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राजनीति में नई गिरावट: कसूरी की किताब के खिलाफ शिवसेना का विरोध  

कसूरी की किताब लॉन्चिंग को लेकर कुलकर्णी पर हुए शिवसेना के हमले को भारतीय राजनीति का पतन मान रहे हैं सी. उदय भास्कर

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भारत
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  • लेखक सुधींद्र कुलकर्णी के चेहरे पर स्याही पोतने की घटना आक्रोश को दिखाती है
  • सोशल मीडिया में काफी लोगों ने एलओसी पर हुई मौतों का हवाला देते हुए इस कृत्य को जायज ठहराया
  • ऐसी निंदनीय घटना के समर्थन से दादरी हत्या की याद फिर से ताजा हो गई
  • यह पहली बार नहीं है जब शिवसेना ने पाकिस्तान से जुड़े मुद्दों पर इस तरह की हरकत की है
  • एक तार्किक भारतीय तीखी बहस में खुशी-खुशी हिस्सा लेता है


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मुंबई में सोमवार (12 अक्टूबर) को शिवसेना ने अपने ‘हल्के विरोध’ को दर्ज कराते हुए सुधींद्र कुलकर्णी के मुंह पर स्याही पोत दी. इस घटना को लेकर सोशल मीडिया के साथ-साथ टीवी स्टूडियो और राजनीतिक पार्टियों में तमाम तरह की प्रतिक्रियाएं देखने को मिलीं.

पाकिस्तान के पूर्व विदेश मंत्री खुर्शीद कसूरी की 850 पन्नों की किताब ‘नीदर अ हॉक नॉर अ डव’ की लॉन्चिंग को लेकर कुछ लोग गुस्से में थे.

भारत के एक इलाके में एक राजनीतिक पार्टी ने ऐसी घटना को दिन-दहाड़े अंजाम दिया और राज्य सरकार मूकदर्शक बनी रही. कभी वाजपेयी और आडवाणी के खास रहे सुधींद्र कुलकर्णी के स्याही से पुते चेहरे के साथ इस किताब को लॉन्च करने की जिद नेशनल मीडिया में छाई रही.

क्या अंधराष्ट्रवाद को जायज ठहराया गया?

कसूरी की  किताब लॉन्चिंग को लेकर  कुलकर्णी पर हुए शिवसेना के हमले को भारतीय राजनीति का पतन मान रहे हैं सी. उदय भास्कर
शिवसैनिकों के हमले के बाद सुधींद्र कुलकर्णी. (फोटो: एएनआई)

इस घटना को लेकर सोशल मीडिया में अलग-अलग तरह की प्रतिक्रियाएं देखने को मिलीं. अधिकांश लोग तो इस घटना को लेकर गुस्से में थे, लेकिन कई लोग शिवसेना और उसके इस ‘देशभक्ति’ से भरे कृत्य को जायज ठहरा रहे थे.

इसके समर्थन में लोग एलओसी पर पिछले हफ्तों में हुई भारतीय सैनिकों की मौतों का हवाला दे रहे थे, यह भी कह रहे थे कि मुशर्रफ के साथी और पूर्व पाकिस्तानी मंत्री को इस तरह का सम्मान दिये जाने पर उनकी भावनाएं आहत होती हैं.

शिवसेना ने सुधींद्र कुलकर्णी के चेहर पर सिर्फ स्याही पोतकर एक ‘नर्म’ लहजे में उनकी आहत हुई भावनाओं पर मरहम लगाने का काम किया है.

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ताजा हुई दादरी की भयावह याद

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कथित तौर पर बीफ खाने के लिए एक भीड़ द्वारा मोहम्मद इखलाक के मारे जाने के बाद शोक व्यक्त करते हुए उनके रिश्तेदार. (फोटो: रॉयटर्स)

इस बात को कतई नजरअंदाज नहीं किया जा सकता कि यह घटना 28 सितंबर को हुई दादरी हत्या के बाद हुई. भले ही इन दोनों घटनाओं का आपस में कोई मेल नहीं है, लेकिन एक बात है जिसपर ध्यान देने की जरूरत है. इन दोनों ही घटनाओं में हिंसा के कृत्य को, चाहे वह किसी की हत्या हो या स्याही पोतने की ‘मामूली’ घटना, ‘भावनाएं आहत’ होने की आड़ में जायज ठहराने की कोशिश की गई.

दादरी में हुई हत्या को कुछ लोगों ने यह कहकर जायज ठहराने की कोशिश की थी कि मोहम्मद इखलाक के परिवार द्वारा बीफ खाने की अफवाह ने स्थानीय हिंदुओं की भावनाओं को ‘आहत’ किया था. इस हत्या के समर्थक यह कह रहे थे कि यह भावनाओं के आहत होने के बाद हुई प्रतिक्रिया के फलस्वरूप हुई एक दुर्घटना थी.

एक निर्दोष भारतीय की इस हत्या को उत्तर प्रदेश में मुस्लिम अल्पसंख्यकों के उत्पीड़न के एक और उदाहरण के तौर पर देखने की बजाय एक सामान्य दुर्घटना के रूप में देखने पर जोर दिया गया.

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शिवसेना और छद्म-राष्ट्रवाद

कसूरी की  किताब लॉन्चिंग को लेकर  कुलकर्णी पर हुए शिवसेना के हमले को भारतीय राजनीति का पतन मान रहे हैं सी. उदय भास्कर
चीन की सरकार द्वारा कश्मीरियों को अलग वीजा देने की नीति के विरोध में 5 अक्टूबर, 2009 को नई दिल्ली में चीन के तत्कालीन राष्ट्रपति हू जिंताओ का पुतला जलाते शिवसैनिक. (फोटो: रॉयटर्स)

अब मुंबई में हुई घटना पर वापस आते हैं. यह पहली बार नहीं है जब पाकिस्तान से जुड़े किसी मुद्दे पर शिवसेना ने मुंबई शहर को ठप्प किया हो. और हकीकत तो यह है कि देश और महाराष्ट्र की राजनीति के वर्तमान हालात को देखते हुए इसे इस तरह की अंतिम घटना भी नहीं माना जा सकता.

यह हक शिवसेना ने हथिया लिया है कि किस पाकिस्तानी व्यक्ति से मुलाकात करनी है और किससे नहीं, क्योंकि एक ट्विटर पोस्ट को देखने पर मालूम हुआ कि 1998 में बाल ठाकरे ने तत्कालीन पाकिस्तानी हाई कमिश्नर अशरफ जहांगीर काजी से मुलाकात की थी.

लेकिन 2015 के हालात 1998 से बिल्कुल जुदा हैं और शिवसेना के वर्तमान नेतृत्व ने एक ‘लक्ष्मण रेखा’ खींच दी है कि अब पाकिस्तान से जुड़ी किसी भी चीज के लिए एक ‘हल्के’ प्रॉटेस्ट का रास्ता चुना जाएगा.

आज यह बात पाकिस्तान के लिए कही जा रही है कल को यही चीज शहर में रह रहे ‘विदेशियों’ के लिए कही जा सकती है. इस तरह के उप-राष्ट्रवाद को मुंबई अच्छे से पहचानती है और इसे वहां काफी भुनाया भी गया है.

कई समर्थकों का तो यह भी कहना है कि कुलकर्णी मामला एक छोटी-सी बात है और इसे किताब की बिक्री बढ़ाने के लिए मुप्त की पब्लिसिटी के तौर पर भुनाया गया. यह एक बेहद ही खतरनाक बात है जो भारत में धीरे-धीरे बढ़ती हुई असहिष्णुता के हिंसात्मक होते जाने की प्रवृत्ति को नजरअंदाज करती है.

आमतौर पर एक तार्किक भारतीय को तीखी बहस में मजा आता है. भारतीय राजनीति के इसी परिपाटी पर आगे बढ़ने और असहिष्णु गतिविधियों पर लगाम लगाए जाने की जरूरत है.

(लेखक सामरिक मामलों के जानकार हैं और वर्तमान में सोसाइटी फॉर पॉलिसी स्टडीज के डायरेक्टर हैं)

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