बोलपुर-शांतिनिकेतन क्षेत्र एक पर्यटक आकर्षण का केंद्र है जो कोलकाता व अन्य राज्यों के साथ-साथ विदेशों से भी लोगों को आकर्षित करता है. खासकर अक्टूबर से मार्च के महीनों के दौरान.
ये उच्च श्रेणी के पर्यटक सैकड़ों कारीगरों के लिए ग्राहक आधार बनाते हैं जो सप्ताहांत के दौरान लोकप्रिय सोनाझुरी बाजार में अपने हांथों से बनाए हुए उत्पादों को बेचते हैं, जिससे वे अपनी आजीविका के लिए पूर्व पर निर्भर हो जाते हैं.
सोनाजुरी हाट की हमारी यात्रा में विभिन्न प्रकार के शिल्प शामिल थे- पारंपरिक संगीत वाद्ययंत्र (इस क्षेत्र के लिए विशेष रूप से यह बाउल लोकप्रिय), सिलाई और डिजाइनिंग तकनीक (कांठा और बाटिक उत्पाद), टेराकोटा और डोकरा शोपीस, आभूषण व घर की सजावट के सामान और बांस एवं काश के फूल (राज्य में आमतौर पर पाया जाने वाला फूल) से बने कई तरह के उत्पाद.

बांस से बनी घर की सजावट का सामान
(फोटो- सात्यकी दासगुप्ता और अनेशा मुखर्जी)
उत्पादन की प्रक्रिया
जिन कारीगरों का हमने इंटरव्यू लिया उनमें से अधिकांश अपने कच्चे माल को बोलपुर और आसपास के क्षेत्रों से खरीदते हैं. उदाहरण के लिए टेराकोटा उत्पाद बनाने के लिए आवश्यक मिट्टी पास की नदियों से प्राप्त की जाती है और जिस कपड़े पर कांथा सिलाई की जाती है वह स्थानीय बाजारों में उपलब्ध होता है.
हमने वहां के कुछ कारीगरों से उनके काम और काम करने की परिस्थितियों के बारे में बात की.
मल्लिका रे, एक कारीगर हैं जो काश के फूलों के तने से टोकरियाँ और कंटेनर बनाती है. आसपास के जंगलों से कच्चा माल इकट्ठा करती हैं.
संगीत वाद्ययंत्र बनाने वाले संतोष मल झारखंड से बांस और लकड़ी खरीदते हैं. वह लोकप्रिय एकतारा बनाने के लिए लौकी (लौ) और स्टोन एप्पल (बेल) जैसी रोजमर्रा की सब्जियों का भी उपयोग करते हैं.
मशीनें हमें उस तरह की फिनिशिंग नहीं देंगी जो हाथों से हासिल की जा सकती हैं.संदीप महतो, संगीत वाद्ययंत्र निर्माता

काश के फूल से बनी टोकरी और पात्र
(फोटो- सात्यकी दासगुप्ता और अनेशा मुखर्जी)
सर्वेक्षण किए गए लोगों में से केवल दो कारीगरों के पास मजदूरी करने वाले कर्मचारी हैं. इसके अलावा, अधिकांश शिल्पों में मशीनों का उपयोग सीमित है. इस प्रकार या तो उत्पादन प्रक्रिया के केवल एक भाग के लिए मशीनों के उपयोग की आवश्यकता होती है या उत्पाद पूरी तरह से हाथ से बनाए जाते हैं.
मांग में बदलाव के साथ उत्पादन में बदलाव
कारीगर ज्यादातर यादगार उत्पाद बनाते हैं, जिनकी स्थानीय मांग नहीं होती है. इस प्रकार, पर्यटकों की मांग को पूरा करने के लिए अधिकांश उत्पादन छोटे पैमाने पर किया जाता है.
स्थानीय मांग विश्व भारती विश्वविद्यालय के छात्रों द्वारा की गयी है. कारीगर ऐसे ऑर्डर भी लेते हैं जो विभिन्न शहरों में उच्च वर्गों की मांगों को पूरा करने के लिए इनफॉर्मल नेटवर्क के माध्यम से दिए जाते हैं.
उत्पाद थोक होलसेल प्राइस पर थोक में भी बेचे जाते हैं. उसके बाद शोरूम में बेचे जाते हैं, जिससे थोक व्यापारी को कम से कम 50 प्रतिशत लाभ मार्जिन सुनिश्चित होता है.
"वे इन उत्पादों को एसी कमरों में काफी अधिक कीमतों पर बेचते हैं. हमारे पास केवल हमारा श्रम है."दत्ता, टेराकोटा कारीगर
इसलिए, जब उत्पाद सीधे ग्राहकों को बेचे जाते हैं तो मुनाफा कमाया जाता है. जब उत्पाद थोक में बेचे जाते हैं तो यह लगभग नगण्य होता है.
एक डोकरा कारीगर ने कहा, “30-40 कारीगर हैं जो इन शोरूमों को अपने उत्पाद बेचने के इच्छुक हैं. अगर मैं अधिक शुल्क लेना चाहता हूं, तो वे मुझसे खरीदना बंद कर देंगे."
मशीनों के न्यूनतम उपयोग के कारण उत्पादन प्रक्रिया लगभग अपरिवर्तनशील है.

सात्यकी दासगुप्ता और अनेशा मुखर्जी
(फोटो- कांथा स्टिच परिधान)
हालांकि, कारीगर बदलाव की मांग करते हैं: महतो ने बांस आधारित लैंप बनाना शुरू कर दिया है, जो हाल ही में ट्रेंड में आ गए हैं, और साथ ही बांस के बक्से के उत्पादन को कम कर दिया है, जिससे मांग में गिरावट देखी गई है.
आजकल मल ज्यादा डिमांड को देखते हुए वॉकिंग स्टिक बनाता है. इसी तरह कांथा स्टिक फेस मास्क पूरे सोनाझुरी में देखा गया.
हमने जितने भी कारीगरों से बात की, उन्होंने दावा किया कि वे खुद डिजाइन तय करते हैं. एक 70 वर्षीय बाली शिल्पकार, निखिल मंडल ने हमें बताया कि वह बाजार में नवीनतम रुझानों के साथ बने रहने के लिए अपने डिजाइनों पर निर्णय लेते समय अक्सर इंटरनेट पर सर्च करते हैं.
'विजिबल और अनविजिबल' महिला कारीगर
सोनाजुरी में कई महिला कारीगरों को हाथ से सिले हुए वस्त्र या आभूषण के टुकड़े बेचते हुए देखा गया.
जहां कांथा सिलाई कारीगरों ने अपने सिलाई कौशल को एक व्यावसायिक प्रशिक्षण स्कूल से सीखा, वहीं झुमके बेचने वाली कारीगर ने यह कौशल तब हासिल किया जब उसने शुरू में एक परिचित के तहत काम किया.
दूसरी ओर, काश के फूल के शिल्पकार रे ने अपनी सास से अपना कौशल सीखा.

बिक्री के लिए प्रदर्शन पर आभूषण
(फोटो-सात्यकी दासगुप्ता और अनेशा मुखर्जी)
अपने कौशल से जीवन यापन करने की इच्छा ने उन्हें इन उत्पादों को बेचने के लिए प्रोत्साहित किया. इस प्रकार, यह उनके परिवारों के लिए आय का एकमात्र स्रोत नहीं है. उनके पति/पत्नी भी कार्यरत हैं - पूर्ण चालक के रूप में और संविदा कर्मचारी के रूप में.
मल्लिका रे ने बताया कि वह महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना (MGNREGS) के तहत रोजगार का विकल्प चुनती है. जब उसका पति आसपास नहीं होता है और आस-पास उपलब्ध होने पर ही रोजगार लेता है. यह व्यवस्था परिवार में माध्यमिक श्रमिकों के रूप में उनकी स्थिति को रेखांकित करती है.
हालांकि, उनकी आय उनके घरों में महत्वपूर्ण योगदान देती है, जो मुख्य रूप से उनके बच्चों की शिक्षा के लिए और उनके दैनिक खर्चों को पूरा करने के लिए खर्च की जाती है.
वे अपनी कमाई का एक हिस्सा व्यक्तिगत खर्चों के लिए भी अलग रखने में सक्षम हैं, और उन्होंने दावा किया कि हर छोटे खर्च के लिए अपने जीवनसाथी से पैसे मांगना सही नहीं लगता.
विवाहित मां होने के नाते, वे घर और बच्चों की देखभाल की सभी जिम्मेदारियों को निभाती हैं.
परिवार के अन्य सदस्यों से बहुत कम या कोई मदद नहीं मिलने पर, उन्हें कच्चा माल खरीदने/इकट्ठा करने और अपने उत्पाद बनाने के लिए अपना खाली समय छोड़ना पड़ता है. कागजी कार्रवाही करने के लिए समय की कमी उन्हें लोन लेने से वंचित करती है, जिससे यह अपने उत्पादन का विस्तार करने में असमर्थ हो जाते है.
जबकि ये कारीगर 'विजिबल' महिला कार्यकर्ता थी, 'अनविजिबल' महिला कारीगर भी उल्लेख की पात्र हैं. अधिकांश पुरुष कारीगरों ने अपनी उत्पादन प्रक्रिया में अपनी महिला परिवार के सदस्यों से सहायता प्राप्त करने के बारे में जानकारी दी.
महतो की पत्नी उत्पादों को चमकाने और बुनाई में उनकी मदद करती है.
"महिलाएं आमतौर पर अपेक्षाकृत अकुशल काम करती हैं क्योंकि वे उत्पादन प्रक्रिया के उस भारी हिस्से को पूरा करने में असमर्थ हैं जो मुझे खुद करना है."संदीप महतो, संगीत वाद्ययंत्र निर्माता
कारीगरों ने बताया है कि महिलाएं संगीत वाद्ययंत्रों को रंगने और चमकाने में लगी हुई हैं, और वे टेराकोटा उत्पादों की पेंटिंग और डिजाइनिंग में मदद करती हैं.
इस प्रकार, यह सबसे अधिक संभावना है कि महिलाएं नौकरी के अपेक्षाकृत अकुशल हिस्से में लगी हुई हैं. हालांकि, कुछ कारीगरों ने दावा किया कि उनके उत्पादों के निर्माण में श्रम के इस तरह के विभाजन का पालन नहीं किया गया था.
"परिवार के सभी सदस्य, पुरुष और महिला, मेरे उत्पाद बनाने में मेरी मदद करते हैं. उत्पादन प्रक्रिया में श्रम का कोई विभाजन नहीं होता है."जयशंकर पात्रा, बाली कारीगर

(फोटो- सात्यकी दासगुप्ता और अनेशा मुखर्जी)
इस प्रकार, हम पाते हैं कि जहां 'विजिबल' महिला कारीगरों को उनके जीवनसाथी से नगण्य मदद मिलती है, वहीं परिवार की महिला सदस्य पुरुष कारीगरों द्वारा की गई उत्पादन प्रक्रिया के लिए महत्वपूर्ण थीं.
इस परिदृश्य का एक महत्वपूर्ण पहलू यह है कि ये अनपेड महिला पारिवारिक कार्यकर्ता कामकाजी सदस्यों के रूप में अनजान रहती हैं, और उन्हें केवल गृहिणी के रूप में माना जाता है.
राज्य की भूमिका और महामारी का प्रभाव
इनमें से अधिकांश कारीगरों के पास हस्तशिल्प कलाकारों को जारी एक कार्ड था, जिसमें शुरू में उन्हें सरकार की ओर से सब्सिडी वाले ऋण और शहर में हस्तशिल्प मेलों के प्रायोजित दौरे जैसे लाभों का वादा किया गया था. लेकिन कार्ड रखने से उन्हें कोई खास फायदा नहीं हुआ.
"हमें केवल कागज पर समर्थन का वादा किया जाता है, व्यवहार में कभी नहीं."निखिल मंडल, कान की बाली कारीगर
कई लोगों ने कहा कि अगर रियायती दरों पर ऋण उपलब्ध हो तो वे अपने संचालन के पैमाने का विस्तार कर सकते हैं. हालांकि, उनमें से कोई भी ऐसा करने में सक्षम नहीं था, इसके बावजूद कुछ कारीगरों ने इस प्रक्रिया में शामिल अपेक्षित कागजी कार्रवाई की.
एक कारीगर ने दावा किया कि बैंक प्रबंधक ने उसे बताया कि वह ऋण के लिए अयोग्य था क्योंकि उसके खाते में पर्याप्त पैसा नहीं था.
कुछ कारीगरों ने यह भी दावा किया कि उन्हें महामारी से पहले कोलकाता और देश के अन्य शहरों में आयोजित लोकप्रिय हस्तशिल्प मेलों के लिए फोन आए थे, जहां सरकार आवास और आवागमन का खर्च वहन करेगी.

संगीत वाद्ययंत्र बेचने वाले कारीगर
(फोटो- सात्यकी दासगुप्ता और अनेशा मुखर्जी)
पर्यटकों पर पूर्ण निर्भरता ने कारीगरों को महामारी की वजह से हुई लगातार तालाबंदी के कारण कमजोर बना दिया.
वार्षिक पौष मेला या शीतकालीन मेला दिसंबर 2020 में आयोजित नहीं किया गया था. वसंत 2021 के दौरान डोल उत्सव का सेलेब्रेशन प्रतिबंधित था और सोनाझुरी को महीनों के लिए बंद कर दिया गया था.
महामारी के बाद उन्हें बोलपुर के बाहर मेलों के लिए भी कोई कॉल नहीं आई. विश्वविद्यालय के बंद होने से बॉउल वाद्य यंत्र कारीगर के ग्राहकों को भी नुकसान हुआ. इससे उन्हें काफी नुकसान उठाना पड़ा.
दत्ता ने याद किया कि कैसे उनका परिवार तालाबंदी के शुरुआती दिनों में भुखमरी के कगार पर था, और राज्य द्वारा प्रदान किए गए राशन और दान से प्राप्त भोजन के कारण ही जीवित रहने में कामयाब रहा.
जबकि कारीगर जो दिहाड़ी मजदूरों को काम पर रखते थे, वे अब उन्हें पूरा भुगतान नहीं कर सकते थे. कुछ अन्य लोगों को उनकी छंटनी करनी पड़ी
"सभी दुकानें बंद थीं, घर से केवल 1 या 2 पीस ही बिके."भारती कर, कांथा स्टिच सेलर
जिन शिल्पकारों से हमने बात की उनमें से अधिकांश के पास वापसी का कोई विकल्प नहीं था. इसका मुख्य कारण यह था कि उनके पास अपनी कोई भूमि नहीं थी और यह भी कि उनके पास कोई अन्य कौशल नहीं था.
हालांकि टेराकोटा कारीगरों में से एक, ने हमें बताया कि वह मूर्ति बनाने, पेंटिंग आदि जैसे अन्य कार्यों का लाभ उठाने में सक्षम था.
एक डोकरा कारीगर को लॉकडाउन के बाद अपनी जरूरतों को पूरा करने के लिए घरेलू सहायिका के रूप में काम करना पड़ा.
जहां तक मनरेगा रोजगार के प्रावधान का संबंध है, मल्लिका रे ने 30 दिनों तक काम किया, लेकिन उसे अभी तक अपने श्रम का भुगतान नहीं मिला है. हालांकि उन्हें राशन (1 किलो चावल और 1 किलो गेहूं प्रति व्यक्ति प्रति माह) मिलता था, लेकिन यह उनके परिवार के लिए पर्याप्त नहीं था.
इस प्रकार, इस तरह के समय के दौरान अपने शिल्प के लिए राज्य से बिल्कुल कोई मदद नहीं मिलने पर, कारीगरों को खुद के लिए छोड़ दिया गया था.
कारीगर अपने उत्पादों पर गर्व करते हैं, लेकिन सामान्य रूप से और विशेष रूप से महामारी के दौरान राज्य के समर्थन की कमी एक निराशाजनक तस्वीर पेश करती है.
जबकि पर्यटन को बढ़ावा देना एक नेक कार्य की तरह लग सकता है, यह अनिवार्य रूप से उच्च और उच्च-मध्यम वर्ग के पर्यटकों और मजदूर वर्ग के कारीगरों के बीच एक असमान संबंध का स्थायीकरण है.
इस प्रकार, केवल कोलकाता के बाबुओं के सौन्दर्यबोध पर निर्भर रहने के बजाय, राज्य को उनके शिल्प के विनाश को रोकने के लिए उनका समर्थन करने में एक बड़ी भूमिका निभाने की आवश्यकता है.
(सभी 'माई रिपोर्ट' ब्रांडेड स्टोरिज सिटिजन रिपोर्टर द्वारा की जाती है, जिसे क्विंट पेश करता है. हालांकि, क्विंट प्रकाशन से पहले सभी पक्षों के दावों / आरोपों की जांच करता है. रिपोर्ट और ऊपर व्यक्त विचार सिटिजन रिपोर्टर के निजी विचार हैं. इससे क्विंट का सहमत होना जरूरी नहीं है.)
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