सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ (Constitutional Bench Of SC) ने गुरुवार, 2 मार्च को फैसला सुनाया कि भारत के चुनाव आयोग (Election Commission of India) के सदस्यों की नियुक्ति एक पैनल की सलाह पर की जानी चाहिए. इस पैनल में भारत के प्रधानमंत्री, मुख्य न्यायाधीश और लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष (या इसके न होने पर लोकसभा में सबसे बड़े विपक्षी दल का नेता) शामिल हों.
सर्वोच्च अदालत के इस फैसले को बहुत से कानून विशेषज्ञ और राजनेता लोकतंत्र की जीत के रूप में देख रहे हैं.
यहां तक कि भारत के पूर्व चुनाव आयुक्त एसवाई कुरैशी ने भी इस फैसले की तारीफ करते हुए ट्वीट किया.
चुनाव आयुक्त की नियुक्ति के लिए पैनल,मीडिया की भूमिका: SC के फैसले की खास बातें
1. अगर आपसे कुछ छूट गया है तो जान लीजिए...
संविधान का आर्टिकल 324 चुनाव आयोग को “चुनावों की निगरानी, निर्देशन और नियंत्रण” का अधिकार देता है. आर्टिकल 324 में कहा गया है:
"चुनाव आयोग, मुख्य निर्वाचन आयुक्त और अन्य निर्वाचन आयुक्तों, जिनकी नियुक्ति राष्ट्रपति समय-समय पर तय करेंगे, उनसे मिलकर बनेगा. मुख्य निर्वाचन आयुक्त और अन्य निर्वाचन आयुक्तों की नियुक्ति, संसद द्वारा बनाए गए प्रावधानों के अधीन रहते हुए राष्ट्रपति द्वारा की जाएगी."
गुरुवार को दिए फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने आगाह करते हुए कहा:
लेकिन केंद्र सरकार ने चुनाव आयोग के शीर्ष अधिकारियों की नियुक्ति में अब तक आजादी के बाद से ही अपनी मर्जी चलाई है. प्रधानमंत्री की अगुवाई वाली केंद्रीय मंत्रीपरिषद अब तक यह नियुक्तियां करती आई है.
Expand2. चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति के लिए प्रधानमंत्री, विपक्ष के नेता और मुख्य न्यायाधीश की समिति
सुप्रीम कोर्ट ने इस फैसले पर पहुंचते हुए कहा, “एक कमजोर चुनाव आयोग के खतरनाक नतीजे होंगे.”
लेकिन याद रखें कि यह व्यवस्था केवल तब तक के लिए है, जब तक कि संसद इस मामले में कानून नहीं बनाती है. जस्टिस केएम जोसेफ ने अपने फैसले में भी इसका उल्लेख किया है.
सुप्रीम कोर्ट का मजबूती से मानना है कि चुनाव आयोग को कार्यपालिका की अधीनता से “पूरी तरह अलग” रहना चाहिए. यह विचार इस चिंता से पैदा हुआ कि ज्यादातर राजनीतिक दलों के लिए सत्ता अंतिम मकसद बन जाती है और इस तरह सत्तारूढ़ पार्टी यह पक्का करने के लिए कि वह हमेशा सत्ता में बनी रहे, वह एक गुलाम आयोग का बनाना चाहेगी.
Expand3. चुनाव आयोग का स्थायी सचिवालय, संचित निधि होना चाहिए: सुप्रीम कोर्ट
सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार से आयोग का एक स्थायी सचिवालय और खर्च के लिए संचित निधि (consolidated fund) का प्रावधान करने का भी आग्रह किया.
नोट: यह एक निर्देश नहीं है बल्कि “बेहद जरूरी बदलाव लाने पर गंभीरता से विचार करने” की “पुरजोर अपील” है.
Expand4. अरुण गोयल की नियुक्ति का मामला
अरुण गोयल की जिस तरीके से चुनाव आयुक्त के पद पर नियुक्ति की गई थी, उसे लेकर सुप्रीम कोर्ट ने मौखिक टिप्पणी में ‘बिजली की रफ्तार’ का जिक्र किया और अपने फैसले में कहा कि इससे “कुछ प्रासंगिक सवाल” पैदा होते हैं. इसकी वजहों में शामिल हैं:
अदालत ने फैसला सुरक्षित रखने से पहले अटॉर्नी जनरल को मामले से जुड़ी फाइलें पेश करने को कहा था, जिनसे यह पता चलता कि नियुक्ति के समय केंद्र सरकार को मालूम था कि संबंधित मामला सुप्रीम कोर्ट में विचाराधीन है.
गोयल एक आईएएस अफसर के पद से दिसंबर में रिटायर होने वाले थे, नवंबर में उन्होंने वॉलंटरी रिटायरमेंट मांगा और उसी दिन प्रधानमंत्री ने नियुक्ति के लिए उनके नाम की सिफारिश कर दी.
नोट: बेंच ने कहा, वैसे उसकी टिप्पणियां अरुण गोयल की योग्यता पर नहीं हैं और उनके पास शानदार शैक्षणिक योग्यताएं थीं, लेकिन “हमने अकादमिक उत्कृष्टता पर ध्यान दिया है, जो सिविल सर्विस के किसी भी अधिकारी के पास हो सकती है, मगर वह आदर्शों की जगह नहीं ले सकती है. जैसे कि स्वायत्तता और राजनीतिक संबद्धता के पक्षपात से मुक्ति.”
Expand5. सुप्रीम कोर्ट ने ‘बेशर्मी से पक्षपात करते’ मीडिया को लताड़ लगाई
सुप्रीम कोर्ट ने मीडिया के कुछ वर्गों के लिए अपनी नापसंदगी जाहिर की जो “बेशर्मी से पक्षपाती” हो गए हैं और एक स्वतंत्र व निष्पक्ष चुनाव आयोग की नियुक्ति की फौरी जरूरत पर जोर दिया.
सुप्रीम कोर्ट ने टिप्पणी करते हुए कहा कि “देश में चुनावी नजारा वैसा नहीं रहा, जैसा देश के आजाद होने के फौरन बाद के सालों में था.
पिछले कुछ महीनों में ऐसा पहली बार नहीं है कि सुप्रीम कोर्ट ने मीडिया के कुछ वर्गों की लोकतंत्र को खतरे में डालने में निभाई गई भूमिका पर सवाल उठाया है. सुप्रीम कोर्ट ने इस साल जनवरी में टीवी चैनलों की सनसनीखेज खबरों और “एजेंडा परोसने” (serving an agenda) के खिलाफ सख्त टिप्पणी की थी.
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अगर आपसे कुछ छूट गया है तो जान लीजिए...
संविधान का आर्टिकल 324 चुनाव आयोग को “चुनावों की निगरानी, निर्देशन और नियंत्रण” का अधिकार देता है. आर्टिकल 324 में कहा गया है:
"चुनाव आयोग, मुख्य निर्वाचन आयुक्त और अन्य निर्वाचन आयुक्तों, जिनकी नियुक्ति राष्ट्रपति समय-समय पर तय करेंगे, उनसे मिलकर बनेगा. मुख्य निर्वाचन आयुक्त और अन्य निर्वाचन आयुक्तों की नियुक्ति, संसद द्वारा बनाए गए प्रावधानों के अधीन रहते हुए राष्ट्रपति द्वारा की जाएगी."
गुरुवार को दिए फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने आगाह करते हुए कहा:
लेकिन केंद्र सरकार ने चुनाव आयोग के शीर्ष अधिकारियों की नियुक्ति में अब तक आजादी के बाद से ही अपनी मर्जी चलाई है. प्रधानमंत्री की अगुवाई वाली केंद्रीय मंत्रीपरिषद अब तक यह नियुक्तियां करती आई है.
सुप्रीम कोर्ट का आदेश क्या कहता है?
अगर सुप्रीम कोर्ट ( जस्टिस केएम जोसेफ, अजय रस्तोगी, अनिरुद्ध बोस, हृषिकेश रॉय और सीटी रविकुमार की बेंच) के गुरुवार के फैसले के मुख्य अंशों को देखा जाए तो वे हैं-
नियुक्ति के लिए कमेटी का गठन
चुनाव आयोग के लिए स्थायी सचिवालय, संचित निधि के लिए केंद्र सरकार से आग्रह
अरुण गोयल की चुनाव आयुक्त के पद पर नियुक्ति पर सवाल
मीडिया की भूमिका पर सवाल
चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति के लिए प्रधानमंत्री, विपक्ष के नेता और मुख्य न्यायाधीश की समिति
सुप्रीम कोर्ट ने इस फैसले पर पहुंचते हुए कहा, “एक कमजोर चुनाव आयोग के खतरनाक नतीजे होंगे.”
लेकिन याद रखें कि यह व्यवस्था केवल तब तक के लिए है, जब तक कि संसद इस मामले में कानून नहीं बनाती है. जस्टिस केएम जोसेफ ने अपने फैसले में भी इसका उल्लेख किया है.
सुप्रीम कोर्ट का मजबूती से मानना है कि चुनाव आयोग को कार्यपालिका की अधीनता से “पूरी तरह अलग” रहना चाहिए. यह विचार इस चिंता से पैदा हुआ कि ज्यादातर राजनीतिक दलों के लिए सत्ता अंतिम मकसद बन जाती है और इस तरह सत्तारूढ़ पार्टी यह पक्का करने के लिए कि वह हमेशा सत्ता में बनी रहे, वह एक गुलाम आयोग का बनाना चाहेगी.
जस्टिस अजय रस्तोगी ने अपनी सहमति जताते हुए आगे कहा कि अन्य चुनाव आयुक्तों को हटाने की शर्तें भी वहीं होनी चाहिए, जो मुख्य चुनाव आयुक्त को हटाने की हैं. जिससे कार्यपालिका का दखल कम से कम किया जा सके.
खंडपीठ ने इसके अलावा कहा:
चुनाव आयोग का स्थायी सचिवालय, संचित निधि होना चाहिए: सुप्रीम कोर्ट
सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार से आयोग का एक स्थायी सचिवालय और खर्च के लिए संचित निधि (consolidated fund) का प्रावधान करने का भी आग्रह किया.
नोट: यह एक निर्देश नहीं है बल्कि “बेहद जरूरी बदलाव लाने पर गंभीरता से विचार करने” की “पुरजोर अपील” है.
अरुण गोयल की नियुक्ति का मामला
अरुण गोयल की जिस तरीके से चुनाव आयुक्त के पद पर नियुक्ति की गई थी, उसे लेकर सुप्रीम कोर्ट ने मौखिक टिप्पणी में ‘बिजली की रफ्तार’ का जिक्र किया और अपने फैसले में कहा कि इससे “कुछ प्रासंगिक सवाल” पैदा होते हैं. इसकी वजहों में शामिल हैं:
अदालत ने फैसला सुरक्षित रखने से पहले अटॉर्नी जनरल को मामले से जुड़ी फाइलें पेश करने को कहा था, जिनसे यह पता चलता कि नियुक्ति के समय केंद्र सरकार को मालूम था कि संबंधित मामला सुप्रीम कोर्ट में विचाराधीन है.
गोयल एक आईएएस अफसर के पद से दिसंबर में रिटायर होने वाले थे, नवंबर में उन्होंने वॉलंटरी रिटायरमेंट मांगा और उसी दिन प्रधानमंत्री ने नियुक्ति के लिए उनके नाम की सिफारिश कर दी.
नोट: बेंच ने कहा, वैसे उसकी टिप्पणियां अरुण गोयल की योग्यता पर नहीं हैं और उनके पास शानदार शैक्षणिक योग्यताएं थीं, लेकिन “हमने अकादमिक उत्कृष्टता पर ध्यान दिया है, जो सिविल सर्विस के किसी भी अधिकारी के पास हो सकती है, मगर वह आदर्शों की जगह नहीं ले सकती है. जैसे कि स्वायत्तता और राजनीतिक संबद्धता के पक्षपात से मुक्ति.”
सुप्रीम कोर्ट ने ‘बेशर्मी से पक्षपात करते’ मीडिया को लताड़ लगाई
सुप्रीम कोर्ट ने मीडिया के कुछ वर्गों के लिए अपनी नापसंदगी जाहिर की जो “बेशर्मी से पक्षपाती” हो गए हैं और एक स्वतंत्र व निष्पक्ष चुनाव आयोग की नियुक्ति की फौरी जरूरत पर जोर दिया.
सुप्रीम कोर्ट ने टिप्पणी करते हुए कहा कि “देश में चुनावी नजारा वैसा नहीं रहा, जैसा देश के आजाद होने के फौरन बाद के सालों में था.
पिछले कुछ महीनों में ऐसा पहली बार नहीं है कि सुप्रीम कोर्ट ने मीडिया के कुछ वर्गों की लोकतंत्र को खतरे में डालने में निभाई गई भूमिका पर सवाल उठाया है. सुप्रीम कोर्ट ने इस साल जनवरी में टीवी चैनलों की सनसनीखेज खबरों और “एजेंडा परोसने” (serving an agenda) के खिलाफ सख्त टिप्पणी की थी.
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