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CAA-NRC का ज्यादा फायदा मोदी सरकार या विपक्ष को? रियलिटी चेक

क्या झारखंड में बीजेपी की हार की वजह CAA थी?

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अब तक विपक्ष के तीन बड़े नेता – शरद पवार, ममता बनर्जी और अरविंद केजरीवाल – नागरिकता संशोधन कानून को झारखंड में बीजेपी की हार की वजह बता चुके हैं. कई ने इस कानून के खिलाफ जारी प्रदर्शन को नरेंद्र मोदी राज के अंत का आगाज घोषित कर दिया है. पर ऐसा ही है क्या?

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कुछ देर के लिए इस कानून के पक्ष और विपक्ष में दी जा रही दलीलों को अलग रखकर, तथ्यों को सामने रखकर, एक सवाल पर गौर करते हैं: CAA-NRC विवाद से आखिर किसका फायदा हो रहा है – नरेंद्र मोदी सरकार का या विपक्ष का? अब इसे अलग-अलग तरीकों से समझने की कोशिश करते हैं. शुरुआत झारखंड के नतीजों से.

क्या झारखंड में बीजेपी की हार की वजह CAA थी?

लोकसभा में नागरिकता संशोधन कानून 9 दिसंबर को पास हुआ. तब तक झारखंड में दो चरणों के चुनाव पूरे हो चुके थे, तीन चरणों की वोटिंग, कानून पास होने के बाद हुई.

इस बात को जरूर याद रखना चाहिए कि गृह मंत्री अमित शाह ने झारखंड के चुनाव अभियान में CAA को एक मुद्दा बनाया था.

आखिरी तीन चरणों में जहां चुनाव हुए, बीजेपी ने वहां 17 सीटों पर जीत हासिल की, जो कि 2014 चुनाव में मिली 22 सीटों के मुकाबले 5 कम थे. पहले दो चरणों में जिन सीटों पर वोटिंग हुई, वहां बीजेपी का आंकड़ा इस बार 17 से घटकर 8 पहुंच गया.

इसलिए, बीजेपी को नुकसान दोनों सूरत में हुआ. नागरिकता संशोधन कानून के तस्वीर में आने से पहले भी और बाद में भी. हालांकि हार का आंकड़ा कानून पास होने से पहले हुई वोटिंग में ज्यादा रहा. इससे यह तो साफ है कि नागिरकता संशोधन कानून बीजेपी या जेएमएम-कांग्रेस-आरजेडी गठबंधन के लिए गेमचेंजर तो कतई नहीं था.

लोकनीति-सीएसडीएस के सर्वे के मुताबिक,

CAA और NRC को 1 फीसदी से भी कम लोगों ने वोटिंग के लिए अकेला-सबसे बड़ा मुद्दा बताया. ज्यादातर लोगों ने कहा उन्होंने बेरोजगारी, महंगाई, विकास और सरकार के कामकाज जैसे मुद्दों पर ही वोट डाले.

ज्यादातर आंकड़े कहते हैं कि झारखंड में बीजेपी की हार की सबसे बड़ी वजह रही रघुबर दास सरकार से लोगों की नाराजगी. हालांकि इस साल हुए लोकसभा चुनाव के मुकाबले पीएम मोदी की लोकप्रियता में भी गिरावट आई.

लोग CAA के पक्ष में है या विपक्ष में?

CAA और NRC के मसले पर लोगों की राय जानने के लिए अब तक सिर्फ CVoter ने माकूल सर्वे किया है. इस सर्वे में 17 से 19 दिसंबर के बीच तीन दिनों में 3,000 लोगों से उनकी राय जानी गई.

देशभर में किए गए इस सर्वे में 62 प्रतिशत लोगों ने CAA का समर्थन किया, जबकि 37 प्रतिशत लोगों ने इस कानून का विरोध किया. हालांकि इसमें कई बारीकियां हैं जिन्हें समझना जरूरी है:

  • इस मसले पर लोग मजहब के हिसाब से साफ बंटे हुए नजर आए. तीन में से दो हिंदुओं ने CAA का समर्थन किया, जबकि इतने ही मुसलमानों ने इसका विरोध किया. NRC पर भी लोगों की राय कमोबेश ऐसी ही रही.
  • CAA का सबसे ज्यादा विरोध असम में हुआ, जहां 68% लोगों ने कहा वो इस कानून के खिलाफ हैं.
  • CAA के लिए कुल समर्थन (पक्ष और विपक्ष के लोगों की संख्या का अंतर) सबसे ज्यादा उत्तर भारत में 36.5 प्वाइंट रहा, इसके बाद देश के पश्चिम इलाके में 29 प्वाइंट, दक्षिण में इससे कम 20 प्वाइंट समर्थन रहा जबकि यह आंकड़ा सबसे कम 15 प्वाइंट पूर्वी भारत में रहा.

कुछ लोगों ने CAA का समर्थन तो किया लेकिन इसे असंवैधानिक बताया

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सर्वे में एक बड़ी बात यह निकलकर आई कि ज्यादातर लोगों ने CAA का समर्थन करते यह भी कहा कि यह कानून संविधान के खिलाफ है और इससे भारत का आर्थिक बोझ बढ़ेगा.

सर्वे के मुताबिक, देशभर के 47.4 फीसदी लोगों ने कहा कि CAA से संविधान का उल्लंघन हुआ है, जबकि 47.1 फीसदी लोगों का मानना था कि ऐसा कोई उल्लंघन नहीं हुआ है. दिलचस्प बात यह है कि उत्तर भारत में 43.5 प्रतिशत लोगों ने कहा कि CAA असंवैधानिक है लेकिन सिर्फ 31.2 प्रतिशत लोग इसके विरोध में नजर आए. इसका मतलब यह हुआ कि एक बड़ा तबका CAA का समर्थन तो करता है लेकिन इसे संविधान की अवहेलना भी मानता है.

अर्थव्यवस्था पर CAA के असर पर लोगों की क्या है लोगों की राय

ठीक ऐसा ही जवाब देखने को मिला जब लोगों से पूछा गया क्या CAA लागू होने के बाद शरणार्थियों के आने से भारत की आबादी बढ़ेगी और इससे अर्थव्यवस्था पर भी बोझ बढ़ेगा? देशभर में 64 प्रतिशत लोगों ने जवाब दिया कि CAA की वजह से देश ही आर्थिक हालत बिगड़ेगी. इसका मतलब यह हुआ कि लोग CAA को बोझ मानने के बाद भी इसका समर्थन कर रहे हैं.

हैरानी की बात नहीं है कि असम और दूसरे पूर्वी राज्यों में सबसे ज्यादा लोग CAA को आर्थिक बोझ मान रहे थे.

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क्या प्रदर्शनों से विपक्ष को फायदा होगा?

झारखंड के नतीजे और CVoter का सर्वे, दोनों इस बात की तरफ इशारा कर रहे हैं कि CAA के मसले पर देशभर में प्रदर्शन से सरकार को वैसा नुकसान नहीं होगा जैसा यूपीए सरकार को अन्ना हजारे के आंदोलन की वजह से हुआ था.

CVoter सर्वे और ग्राउंड रिपोर्ट दोनों से साफ है कि ज्यादातर हिंदू, खासतौर से उत्तर और पश्चिम भारत में, CAA के मसले पर सरकार के साथ खड़े हैं, कम से कम सरकार का सक्रिय तौर पर विरोध तो नहीं कर रहे हैं.

हालांकि, CAA के खिलाफ प्रदर्शनों से बीजेपी-विरोधी धड़े में नया जोश जरूर देखने को मिला है, कुछ हद तक वैसे ही जैसे 2011 के बाद अन्ना हजारे के आंदोलन ने कांग्रेसी-विरोधी धड़े में नई ऊर्जा भर दी थी.

उदाहरण के लिए, अब तक जो मुसलमान महज बीजेपी-विरोधी वोटर माने जा रहे थे, वो CAA-NRC के विरोध के प्रदर्शनों के बाद बीजेपी-विरोधी राजनीति का बड़ा आधार बन गए हैं.

इसलिए अब जो पार्टी बीजेपी को हराने की मंशा रखती है वो CAA-NRC के खिलाफ प्रदर्शनों में शामिल होकर इस ताकत का इस्तेमाल करना चाहती है. यही वजह है कि मुख्यधारा की राजनीति में कूदने का ऐलान करते ही, भीम आर्मी के चीफ चंद्रशेखर आजाद ने CAA के विरोध प्रदर्शन में शामिल होने के लिए मुस्लिम बहुल इलाका जामा मस्जिद को चुना, किसी दलित-बहुल इलाके में नहीं गए.

राजनीतिक पार्टियां अब CAA-NRC के खिलाफ प्रदर्शनों की ताकत का असरदार तरीके से फायदा उठा रही है.

सबसे पहली ऐसी पार्टी है पश्चिम बंगाल की तृणमूल कांग्रेस. ममता बनर्जी CAA-NRC के विरोध में प्रदर्शनों का सबसे आगे बढ़कर नेतृत्व कर रही है. उनका नारा ‘हम सब नागरिक हैं’ पूरे बंगाल में देखा जा सकता है.

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मुसलमानों पर अपनी पकड़ मजबूत करने के अलावा – जो कि पश्चिम बंगाल की आबादी का एक चौथाई हिस्सा हैं – टीएमसी उन गरीब बंगाली हिंदुओं के डर से भी फायदा उठाने की कोशिश कर रही है जिन्हें आशंका है कि NRC के लागू होने के बाद उन्हें परेशान किया जाएगा. इसके अलावा उन्हें इस बात का भी डर है कि बांग्लादेश से हिंदू शरणार्थियों की बाढ़ आई तो उनकी माली हालत और बिगड़ जाएगी.

पश्चिम बंगाल में टीएमसी CAA और NRC के विरोध में इस कदर कामयाब रही है कि बीजेपी अब इस मसले पर फूंक-फूंक कर कदम रख रही है. पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष दिलीप घोष ने NRC के विरोध में बयान देना शुरू कर दिया है तो दूसरे नेता चन्द्र कुमार बोस ने कह दिया कि मुसलमानों को CAA से बाहर नहीं रखना चाहिए था. जबकि राष्ट्रीय स्तर पर पार्टी का रुख इससे बिलकुल अलग है.

कांग्रेस और समाजवादी पार्टी जैसी दूसरी धर्मनिरपेक्ष पार्टियां अलग-अलग तरीके से इन विरोध प्रदर्शनों का समर्थन कर रही हैं, लेकिन गैर-मुस्लिम लोगों को CAA के खिलाफ प्रदर्शन के लिए मनाने में नाकाम रही हैं. काफी हद तक, इनकी कोशिश यही रही है कि मुसलमानों को अपने साथ रखा जाए.

असम में, हालांकि, ऐसा लगता है कि कांग्रेस CAA विरोधी भावनाओं को अपने हक में इस्तेमाल करने की पूरी कोशिश कर रही है. यह इस बात से भी साफ है कि 28 दिसंबर को पहली बार राहुल गांधी जिस बड़े CAA विरोधी प्रदर्शन में शामिल होने जा रहे हैं वो असम में है.

इसलिए, बीजेपी को नुकसान पहुंचाने की CAA की क्षमता इस बात पर निर्भर करती है कि विपक्षी पार्टियां इसका कैसे इस्तेमाल करती हैं.

हालांकि यह बिलकुल साफ है कि उत्तरी और पश्चिमी भारत में CAA की वजह से बीजेपी के वोट-बैंक के विपक्ष की तरफ खिसकने की संभावना बहुत कम है. इसके लिए बेरोजगारी और महंगाई जैसे आर्थिक मसले ज्यादा उपयोगी साबित होंगे.

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