बच्चे को सजा ए मौत ?

क्यों एक 12 साल के बच्चे को सजा-ए-मौत सुना दी गई ?

निरानाराम चेतनराम चौधरी को केवल तीन साल जेल में बिताने थे. लेकिन इस साल मार्च में जब 41 साल की उम्र में जेल से रिहाई हुई तब वह अपने जीवन के 28 साल जेल में काट चुका था. ऐसा प्रतीत होता है कि यह सब इस वजह से हुआ क्योंकि केस फाइल में नाम और उम्र में गलती हुई थी. 

इतना ही नहीं, इस कहानी में वे सभी फैक्टर हैं जो किसी फिल्म की स्क्रिप्ट में होते हैं.

निरानाराम को न केवल ‘गलत तरीके से' 28 साल की कैद हुई, बल्कि उन्होंने उनमें से 25 साल मृत्युदंड के अपराधी के तौर पर गुजारे.

फोटो साभार : प्रोजेक्ट 39A

Image Courtesy: Project 39A

उन्होंने द क्विंट से बात करते हुए कहा कि “पिछले महीने जब मैंने सुना कि सुप्रीम कोर्ट ने मेरी रिहाई के ऑर्डर दे दिए हैं, तब मुझे लगा कि यह महज एक अफवाह है. मुझे भरोसा ही नहीं हो रहा था कि ऐसा भी हो सकता है.”

 

27 मार्च को सुप्रीम कोर्ट की तीन जजों की बेंच इस निष्कर्ष पर पहुंची थी कि अपराध के समय वह (निरानाराम) सिर्फ 12 साल का (एक किशोर) था, लेकिन इसके बावजूद उन पर मुकदमा चलाया गया था और एक वयस्क के रूप में मौत की सजा सुनाई गई थी.

कानून यानी कि किशोर न्याय अधिनियम 2015 के अनुसार इस श्रेणी में केवल तीन साल की सजा देने की अनुमति है, वहीं इस कानून के मुताबिक जुवेनाइल (किशोरों) को मौत की सजा देने का कोई प्रावधान नहीं है.

लेकिन किस वजह से निरानाराम इस मोड़ तक पहुंचे? कैसे उन्हें पता लगा कि उनकी उम्र और नाम गलत था? और इसके लिए कौन जवाबदेह है?

इस इमर्सिव मल्टीमीडिया फॉर्मेट के जरिए हम इन सभी सवालों के जवाब जानने की कोशिश करेंगे.

पहला चैप्टर

केस क्या था?

निरानाराम को 1994 में गिरफ्तार किया गया था और चार साल बाद पुणे की एक ट्रायल कोर्ट ने पांच महिलाओं और दो बच्चों की हत्या के आरोप में उन्हें और उनके दो साथियों को मौत की सजा सुनाई थी.

निरानाराम राजस्थान के जलाबसर से हैं उनका कहना है कि वह घर से भाग आए थे और पुणे पहुंचने के बाद इधर-उधर भटक रहे थे.

वे कहते हैं कि मुझे नहीं पता कि मैं कैसे वहां (पुणे) पहुंचा था. इसके साथ ही मुझे उस अपराध के बारे में भी कुछ याद नहीं है.

सुप्रीम कोर्ट ने पिछले महीने उनकी रिहाई का आदेश सुनाते हुए कहा :

“हमारे दिमाग में जो पहलू आया वह यह है कि क्या 12 साल का लड़का इतना जघन्य अपराध कर सकता है? इंक्वायरिंग जज की रिपोर्ट की जांच करते समय इस पहलू को ध्यान में रखने के लिए हमारे पास बाल मनोविज्ञान या अपराध विज्ञान (चाइल्ड साइकोलॉजी या क्रिमिनोलॉजी) की कोई जानकारी नहीं है.”

लेकिन सर्वोच्च न्यायालय ने जिस बात की पुष्टि की वह यह है कि उसका (निरानाराम का) ट्रायल किया गया था और यह मानते हुए उसे मौत की सजा सुनाई गई थी कि वह उस समय 20 साल का था...

पहला चैप्टर

केस क्या था?

निरानाराम को 1994 में गिरफ्तार किया गया था और चार साल बाद पुणे की एक ट्रायल कोर्ट ने पांच महिलाओं और दो बच्चों की हत्या के आरोप में उन्हें और उनके दो साथियों को मौत की सजा सुनाई थी.

निरानाराम राजस्थान के जलाबसर से हैं उनका कहना है कि वह घर से भाग आए थे और पुणे पहुंचने के बाद इधर-उधर भटक रहे थे.

वे कहते हैं कि मुझे नहीं पता कि मैं कैसे वहां (पुणे) पहुंचा था. इसके साथ ही मुझे उस अपराध के बारे में भी कुछ याद नहीं है.“

सुप्रीम कोर्ट ने पिछले महीने उनकी रिहाई का आदेश सुनाते हुए कहा :

“हमारे दिमाग में जो पहलू आया वह यह है कि क्या 12 साल का लड़का इतना जघन्य अपराध कर सकता है? इंक्वायरिंग जज की रिपोर्ट की जांच करते समय इस पहलू को ध्यान में रखने के लिए हमारे पास बाल मनोविज्ञान या अपराध विज्ञान (चाइल्ड साइकोलॉजी या क्रिमिनोलॉजी) की कोई जानकारी नहीं है.”

लेकिन सर्वोच्च न्यायालय ने जिस बात की पुष्टि की वह यह है कि उसका (निरानाराम का) ट्रायल किया गया था और यह मानते हुए उसे मौत की सजा सुनाई गई थी कि वह उस समय 20 साल का था...

दूसरा चैप्टर

कैसे पता चला?

निरानाराम जब जेल में थे तब ग्रेजुएशन कोर्स में आवेदन करने के लिए उन्होंने राजस्थान में अपने परिवार से कुछ डॉक्यूमेंट भेजने को कहा था. 2005 में उन दस्तावेजों को खंगाला गया तब उन्हें पता चला कि जब अपराध हुआ था उस समय वे जुवेनाइल यानी कि किशोर थे.

प्रोजेक्ट 39ए, यह दिल्ली में नेशनल लॉ यूनिवर्सिटी में एक क्रिमिनल जस्टिस प्रोग्राम है, जिसकी पहल और मदद से ही निरानाराम की रिहाई संभव हो पायी है. इस प्रोजेक्ट से जुड़ी श्रेया रस्तोगी का कहना है कि “उनकी कहानी के बारे में सबसे आश्चर्यजनक बात यह है कि जेल में रहते हुए कई चीजों को पढ़ने के बाद उन्होंने खुद इस बात का पता लगाया कि कानूनी तौर पर वे किस तरह यहां से बाहर निकल सकते हैं. किसी ने भी उन्हें यह नहीं बताया कि वह बाहर निकलने के योग्य हैं.”

जब निरानाराम को पता चला कि उसे गलत तरीके से जेल में कैद किया गया है, तब उनकी क्या प्रतिक्रिया थी?

“मैं नाराज या गुस्सा नहीं हूं. गुस्सा करने का क्या फायदा? जो टाइम निकल गया वो टाइम तो मुझे वापस मिलेगा नहीं. मैं इस तरह का आदमी हूं जो इस बात पर यकीन करता है कि जो चीज निकल गई है, वह वापस तो आएगी नहीं. ऐसे में जो कुछ है उसी में खुश रहो और जो आने वाले कल है उसको बढ़िया ढंग से यूज करो.”

उसी वर्ष, सुप्रीम कोर्ट ने (प्रताप सिंह Vs स्टेट ऑफ झारखंड मामले में) यह स्पष्ट किया था कि किशोर या नाबालिग होने का दावा करने के लिए, कथित अपराध के समय आरोपी की आयु पर विचार किया जाना चाहिए था.

इस बारे में निरानाराम ने अखबारों में पढ़ा और उन्हें इसका अहसास हुआ कि यह बात उन पर भी लागू होती है.

पुलिस ने उनकी गिरफ्तारी के समय उम्र गलत लिखी थी यह तो पता चला गया लेकिन यह बात पूरी तरह से स्पष्ट नहीं है कि पुलिस फाइलों में उनका गलत नाम कैसे आया?

इस बारे में निरानाराम कहते हैं कि “महाराष्ट्र में नामों को अक्सर संक्षिप्त किया जाता है. जैसे अगर किसी का नाम तुकाराम है तो लोग उसे तुका कहने लगते हैं. उस पर भी मेरा नाम थोड़ा जटिल है- इसलिए मैं निरानाराम से नारायण बन गया.”

निरानाराम आगे कहते हैं कि “जब लोगों ने मुझे नारायण कहना शुरू किया तब मुझे इस बात का अंदाजा नहीं था कि मेरे जीवन पर इसका इतना बड़ा प्रभाव पड़ेगा.”

यहां तक कि ठीक यही बात निचली अदालत के जज की जांच रिपोर्ट (जिसके परिणामस्वरूप उनकी रिहाई हुई) में भी कही गई है. 

हालांकि, यह स्पष्ट नहीं है कि उनका नाम और उम्र गलत तरीके से कैसे दर्ज की गई. क्योंकि न तो सुप्रीम कोर्ट और न ही उनके वकीलों के पास शुरुआती केस फाइलों तक एक्सेस थी.

दूसरा चैप्टर

कैसे पता चला?

निरानाराम जब जेल में थे तब ग्रेजुएशन कोर्स में आवेदन करने के लिए उन्होंने राजस्थान में अपने परिवार से कुछ डॉक्यूमेंट भेजने को कहा था. 2005 में उन दस्तावेजों को खंगाला गया तब उन्हें पता चला कि जब अपराध हुआ था उस समय वे जूवेनाइल यानी कि किशोर थे.

प्रोजेक्ट 39ए, यह दिल्ली में नेशनल लॉ यूनिवर्सिटी में एक क्रिमिनल जस्टिस प्रोग्राम है, जिसकी पहल और मदद से ही निरानाराम की रिहाई संभव हो पायी है. इस प्रोजेक्ट से जुड़ी श्रेया रस्तोगी का कहना है कि “उनकी कहानी के बारे में सबसे आश्चर्यजनक बात यह है कि जेल में रहते हुए कई चीजों को पढ़ने के बाद उन्होंने खुद इस बात का पता लगाया कि कानूनी तौर पर वे किस तरह यहां से बाहर निकल सकते हैं. किसी ने भी उन्हें यह नहीं बताया कि वह बाहर निकलने के योग्य हैं.”

जब निरानाराम को पता चला कि उसे गलत तरीके से जेल में कैद किया गया है, तब उसकी क्या प्रतिक्रिया थी?

“मैं नाराज या गुस्सा नहीं हूं. गुस्सा करने का क्या फायदा? जो टाइम निकल गया वो टाइम तो मुझे रिटर्न मिलेगा नहीं. मैं इस तरह का आदमी हूं जो इस बात पर यकीन करता है कि जो चीज निकल गई है, वह वापस तो आएगी नहीं. ऐसे में जो कुछ है उसी में खुश रहो और जो आने वाले कल है उसको बढ़िया ढंग से यूज करो.”

उसी वर्ष, सुप्रीम कोर्ट ने (प्रताप सिंह Vs स्टेट ऑफ झारखंड मामले में) यह स्पष्ट किया था कि किशोर या नाबालिग होने का दावा करने के लिए, कथित अपराध के समय आरोपी की आयु पर विचार किया जाना चाहिए था.

इस बारे में निरानाराम ने अखबारों में पढ़ा और उन्हें इसका अहसास हुआ कि यह बात उन पर भी लागू होती है.

पुलिस ने उनकी गिरफ्तारी के समय उम्र गलत लिखी थी यह तो पता चला गया लेकिन यह बात पूरी तरह से स्पष्ट नहीं है कि पुलिस फाइलों में उनका गलत नाम कैसे आया?

इस बारे में निरानाराम कहते हैं कि “महाराष्ट्र में नामों को अक्सर संक्षिप्त किया जाता है. जैसे अगर किसी का नाम तुकाराम है तो लोग उसे तुका कहने लगते हैं. उस पर भी मेरा नाम थोड़ा जटिल है- इसलिए मैं निरानाराम से नारायण बन गया.”

निरानाराम आगे कहते हैं कि “जब लोगों ने मुझे नारायण कहना शुरू किया तब मुझे इस बात का अंदाजा नहीं था कि मेरे जीवन पर इसका इतना बड़ा प्रभाव पड़ेगा.”

यहां तक कि ठीक यही बात निचली अदालत के जज की जांच रिपोर्ट (जिसके परिणामस्वरूप उनकी रिहाई हुई) में भी कही गई है. 

हालांकि, यह स्पष्ट नहीं है कि उनका नाम और उम्र गलत तरीके से कैसे दर्ज की गई. क्योंकि न तो सुप्रीम कोर्ट और न ही उनके वकीलों के पास शुरुआती केस फाइलों तक एक्सेस थी.

तीसरा चैप्टर

क्या प्रक्रिया रही?

भले ही निरानाराम को पता था कि उन्हें 2005 में तीन साल बाद रिहा कर देना चाहिए था, लेकिन उन्हें 2023 तक राहत नहीं मिली.

इतना लंबा समय क्यों लगा?

निरानाराम को जैसे ही इसका पता लगा कि उनके मामले में क्या हुआ है, उन्होंने जेल अधिकारियों से इस बात को लेकर दृढ़तापूर्वक आग्रह किया कि उनकी आयु का निर्धारण करने के लिए उन्हें आवश्यक चिकित्सा परीक्षण के लिए भेजा जाए.

हालांकि उस परीक्षण से जो परिणाम सामने आया उसकी रेंज काफी विस्तृत थी. परीक्षण में बताया गया कि 2005 में उनकी उम्र 22 से 40 साल के बीच कोई भी हो सकती है, जिसका मतलब है कि घटना के समय उनकी आयु 11 से 29 साल के बीच कुछ भी हो सकती थी.

निरानाराम अब तक क्या कह रहा था, इस बात की कोई पु‌‌ष्टि नहीं हो सकी. केवल एक ही ऐसी चीज थी जिसे वह दे सकता था वह थी उसकी उस स्कूल के डॉक्यूमेंट, जहां से कक्षा 3 में उसने पढ़ाई छोड़ दी थी.

सभी आवश्यक दस्तावेजों को हासिल करने के लिए संघर्ष करने और अल्प-समय के लिए कुछ मानवाधिकार वकीलों से बात करने के बाद, आखिरकार 2014 में वे प्रोजेक्ट 39ए से जुड़े, जो इस मामले को सुप्रीम कोर्ट ले गए.

2018 में, सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले की सुनवाई शुरू की और एक निचली अदालत के न्यायाधीश को उसके सामने पेश किए गए सभी दस्तावेजों को वेरिफाई (जांच) करने का निर्देश दिया. इस मामले की बहस सितंबर 2022 में पूरी हुई और मार्च 2023 में इस पर फैसला आया.

तीसरा चैप्टर

क्या प्रक्रिया रही?

भले ही निरानाराम को पता था कि उन्हें 2005 में तीन साल बाद रिहा कर देना चाहिए था, लेकिन उन्हें 2023 तक राहत नहीं मिली.

इतना लंबा समय क्यों लगा?

निरानाराम को जैसे ही इसका पता लगा कि उनके मामले में क्या हुआ है, उन्होंने जेल अधिकारियों से इस बात को लेकर दृढ़तापूर्वक आग्रह किया कि उनकी आयु का निर्धारण करने के लिए उन्हें आवश्यक चिकित्सा परीक्षण के लिए भेजा जाए.

हालांकि उस परीक्षण से जो परिणाम सामने आया उसकी रेंज काफी विस्तृत थी. परीक्षण में बताया गया कि 2005 में उनकी उम्र 22 से 40 साल के बीच कोई भी हो सकती है, जिसका मतलब है कि घटना के समय उनकी आयु 11 से 29 साल के बीच कुछ भी हो सकती थी.

निरानाराम अब तक क्या कह रहा था, इस बात की कोई पु‌‌ष्टि नहीं हो सकी. केवल एक ही ऐसी चीज थी जिसे वह दे सकता था वह थी उसकी उस स्कूल के डॉक्यूमेंट, जहां से कक्षा 3 में उसने पढ़ाई छोड़ दी थी.

सभी आवश्यक दस्तावेजों को हासिल करने के लिए संघर्ष करने और अल्प-समय के लिए में कुछ मानवाधिकार वकीलों से बात करने के बाद, आखिरकार 2014 में वे प्रोजेक्ट 39ए से जुड़े, जो इस मामले को सुप्रीम कोर्ट ले गए.

2018 में, सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले की सुनवाई शुरू की और एक निचली अदालत के न्यायाधीश को उसके सामने पेश किए गए सभी दस्तावेजों को वेरिफाई (जांच) करने का निर्देश दिया. इस मामले की बहस सितंबर 2022 में पूरी हुई और मार्च 2023 में इस पर फैसला आया.

चौथा चैप्टर

गलती का जिम्मेदार कौन?

2019 में सुप्रीम कोर्ट ने निरानाराम के मामले की जांच के निर्देश देते हुए कहा था कि “तात्कालिक मामला राज्य के घोर सुस्त और लापरवाह रवैये को दर्शाता है.”

हालांकि, निरानाराम के मामले पर काम करने वाली टीम का कहना है कि इसमें जो गलती हुई उसका जिम्मेदार कोई एक नहीं, बल्कि कई पार्टियां हैं.

श्रेया रस्तोगी ने द क्विंट से बात करते हुए कहा कि “इसकी शुरुआत इस मामले की जांच कर रहे जांच अधिकारियों से होती है, जिन्होंने उनके (निरानाराम के) नाम और उम्र को सही तरीके से वेरिफाई नहीं किया था. आपराधिक कार्यवाही के विभिन्न चरणों में उनके अपने बचाव पक्ष के वकील और जिस मजिस्ट्रेट के सामने उन्हें पहली बार पेश किया गया था. वे सभी इसके लिए दोषी या जिम्मेदार हैं.”

रस्तोगी कहती हैं कि यहां तक कि प्रॉसीक्यूटर (अभियोजक) भी और सुप्रीम कोर्ट पहुंचने से पहले जिन जजों ने इस मामले की सुनवाई की वे भी दोषी या जिम्मेदार हैं.

वे आगे कहती हैं कि “यह हममें से किसी को भी दावा करने की जिम्मेदारी से नहीं रोकता है.”

तो, क्या अब उन्हें (निरानाराम को) मुआवजा दिया जाना चाहिए?

वर्तमान में, भारत के कानून में ऐसा कोई प्रावधान नहीं है जोकि गलत तरीके से मुकदमा चलाने या दोषी ठहराए गए किसी भी व्यक्ति को मुआवजा देने की बात करता हो.

रस्तोगी आगे कहती हैं कि “पीड़ितों को अगर मुआवजा दिया भी जाता है तो वह अपर्याप्त होगा. चाहे वह पीड़ित हो या अभियुक्त - उन्हें मुआवजा देना एक ऐसी चीज है जिसे हमारे कानून को बहुत दृढ़तापूर्वक शामिल करने और यह सुनिश्चित करने की जरूरत है कि इसका कार्यान्वयन हो.”

चौथा चैप्टर

गलती का जिम्मेदार कौन?

2019 में सुप्रीम कोर्ट ने निरानाराम के मामले की जांच के निर्देश देते हुए कहा था कि “तात्कालिक मामला राज्य के घोर सुस्त और लापरवाह रवैये को दर्शाता है.”

हालांकि, निरानाराम के मामले पर काम करने वाली टीम का कहना है कि इसमें जो गलती हुई उसका जिम्मेदार कोई एक नहीं, बल्कि कई पार्टियां हैं.

 

श्रेया रस्तोगी ने द क्विंट से बात करते हुए कहा कि “इसकी शुरुआत इस मामले की जांच कर रहे जांच अधिकारियों से होती है, जिन्होंने उनके (निरानाराम के) नाम और उम्र को सही तरीके से वेरिफाई नहीं किया था. आपराधिक कार्यवाही के विभिन्न चरणों में उनके अपने बचाव पक्ष के वकील और जिस मजिस्ट्रेट के सामने उन्हें पहली बार पेश किया गया था. वे सभी इसके लिए दोषी या जिम्मेदार हैं.” 

रस्तोगी कहती हैं कि यहां तक कि प्रोसीक्यूटर (अभियोजक) भी और सुप्रीम कोर्ट पहुंचने से पहले जिन जजों ने इस मामले की सुनवाई की वे भी दोषी या जिम्मेदार हैं.

वे आगे कहती हैं कि “यह हममें से किसी को भी दावा करने की जिम्मेदारी से नहीं रोकता है.”

तो, क्या अब उन्हें (निरानाराम को) मुआवजा दिया जाना चाहिए?

वर्तमान में, भारत के कानून में ऐसा कोई प्रावधान नहीं है जोकि गलत तरीके से मुकदमा चलाने या दोषी ठहराए गए किसी भी व्यक्ति को मुआवजा देने की बात करता हो.

रस्तोगी आगे कहती हैं कि “पीड़ितों को अगर मुआवजा दिया भी जाता है तो वह अपर्याप्त होगा. चाहे वह पीड़ित हो या अभियुक्त - उन्हें मुआवजा देना एक ऐसी चीज है जिसे हमारे कानून को बहुत दृढ़तापूर्वक शामिल करने और यह सुनिश्चित करने की जरूरत है कि इसका कार्यान्वयन हो.”

पांचवां चैप्टर

बड़ी तस्वीर क्या कहती है?

निरानाराम के मामले में घटनाओं के नाटकीय मोड़ के बावजूद, वह अकेला नहीं है जिसने इस तरह की घटनाओं का अनुभव किया है.

जैसा कि रस्तोगी कहती हैं :

"जो लोग जुवेनिलिटी क्लेम्स को दर्ज करने में सक्षम हैं, वे वाकई में किस्मत वाले हैं."

वे आगे कहती हैं कि “यह सोचकर ही दिमाग दहल जाता है कि इस (ऐसे दावों के) बारे में जाने बिना या अधिकारियों के सामने इसे लाए बिना कितने कैदी मर जाते हैं.”

इससे ठीक पहले, सुप्रीम कोर्ट ने नाबालिग लड़की से दुष्कर्म और हत्या के मामले में मध्य प्रदेश के एक व्यक्ति को सुनाई गई मौत की सजा को रद्द कर दिया था. इस (दुष्कर्म के) मामले में भी अपराध के समय युवक नाबालिग पाया गया था.

लेकिन क्या ऐसे जघन्य अपराधों के आरोपी बच्चों को तीन साल में छोड़ दिया जाना चाहिए? इस सवाल का जवाब देते हुए एक्सपर्ट्स कहते हैं “हां” और वे समझाते हुए बताते हैं कि क्यों छोड़ दिया जाना चाहिए.

प्रोजेक्ट 39A के साथ एक साक्षात्कार में HAQ सेंटर फॉर चाइल्ड राइट्स की सह-संस्थापक एनाक्षी गांगुली ने इस पर बात करते हुए कहा कि “हम यह नहीं कह रहे हैं कि कोई अपराधी नहीं है और कोई पीड़ित (विक्टिम) नहीं है, और न ही हम यह कह रहे हैं अपराध करने वाले सभी युवाओं के साथ पीड़ितों (विक्टिम्स) के जैसा व्यवहार चाहिए या उन्हें जवाबदेह नहीं ठहराया जाना चाहिए. दुख की बात यह है कि कानून हमेशा कुछ लोगों की वजह से बदल दिया जाता है. कुछ बच्चे ऐसे भी हैं जो वाकई में हिंसक होते हैं और या सुधार योग्य नहीं होते हैं. लेकिन ऐसे बच्चे बहुत कम संख्या में हैं.”

वे आगे कहती हैं कि “लंबी कैद से युवा प्रभावित होते हैं. यह (कारावास) उनके सुधार की संभावनाओं को प्रभावित करता है. हम बस इतना चाहते हैं कि ऐसे युवाओं के अधिकारों की भी रक्षा की जाए. उनकी उम्र और जीवन के चरण के अनुसार, उन्हें मिलने वाली देखभाल उचित और उपयुक्त होनी चाहिए.”

पांचवां चैप्टर

बड़ी तस्वीर क्या कहती है?

निरानाराम के मामले में घटनाओं के नाटकीय मोड़ के बावजूद, वह अकेला नहीं है जिसने इस तरह की घटनाओं का अनुभव किया है.

जैसा कि रस्तोगी कहती हैं :

"जो लोग जुवेनिलिटी क्लेम्स को दर्ज करने में सक्षम हैं, वे वाकई में किस्मत वाले हैं."

वे आगे कहती हैं कि “यह सोचकर ही दिमाग दहल जाता है कि इस (ऐसे दावों के) बारे में जाने बिना या अधिकारियों के सामने इसे लाए बिना कितने कैदी मर जाते हैं.”

इससे ठीक पहले, सुप्रीम कोर्ट ने नाबालिग लड़की से दुष्कर्म और हत्या के मामले में मध्य प्रदेश के एक व्यक्ति को सुनाई गई मौत की सजा को रद्द कर दिया था. इस (दुष्कर्म के) मामले में भी अपराध के समय युवक नाबालिग पाया गया था.

लेकिन क्या ऐसे जघन्य अपराधों के आरोपी बच्चों को तीन साल में छोड़ दिया जाना चाहिए? इस सवाल का जवाब देते हुए एक्सपर्ट्स कहते हैं “हां” और वे समझाते हुए बताते हैं कि क्यों छोड़ दिया जाना चाहिए.

प्रोजेक्ट 39A के साथ एक साक्षात्कार में HAQ सेंटर फॉर चाइल्ड राइट्स की सह-संस्थापक एनाक्षी गांगुली ने इस पर बात करते हुए कहा कि “हम यह नहीं कह रहे हैं कि कोई अपराधी नहीं है और कोई पीड़ित (विक्टिम) नहीं है, और न ही हम यह कह रहे हैं अपराध करने वाले सभी युवाओं के साथ पीड़ितों (विक्टिम्स) के जैसा व्यवहार चाहिए या उन्हें जवाबदेह नहीं ठहराया जाना चाहिए. दुख की बात यह है कि कानून हमेशा कुछ लोगों की वजह से बदल दिया जाता है. कुछ बच्चे ऐसे भी हैं जो वाकई में हिंसक होते हैं और या सुधार योग्य नहीं होते हैं. लेकिन ऐसे बच्चे बहुत कम संख्या में (अल्पसंख्य) हैं.”

वे आगे कहती हैं कि “लंबी कैद से युवा प्रभावित होते हैं. यह (कारावास) उनके सुधार की संभावनाओं को प्रभावित करता है. हम बस इतना चाहते हैं कि ऐसे युवाओं के अधिकारों की भी रक्षा की जाए. उनकी उम्र और जीवन के चरण के अनुसार, उन्हें मिलने वाली देखभाल उचित और उपयुक्त होनी चाहिए.”

छठवां चैप्टर

निरानाराम का भविष्य

निरानाराम के अन्यायपूर्ण या गलत कारावास ने उन्हें अपने लक्ष्यों का पीछा करने या वह करने से नहीं रोका जो उसे सबसे ज्यादा (पढ़ना) पसंद है.

निरानाराम हंसते हुए कहते हैं कि “मुझे पढ़ना बहुत पसंद है. जब मैं जेल में था तब मैं बहुत सारी किताबें और अखबार पढ़ता था, लेकिन जेल से बाहर आने के बाद मुझे सोशल मीडिया मिल गया. मैं सोशल मीडिया पर काफी कुछ पढ़ रहा हूं.”

कारावास के दौरान निरानाराम ने ग्रेजुएशन की पढ़ाई पूरी की इसके अलावा उन्होंने समाजशास्त्र (सोशियोलॉजी) और राजनीति विज्ञान (पॉलिटकल साइंस) में मास्टर डिग्री हासिल की थी.

निरानाराम कहते हैं कि “सोचा तो यही है कि जो पढ़ाई मेरी जेल में जारी थी उसे अभी बाहर भी जारी रखना है. कुछ कोर्स करने हैं जैसे लीगल फील्ड में कोई कोर्स करना है. वकालत वगैरह का कुछ करने का सोच रहा हूं. अगर मौका मिला तो करूंगा और मेरे जैसे जो जरूरमंद लोग हैं अगर उनके काम आया तो ये अच्छी बात होगी.”

छठवां चैप्टर

निरानाराम का भविष्य

निरानाराम के अन्यायपूर्ण या गलत कारावास ने उन्हें अपने लक्ष्यों का पीछा करने या वह करने से नहीं रोका जो उसे सबसे ज्यादा (पढ़ना) पसंद है.

निरानाराम हंसते हुए कहते हैं कि “मुझे पढ़ना बहुत पसंद है. जब मैं जेल में था तब मैं बहुत सारी किताबें और अखबार पढ़ता था, लेकिन जेल से बाहर आने के बाद मुझे सोशल मीडिया मिल गया. मैं सोशल मीडिया पर काफी कुछ पढ़ रहा हूं.”

कारावास के दौरान निरानाराम ने ग्रेजुएशन की पढ़ाई पूरी की इसके अलावा उन्होंने समाजशास्त्र (सोशियोलॉजी) और राजनीति विज्ञान (पॉलिटकल साइंस) में मास्टर डिग्री हासिल की थी.

निरानाराम कहते हैं कि “सोचा तो यही है कि जो पढ़ाई मेरी जेल में जारी थी उसे अभी बाहर भी जारी रखना है. कुछ कोर्स करने हैं जैसे लीगल फील्ड में कोई कोर्स करना है. वकालत वगैरह का कुछ करने का सोच रहा हूं. अगर मौका मिला तो करूंगा और मेरे जैसे जो जरूरमंद लोग हैं अगर उनके काम आया तो ये अच्छी बात होगी.”

क्रेडिट्स

रिपोर्टर
रोहिणी राय

इलस्ट्रेटर
विभूषिता सिंह

क्रिएटिव प्रोड्यूसर
कामरान अख्तर

वेब डेवलपर
अचिंत्य डे

ट्रांसलेटर
अजय कुमार पटेल

सीनियर एडिटर
मेखला सरन

क्रिएटिव डायरेक्टर्स
नमन शाह
मेघनाद बोस