दिल्ली बॉर्डर पर जमा हजारों किसानों के प्रदर्शन को धार देने के लिए करीब 1 महीने से तरह-तरह की गतिविधियां चल रही हैं. सड़क पर तो ये किसान अपनी मांगों के लिए डटे हुए हैं ही साथ ही सोशल मीडिया पर इसे धार देने के लिए अकाउंट बनाने से लेकर अपनी आवाज रखने के लिए अखबार निकालने तक की कवायदें हो रही हैं. 4 पन्नों का 'ट्रॉली टाइम्स' अखबार भी इसी प्रदर्शन की देन है. पंजाबी और हिंदी भाषाओं के आर्टिकल-कविताओं वाले इस अखबार को कुछ युवा चला रहे हैं और इसे प्रदर्शन को धार दे रहे कलाकार, एक्टिविस्ट और लेखकों का साथ मिल रहा है.हालांकि, अखबार ने साफ कर दिया है कि वो 'संयुक्त किसान मोर्चा' की आधिकारिक आवाज नहीं हैं.
'जुडेंगे, लड़ेंगे, जीतेंगे'
'जुडेंगे, लड़ेंगे, जीतेंगे' की हेडलाइन वाला ट्रॉली टाइम्स का पहला एडिशन 18 दिसंबर को रिलीज हुआ. 2 हजार कॉपियां छापी गईं. कई अखबारों, न्यूज पोर्टल्स से बातचीत में ट्रॉली टाइम्स के मेंबर्स ने बताया कि अखबार को छापने में कुल खर्च 11 हजार रुपये का आया. इस हफ्ते टीम ने 5 हजार प्रतियां छापी हैं. टीम अब पहले एडिशन को इंग्लिश में ट्रांसलेट कर छापने की तैयारी में है. 22 दिसंबर को जारी दूसरे एडिशन में हिंदी और पंजाबी में कई आर्टिकल, कुछ कविताएं छपी हैं. फ्रंट पेज किसान नेताओं की बात रखने के लिए दिया गया है.
पी साईंनाथ के स्तंभ, ट्रॉली टाइम्स पर रवीश कुमार की टिप्पणी और पाश की कविताएं भी आप इस एडिशन में छपा देख सकते हैं. 4 पेज के इस अखबार के सबसे आखिरी पन्ने पर कुछ तस्वीरें और पेंटिंग्स हैं, जिसमें किसान आंदोलन से जुड़ी गतिविधियों को उकेरा गया है.
'वॉइस ऑफ किसान प्रोटेस्ट' की टैगलाइन वाले इस अखबार का 'हेडक्वॉर्टर' ट्रैक्टर-ट्रॉली ही है. सिंघु बॉर्डर हो या गाजीपुर बॉर्डर, कई किलोमीटर तक आपको ट्रैक्टर-ट्रॉली की लाइन दिख जाएंगी. प्रदर्शनकारी खेती-किसानी के अघोषित सिंबल ट्रैक्टर-ट्रॉली को लेकर ही प्रदर्शन में आए हैं. इन ट्रॉलियों को 'चलते-फिरते घर' जैसा इस्तेमाल किया जा रहा है. ट्रॉली टाइम्स का भी आइडिया कहीं न कहीं ऐसे ही ट्रैक्टर-ट्रॉलियों के बीच ही आया था, इसलिए नाम भी मिलता जुलता ही है.
'ट्रॉली टाइम्स' की टीम
इंडियन एक्सप्रेस के मुताबिक, इस अखबार को चलाने वाले अहम सदस्य सुरमित मावी जो पेशे से स्क्रिप्ट राइटर है, डेंटिस्ट नवकिरण नट, डाक्युमेंट्री फोटोग्राफर गुरदीप सिंह धालीवाल, प्रोफेशनल वीडियोग्राफर जस्सी सांघा और किसान नरिंदर भिंडर हैं. इनके अलावा भी कई लोग इस अखबार से जुड़े कामकाज में मदद करते हैं. इन सदस्यों ने अपने-अपने काम बांट लिए हैं और पूरी शिद्दत के साथ 'किसान आंदोलन' की आवाज बनने में लगे हुए हैं.
ट्रॉली टाइम्स के हिंदी कंटेंट और डिस्ट्रीब्यूशन से जुड़ी नवकिरण नट के माता-पिता भी पंजाब किसान यूनियन से जुड़े हुए हैं. उनके फिजियोथेरेपिस्ट भाई अजय पाल नट भी अब बहन के साथ मिलकर इस आंदोलन से जुड़ गए हैं. मतलब कि पूरा परिवार ही इस प्रदर्शन के समर्थन में न सिर्फ आगे आया है बल्कि अपना योगदान भी दे रहा है.
आखिर क्यों लाना पड़ा ट्रॉली टाइम्स?
अखबार से जुड़े सदस्यों ने अलग-अलग मीडिया रिपोर्ट्स में एक ही बात कही है कि मौजूदा वक्त में प्रदर्शनाकारियों का भरोसा बड़े मीडिया कंपनियों में कम हुआ है. बड़े मीडिया हाउस न सिर्फ कभी-कभी इन प्रदर्शनों की धार कमजोर करने से जुड़ी खबरें करते हैं, साथ ही तथ्यों में हेरफेर की भी शिकायतें आती हैं. ऐसे में 'फेक न्यूज' को काउंटर करने और अलग-अलग बॉर्डर पर प्रदर्शन कर रहे किसानों में कम्युनिकेशन को मजबूत करने के लिए इस अखबार का विचार आया.
ब्लूमबर्ग क्विंट से बातचीत में अजय पाल नट कहते हैं कि हम सब खेती-किसानी से ताल्लुक रखते हैं, हमारे बड़े लोगों ने काफी मेहनत करते हमें शिक्षा दिलाई है, अगर हम इस शिक्षा का इस्तेमाल उनकी मदद के लिए नहीं कर सकेंगे तो क्या फायदा. पेज दो और तीन पर कई तरह की स्टोरीज होती हैं चौथे पेज पर आर्ट, कविता और निबंध रखते हैं.
कुल मिलाकर ट्रॉली टाइम्स मौजूदा किसान प्रदर्शन के दौर में हर वो तरीके अपना रही है जिससे किसानों की बात, नजरिया और खबर सभी प्रदर्शनकारी किसानों तक पहुंच सके. आंदोलन से जुड़े फेक न्यूज को काउंटर किया जा सके और प्रदर्शऩ से जुड़ी सटीक जानकारी पहुंचाई जा सके.
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