भ्रष्टाचार और कालेधन को लेकर पीएम मोदी की ओर से 500 और 1000 रुपए के नोटों को बंद किए जाने के ऐलान के बाद देशभर में अफरा-तफरी मची हुई है. मार्केट में शॉपकीपर्स और पेट्रोल पंपों ने 500 और 1000 रुपए के नोट लेना बंद कर दिया है.
केंद्र सरकार की ओर से 500 और 1000 के नोटों को बंद करने के अचानक आए फैसले ने सभी को चौंका दिया. लेकिन आपको बता दें कि ऐसा पहली बार नहीं हुआ है.
भारत के इतिहास में दो बार ऐसा किया गया है. इस बार यह प्रयास काले धन पर रोक लगाने के लिए है.
- जनवरी 1946 में, 1,000 और 10,000 के नोटों को बंद कर दिया गया था.
- 1954 में 1000, 5000 और 10,000 के नोट फिर से चलन में आए और दोबारा जनवरी 1978 में इन्हें बंद कर दिया गया.
अध्यादेश का मसौदा समय पर पूरा कर लिया गया और 16 जनवरी को इसे राष्ट्रपति एन संजीव रेड्डी के पास सिग्नेचर के लिए भेजा गया. उसी दिन सुबह 9 बजे ऑल इंडिया रेडियो पर समाचार बुलेटिन में इस की घोषणा की गई. इसके साथ ही 17 जनवरी को सभी बैंकों और कोषागारों को बंद करने का ऐलान किया गया.
हालांकि उस समय रिजर्व बैंक के गवर्नर आई जी पटेल इस फैसले के पक्ष में नहीं थे. उनके अनुसार, गठबंधन वाली जनता पार्टी के कुछ लोग विशेष रूप से इस फैसले को कथित तौर पर 'भ्रष्ट पूर्ववर्ती सरकार और उसके नेताओं' के खिलाफ टारगेट कर उठाया गए कदम के तौर पर ले रहे थे.
पटेल अपनी किताब Glimpses of Indian Economic Policy: an Insider’s View में लिखते हैं कि जब वित्त मंत्री एच.एम. पटेल ने नोटों को वापस लेने के फैसले के बारे में उन्हें बताया तो उन्होंने कहा था कि इस तरह के फैसले का परिणाम अफरा-तफरी होती है.
ज्यादातर लोग जो काले धन की लेन-देन करते हैं, शायद ही अपनी कमाई को नोटों के तौर पर जमा कर के रखते हैं. लेकिन सरकार का मानना है कि इस फैसले से बहुत हद तक काली कमाई रखने वालों पर गाज गिरेगी.
1970 के दशक में किए गए मोनेटाइजेशन के पीछे की वजह भी काले धन पर लगाम कसना था. वांचू कमिटी ने इसके लिए कुछ नोटों के चलन पर रोक लगाने की सिफारिश की थी.
हालांकि, इस सुझाव पर अमल नहीं किया जा सका था क्योंकि माना जा रहा था कि सिफारिश की चर्चा के कारण ब्लैक मनी और उसके एजेंट को आसानी से हाई-करेंसी नोटों से छुटकारा मिल जाएगा.
1978 में जनता पार्टी गठबंधन की सरकार जो एक साल पहले सत्ता में आई थी, ने 16 जनवरी को एक अध्यादेश जारी करके 1000, 5000 और 10,000 के नोटों को वापस लेने का फैसला किया था.
आरबीआई की हिस्ट्री में यह बात विस्तार से दर्ज है कि 14 जनवरी 1978 को आरबीआई के चीफ अकाउंटेंट आर जानकी रमन को गवर्नमेंट आॅफिशियल ने फोन पर विदेशी मुद्रा नियंत्रण से संबंधित मामलों पर चर्चा के लिए दिल्ली जाने को कहा.
दिल्ली पहुंचने पर रमन को सरकार की ओर से कुछ नोटों पर रोक लगाने के फैसले के बारे में बताया गया और एक दिन के भीतर जरुरी अध्यादेश का मसौदा तैयार करने के लिए कहा गया.
उस दौरान मुंबई के भारतीय रिजर्व बैंक के सेंट्रल आॅफिस में इस बारे में किसी भी तरह के कम्यूनिकेशन पर रोक लग गई थी क्योंकि इस तरह के संपर्क अटकलों को जन्म दे सकते थे.
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