साल 1985, चिंतरंजन के एक लंबे से, शर्मीले, अंतर्मुखी लड़के ने हमारा स्कूल ओक ग्रोव ज्वॉइन किया. मुझे आज भी याद है...स्कूल की मेस में उसका पहला दिन था और खाना खाने के तुरंत बाद वो प्लेट में ही हाथ धुलने जा रहा था क्योंकि वो वैसा ही करता आ रहा था. हमारे स्कूल ने प्रमोद को एक नई जिंदगी दी और उसने इस नए ढंग की जिंदगी को स्वीकार भी किया.
आज भी जब मैं प्रमोद के बारे में सोचता हूं तो एक झटके में उसकी कुछ चीजें दिमाग में आ जाती हैं. इनमें से सबसे बड़ी बात थी उसका शांत व्यवहार. मतलब...उसके नेचर में एक तरह की गरिमा थी, कभी धैर्य न खोने वाला नेचर.
उसे किसी ने टीचर्स, स्कूल स्टाफ, सीनियर्स, क्लासमेट्स या जूनियर्स पर गुस्सा होते या आवाज ऊंची करते हुए मुश्किल से ही देखा होगा.
हंसने मुस्कराने की बात करूं तो हमने उसे कभी खिलखिलाकर हंसते हुए नहीं देखा. वो हमेशा सीरियस सा फेस बनाकर ही रहता था. कभी-कभी मुस्करा भी देता था. अपनी भावनाओं के मामले में वो हमेशा काफी रिजर्व था.
मुझे याद नहीं कि कभी मैंने उसे किसी के साथ मजाक करके मजे लेते देखा हो. मुझे ये भी याद नहीं कि कभी उसने किसी मजाक का पलटवार किया हो.
उसे कभी-कभार ही कोई बात खराब लगती थी. उसके गुस्से में भी एक तरह की शांति थी. वो ज्यादा चिल्लाता नहीं था न ही गालियां देता था. उसका बड़े डील-डौल वाला शरीर सामने वाले को डराने के लिए काफी था.
सिंद्धांतों को मानने वाला
प्रमोद एक सिद्धांतों को मानने वाला लड़का था. ईमानदारी की बात करें तो वो हद से ज्यादा ईमानदार और मेहनतकश था. हमारे स्कूल में उसने एनसीसी ज्वॉइन की जोकि शायद उसे स्वाभाविक रूप से पसंद थी क्योंकि वो रूटीन और अनुशासन पसंद था.
हालांकि, अब लगता है कि एनसीसी के उन दिनों ने देश के प्रति फर्ज निभाने के लिए उसे तैयार किया.
हम उसे यूं ही नहीं बुलाते थे बुद्ध
स्कूल में हम उसे बुद्ध कहकर यूं ही नहीं चिढ़ाते थे. दरअसल, उसे योग बहुत पसंद था और रोज ही योग करता था. मैं उससे पूछता था कि उसे शाम के शोर-शराबे वाले टाइम पर योग करने के लिए कहां जगह मिलेगी. इसके जवाब में वो कह देता था कि उसके पास कई जगहें हैं लेकिन उसने उन जगहों के बारे में कभी नहीं बताया.
सच ही तो है हमें बताकर उसे अपने योग में भंग थोड़े ही डलवाना था. कुछ चीजों को अपने तक रखना भी उसके नेचर में शामिल था.
प्रमोद पब्लिसिटी चाहने वालों में से नहीं था. उसे जो काम दे दिया जाता वो उस काम को तल्लीनता से करता रहता. बिल्कुल भरोसेमंद. इसीलिए जब भी आपको वो चाहिए होता तो आपको बस उसे बुलाना होता और वो आपके पीछे खड़ा होता.
जब भी उसे आगे बढ़कर कुछ करने को कहा जाता तो वो अपने काम से ज्यादा करता. अपनी टीम के साथ भी वो खुद ज्यादा काम करता न कि टीम को काम करने को कहता.
समस्या निपटाना था बाएं हाथ का काम
मुझे अपनी इंटर हाउस ड्रामाटिक्स कंपटीशन 1990 का एक किस्सा याद है. प्रमोद अशोक हाउस का कैप्टन था. हमारे हाउस मास्टर को पूरी उम्मीद थी कि हम खराब प्रदर्शन करेंगे. इस डर से उसने हमारी तैयारी में हिस्सा नहीं लिया.
हाउस मास्टर की जगह प्रमोद ने संभाली. उसने हम सब को एक-एक करके मनाया कि हम नाटक में खास रोल प्ले करें. उसने हमारा एक-एक प्रैक्टिस सेशन ज्वॉइन किया. प्रमोद को नाट्य शास्त्र में महारथ हासिल नहीं थी लेकिन उसे समस्या निपटाना आता था.
तो हम जिस नाटक को कर रहे थे उस नाटक में, मैं जो किरदार निभा रहा था उसे स्टेज के एक तरफ से दूसरे किरदार का पीछा करते हुए स्टेज के दूसरी तरफ जाना था और वापस में उस किरदार का पायजामा पहनकर आना था. लेकिन आखिरी मौके पर पायजामे की दूसरी जोड़ी गायब हो गई.
विंग्स में खड़े प्रमोद ने ये देख लिया और दौड़कर बेसमेंट से पायजामे की दूसरी जोड़ी ला दी. जब हम लोग स्टेज पर खड़े होकर दर्शकों की तालियां बटोर रहे थे तो वो बैकग्राउंड में छोटे-छोटे काम निपटा रहा था. इसके बाद भी जब हम अपनी तारीफों के मजे कर रहे थे तो भी वो हम सबको सारी वाहवाही लूट लेने देने में खुश था.
वो सिर्फ अपना काम करके खुश था. मुझे लगता है कि हम वो कंप्टीशन जीते, क्योंकि हमने टाइम पर अपना प्ले खत्म किया. और, ये प्रमोद के बिना संभव नहीं था.
(पुनीत सोनल मोंगा ने मसूरी के ओक ग्रोव स्कूल में सीआरपीएफ की 49 बटालियन के कमांडेंट प्रमोद कुमार के साथ पढ़ाई की. प्रमोद कुमार बीती 15 अगस्त को श्रीनगर में तिरंगा फहराने के एक घंटे बाद शहीद हो गए. )
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