे लोग तो हर जगह होते हैं!!!!.

ड्राइवर से थोड़ा अलग होकर एक जगह से रौशनी आ रही थी वहां पहुंची. मार्केट था वो. 2-4 दुकानें खुली थी. एक बेकरी शॉप पर पहुंच कर बुझे मन से मदद मांगी. पूरी बात बताई और कहा कि आप बस गाड़ी बता दो कहां से मिलेगी. हम उसे ज्यादा पैसे दे देंगे पर उस पीछे लगे ड्राइवर के साथ नहीं जाएंगे. शॉप ऑनर बोला आप टेंशन मत लो थोड़ा इंतजार करो. गाड़ी बुलवा देते हैं.

इंतजार करते-करते बातचीत हुई. उसे क्रिकेट बहुत पसंद है. पाकिस्तान की टीम फेवरेट है.ये सुनकर मैंने खुद को मन ही मन समझाया- मुझे इसमें भारत-पाकिस्तान घुसेड़ने की जरूरत नहीं. इस बात को मैंने लड़के की खेल भावना से जोड़कर देखने की सलाह खुद को दी.(लड़के की असल भावना लड़का ही जाने!)

उसने अपनी बेकरी शॉप की मशहूर कुकीज खिलाई फिर अपने स्टाफ को कश्मीरी में कुछ बोल उनके हवाले कर कहीं चला गया. रात के 8:30 बज चुके थे. सिचुएशन ऐसी थी कि मुझे डर की वजह से उन पर भी शक होने लगा. पर कोई और चारा नहीं था उनपर विश्वास करने के अलावा.

सोचा..अब तो जो होगा देखा जाएगा!

10 मिनट बाद शॉप पर एक लड़का आता है साथ चलने को कहता है. चल देती हूं उसके साथ. थोड़ी दूर पर अंधेरे में कार खड़ी थी. अंदर बैठी तो शॉप ऑनर खुद था और शॉप के अंदर दिखने वाला एक और शख्स- ओमर और इश्तिफाक.

आगे मुसीबत में ना पड़ूं ये सोच उन्होंने एक सिम कार्ड मेरे फोन में लगा दिया.

गाड़ी चल पड़ी. स्नोफॉल चालू था. पता नहीं रात में ऐसे कश्मीर घूमना और किस टूरिस्ट को नसीब हुआ हो!

उस बुरे ड्राइवर से पीछा छूट चुका था.

डर सबको लगता है..गला सबका सूखता है. लड़की के साथ मर्द ना हो तो मुसीबत खड़ी कर दी जाती है! जरूरत से ज्यादा बहादुर नहीं बनना चाहिए. अच्छे और बुरे लोग हर जगह होते हैं..कश्मीर अलग थोड़े ही है! गाना. स्नोफॉल. बर्फीले-सुनसान रास्ते. आर्मी चेकपोइंट्स. रात. कश्मीर. बेकरी की मिठास. ओमर और इश्तिफाक.

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ओमर और इश्तिफाक ने हमें श्रीनगर पहुंचाया. अगले दिन दोबारा मुझे और दोस्त को हयातपोरा अपने घर-गांव आने के लिए कहा और 11 बजे रात को वापस लौट गए.

कश्मीर को ऐसे ना देख पाती अगर..

ओमर और इश्तिफाक की वजह से मेरे पास मोबाइल नम्बर आ चुका था. फोन चालू हो गया. कश्मीर से पहला फेसबुक स्टेटस पढ़ वहां के कई दोस्तों ने घर आने को कहा. फेसबुक स्टेटस पढ़ अगले दिन साकिब मिलने आया. उसने बचा रह गया श्रीनगर घुमाया.

फोटो 'उठाए'. हां..वहां फोटो खींचते नहीं 'उठाते' हैं.

 बिना पर्याप्त जानकारी और बिना फोन के मुश्किल तो होगी ही..
साकिब की ‘उठाई’ तस्वीर.

"कोई मसला नहीं है, कोई परेशानी नहीं है. मामा(मां) ने सब्जी पकाई है. आप जाया मत करने दो. घर चलो."

साकिब के साथ घर पहुंची. खूबसूरत कालीन-दरी वाला घर. जाते ही अम्मी ने बिठाते हुए पैरों के बीच कांगड़ी रखी और कंबल चारों ओर लपेटा. कश्मीरी मेहमाननवाजी, केसर वाला कहवा..कश्मीरी ड्राइफ्रूट्स और घर पर बने ढेर सारे पकवान सब सामने पेश था. फिर पूरी फैमिली के साथ गप्पें लड़ाई गई.

1 दिन बाद ओमर और इश्तिफाक के बुलाने पर भी मैं और दोस्त उनसे दोबारा मिलने नहीं जा सके. वो खुद काम खत्म कर रात करीब 9 बजे हमसे मिलने आएं. रात में हम डल झील के बीच नाव से हाऊसबोट पर गए. चारों तरफ पहाड़. अंधेरा. ठंड. साफ आसमान में चमकते तारे और बीच में रोशनी से जगमगाते हाऊसबोट. उस वक्त कश्मीर के 'माहौल' का खौफ नहीं था!

डल के हाऊसबोट काफी लग्जरियस होते हैं.

कश्मीर को ऐसे ना देख पाती अगर ये प्यारे लोग न मिले होते तो! प्यार, इश्क, दोस्ती, खौफ- खूबसूरती. ओमर, इश्तिफाक, हिलाल, मोसैब, साकिब, फैजान...(अफसोस किसी कश्मीरी लड़की से बात नहीं हो पाई).

इस बार खूबसूरत कश्मीर देखने गयी थी. अगली बार 'conflicts of Kashmir' -साउथ कश्मीर, त्राल, शोपियां देखने की इच्छा है...कसम से. इस अनुभव से डर निकल चुका है. (काश कि ये क्षणिक जोश न हो!) अंतिम दिन शाम तक लाल चौक की बेंच पर अकेले बैठ यही सोचती रही.

नेकदिल साकिब ने एयर टिकट करवा दी थी. ऊपर आसमान और बादलों से ज्यादा खूबसूरत ये जमीनी जन्नत लगता है. हर साल कश्मीर जाने का खुद से वादा कर मैं वापस लौट आई.

(हैलो दोस्तों! हमारे Telegram चैनल से जुड़े रहिए यहां)

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