वर्षों से जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (JNU) भारत के शीर्ष विश्वविद्यालयों में से एक रहा है, इसलिए वहां प्रवेश प्रक्रिया में निष्पक्षता और पारदर्शिता की उम्मीद की जा सकती है. लेकिन अब जेएनयू के छात्रों ने इसके खिलाफ मोर्चा खोल कर जेएनयू प्रशासन पर पीएचडी (Phd) प्रवेश परीक्षा (Entrance Exam) में धर्म और जाति के आधार पर भेदभाव का आरोप लगाया है.
छात्रों ने आरोप लगाया कि विश्वविद्यालय पहचान के आधार पर छात्रों के साथ भेदभाव करता रहा है. पीएचडी कार्यक्रमों में प्रवेश के दौरान एससी, एसटी, ओबीसी और अल्पसंख्यक समुदायों के छात्रों को उनकी जाति, धर्म और विचारधारा के आधार पर चिह्नित किया जा रहा है.
Viva के अंको में हो रहा भेदभाव
रिजर्व कैटेगरी के कई छात्रों ने शिकायत की है कि उनसे अटपटे सवाल पूछे गए थे और उन्हें वायवा (Viva) में गलत तरीके से उन्हें चिह्नित किया गया था. इन छात्रों ने अपनी लिखित परीक्षा में अच्छे अंक प्राप्त किए, लेकिन मौखिक परीक्षा (Viva) में निराशाजनक अंकों के कारण वे कट-ऑफ से चूक गए.
"इस साल जेएनयू में, पीएचडी प्रवेश के लिए, शिक्षकों ने एससी / एसटी और ओबीसी समुदायों के छात्रों को 1, 2, 3 अंक दिए, और इस प्रक्रिया में, उन्हें विश्वविद्यालय में पढ़ने का मौका नहीं दिया गया "ओमप्रकाश महतो, छात्र, जेएनयू
केवल हम -जेएनयू के छात्र, ही अकेले इस मुद्दे को नहीं उठा रहे हैं बल्कि विश्वविद्यालय की अपनी समितियों ने वर्षों से इस बात पर सहमति जताई है कि वाइवा वॉयस में भेदभाव होता है.
प्रोफेसर अब्दुल नफी समिति ने अपनी रिपोर्ट में उल्लेख किया था कि वर्षों से छात्रों द्वारा लिखित और मौखिक रूप से प्राप्त अंकों के बीच लगातार अंतर था जो दर्शाता है कि इसमें भेदभाव मौजूद है.
समिति ने वाइवा वॉयस के वेटेज को 30 से घटाकर 15 अंक करने की भी सिफारिश की.
लेकिन हम छात्रों की मांग है कि वाइवा वॉयस को पूरी तरह से खत्म कर दिया जाना चाहिए क्योंकि भेदभाव 15 अंकों के साथ भी जारी रहेगा.
हमें उम्मीद है कि जेएनयू प्रशासन इस मामले को समझेगा और इस मुद्दे को गंभीरता से लेगा क्योंकि कोई भी गैर-जिम्मेदार कदम वंचित समुदायों के छात्रों को विश्वविद्यालय से बाहर कर देगा और इस तरह उन्हें उच्च शिक्षा से वंचित कर देगा.
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