कहते हैं मोहब्बत में बड़ी ताकत होती है. यह पत्थर को पानी बना देती है और कंटीली जमीन को राख! और जब ये मोहब्बत अपने गांव, अपने पड़ोसियों के लिए हो, तो और भी अनमोल हो जाती है. ऐसी ही एक कहानी है बिहार में गया के लौंगी भुइयां की.
बिहार (Bihar) के सुदूर इलाके में रहने वाले दो ग्रामीणों ने कुछ ऐसा ही करिश्मा कर दिखाया है--एक शख्स हैं दशरथ मांझी जिन्होंने पहाड़ का सीना चीरकर 360 फुट लंबे, 30 फुट चौड़े और 25 फुट ऊंचे पहाड़ को काटकर सड़क बना डाली तो दूसरे शख्स हैं लौंगी भुइयां जिन्होंने अकेले दम पर 5 किलोमीटर लम्बी, 4 फीट चौड़ी व 3 फीट गहरी नहर खोद डाली है ताकि उनके आसपास रहनेवाले लोगों की जिंदगी में खुशहाली आ सके. ये दोनों ही बिहार के गया जिले के रहने वाले हैं, वही गया जो कभी माओवादियों और रणवीर सेना के खूनी संघर्ष के लिए बदनाम था. दशकों चले इस संघर्ष में सैकड़ों निर्दोष लोगों की जान चली गयी.
‘मोहब्बत’ का मतलब अपने किसी प्रिय की याद में केवल आगरा का ‘ताजमहल’, उक्रेन का ‘स्वालो नेस्ट कैसल’, फ्लोरिडा का ‘कोरल कैसल’, मलेशिया का ‘केल्लेस कैसल’, ऑस्ट्रिया का ‘मीरबेल पैलेस’ और जापान का ‘कोदैजी टेम्पल’ जैसी बड़ी-बड़ी इमारतें ही खड़ी करना नहीं होता. बल्कि मोहब्बत का मतलब अपने आसपास रहनेवाले की ज़िन्दगी का ख्याल करना भी होता है. यही चीज बिहार के दो मजदूरों द्वारा खून-पसीना बहाकर किए गए निर्माण, इन्हें दुनिया के महान "मोनुमेंट्स ऑफ लव" अर्थात "प्यार के स्मारक" से अलग करती है.
दशरथ मांझी की कहानी तो सब जानते हैं. अब नई कहानी. बिहार के गया जिले में बांके बाजार प्रखंड की सीमा पर जंगल में बसे कोठीलवा गांव निवासी लौंगी भुइयां की कहानी. जिन्होंने अपने समाज के लिए जीवन के 20 साल नहर खोदने में लगा दिए. लौंगी बेहद ही गरीब परिवार से आते हैं जो अपने परिवार की जीविका बकरी चराकर या दूसरे के खेतों में मजदूरी करके करते थे. पड़ोस के जंगल में बकरी को चराने ले जाते लौंगी जब आसपास के नवयुवकों और ग्रामीणों को सर पर झोला उठाए काम की तलाश में गांव से बाहर जाते देखते तो उनका कलेजा फटने लगता था. वो चाह के भी कुछ नहीं कर सकते थे.
लेकिन, उन्होंने हार नहीं मानी. बल्कि कुछ करने की सोची. ऐसा कुछ जो पलायन की इस धारा को ही रोक दे. बात करीब 1999-2000 की है. बकरी चराने के क्रम में ही एक दिन उन्होंने देखा कि पास के जंगल में जहां मवेशी पानी पीने जाते हैं वहां पर बहुत बड़ा जल का स्रोत है लेकिन यह पानी बेकार में ही बर्बाद हो जा रहा है. फिर उन्होंने इस पानी के स्रोत को एक छोटे से नहर के द्वारा वहां से पांच किलोमीटर दूर अपने गांव में ले जाने की सोची.
उन्होंने अपने गांव वालों से बात की, स्थानीय प्रतिनिधियों से बात की लेकिन किसी से उनकी बात पर ध्यान नहीं दिया. सो उन्होंने सब खुद ही करने की ठानी, और हाथ में कुदाल, खंती और कुल्हाड़ी लिए एक दिन निकल पड़े अपने मिशन पर.
लौंगी बताते हैं, "मैंने 2001 में नहर खोदना शुरू किया. लेकिन जब मैंने काम शुरू किया तो लोग मेरा मजाक उड़ाने लगे, पागल कहने लगे. घर के लोग भी मना करता था, खाना नहीं देते थे...जिसके-तिसके यहां मांग कर खाना खाते थे लेकिन हम अपने काम में लगे रहे. आज यह नहर बनकर तैयार है." वो कहते हैं, "मैंने केवल यह सोचकर काम किया कि गांव में जब पानी जाएगा तो खेतों में हरियाली आएगी और लोगों का पलायन रुक जाएगा."
आज नहर का पानी गांव के पास एक तालाब में जमा हो रहा है. स्थानीय बताते हैं कि इस नहर के बन जाने के बाद आसपास की लगभग 500 एकड़ परती पड़ी जमीन की सिंचाई होगी जिससे लोगों के जीवन में खुशशहाली आएगी. लौंगी के इस काम की कद्र करते हुए स्थानीय लोगों ने इस तालाब का नाम "लौंगी तालाब" रखा है.
स्थानीय मुखिया विष्णुपद पासवान कहते हैं, "ऐसा जीवट आदमी मैंने अपने जीवन में कभी नहीं देखा. अपना घर-परिवार छोड़कर दिनभर मिट्टी काटता रहता था. लोग कहते थे कि पागल हो गया है. लेकिन उसने वह कर दिखाया है जो हम सपने में भी नहीं सोच सकते थे. आज चारों तरफ खुशी का माहौल है. हर दिन लोग लौंगी को खोजने आते हैं".
पास के गांव के एक और मुखिया मिथिलेश साव कहते हैं, "लौंगी भुइयां ने जो काम किया है उसे पीढ़ियां याद रखेंगी. मैं उनके जज्बे को सलाम करता हूं." वो फिर कहते हैं, "आजकल दूसरे के बारे में सोचता कौन है? जरा इस आदमी को देखिए. इन्होंने अपने समाज के लिए पूरी जवानी खपा दी." लौंगी आज 70 साल के हैं. इनमें से अपने जवानी के 20 साल-- अर्थात 50 से 70 वर्ष का समय--उन्होंने अपने समाज के लिए कुर्बान कर दिया. साव पूछते हैं, "है कोई ऐसा सोचनेवाला? हमें अपने लौंगी पर गर्व है."
मशहूर उद्योगपति और महिंद्रा ग्रुप के चेयरमैन आनंद महिंद्रा ने तो लौंगी द्वारा खोदे गए नहर की तुलना "ताजमहल और (मिस्र के) पिरामिड" तक से कर दी है. महिंद्रा कहते हैं, (फोटो- क्विंट हिंदी)
"दुनिया के कई गौरवशाली स्मारक दशकों खून पसीने बहाने के बाद बने हैं. ये सारे विजन राजाओं के थे लेकिन मेहनत बेचारी जनता की लगी थी. मेरे लिए यह नहर ताजमहल और पिरामिड से कम गौरवशली नहीं हैं."
गया के ही दूसरे शख्स दशरथ मांझी की कहानी तो और भी दिल को झखझोर देनेवाली है. गया के गेहलौर गांव के रहनेवाले मांझी बहुत ही गरीब परिवार से आते थे. वो अपना परिवार चलने के लिए मजदूरी करते थे तो उनकी पत्नी फाल्गुनी देवी सर पे पोटली लिए उन्हें रोज दोपहर खाना पहुंचाने जाती थीं. ऐसे ही एक दिन खाना पहुंचाने के दौरान फाल्गुनी गेहलौर पहाड़ी के दर्रे में गिर गईं और घायल हो गईं. समय पर उचित इलाज के अभाव में एक दिन उनकी मौत हो गई. ये घटना 1959 के आसपास की है.
तभी मांझी ने संकल्प लिया वो इस पहाड़ी को काटकर रोड बनाकर ही रहेंगे ताकि किसी और की जान समय पर इलाज के अभाव में न जाए. 1960 से 1982 के बीच मांझी रोज सुबह पहाड़ी पर जाते और देर शाम तक उसे एक छोटी सी छेनी और हथोड़ी के सहारे काटते रहते. लोगों ने उन्हें पागल कहा लेकिन उनपर तो अपनी पत्नी की मौत का बदला लेने का जुनून सवार था.
आखिर में पूरे 22 साल की अथक मेहनत के बाद उन्होंने पहाड़ी को काटकर एक सड़क बना ही डाला. इस सड़क के बन जाने के बाद गया के अतरी और वजीरगंज प्रखंड की दूरी 55 किमी से घटकर मात्र 15 किमी हो गई. आज यह सड़क आसपास के लोगों के लिए एक वरदान साबित हो रही है. प्रतिदिन सैकड़ों लोग आते हैं और इस सड़क के साथ सेल्फी लेकर मांझी के जज्बे को सलाम करते हैं.
2007 में 78 साल की उम्र में मांझी का निधन कैंसर से हो गया लेकिन वो आज भी समाज के लिए एक मिसाल हैं.
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