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संडे व्यू: अब भारत ‘आंशिक आजाद’, चीनी हैकर्स ज्यादा खतरनाक

संडे व्यू में पढ़ें पी चिदंबरम, टीएन नाइनन, एसए अय्यर और तवलीन सिंह के आर्टिकल.

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भारत
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‘आंशिक आजाद’ क्यों है मोदी का भारत?

टीएन नाइनन बिजनेस स्टैंडर्ड में लिखते हैं कि शी जिनपिंग और मुसोलिनी ने जिस तरह अपनी पार्टी और शासन को परिभाषित किया है, वैसी ही कोशिश भारत में भी की जा रही है. अमेरिकी एनजीओ ने इसे ‘आंशिक रूप से मुक्त’ आजादी के तौर पर व्यक्त किया है. सोशल मीडिया के लिए जारी किए गए नियम भारत सरकार की ऐसी ही अभिव्यक्ति है. डिजिटल समाचार मीडिया पर भी असंतुष्ट आवाजों को ‘बेअसर’ करने का इरादा साफ जाहिर होता है. खेल और मनोरंजन की तरह दूसरे क्षेत्रों पर भी सरकार की नजर है. स्टेडियम का नामकरण ताजा उदाहरण है.

नाइनन लिखते हैं कि राजनीति में वित्तीय स्रोतों पर कब्जा हासिल कर लिया गया है. सिविल सोसायटी संगठन अपने आर्थिक स्रोतों को सोख लिया महसूस कर रहे हैं. जिमखाना क्लब के प्रबंधन तक का अधिग्रहण हो चुका है. सर्वोच्च शैक्षणिक संस्थानों में से जेएनयू और जामिया मिलिया इस्लामिया में अलग-अलग तरीकों से घेराबंदी की गयी है.

कुलपतियों के चयन में सावधानी बरती गयी है. समकालीन भारतीय इतिहास से नेहरू के नाम को मिटाने के लिए स्कूलों के पाठ्यपुस्तकों का पुनर्लेखन जारी है. लेखक का मानना है कि राहुल को चाहिए कि वे इतिहास पर अपने नजरिए को साफ करें. खासकर तब जब वे आपातकाल को गलती बताते हैं. देश के विभिन्न संस्थानों से उठती रही आवाज और छटपटाहट पर उन्हें ध्यान देना चाहिए.

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टूलकिट से ज्यादा चिंता का विषय हैं चीनी हैकर्स

द टाइम्स ऑफ इंडिया में एसए अय्यर ने लिखा है कि मुंबई और तेलंगाना को अंधकार में डुबोने के लिए चीन की हैकिंग जिम्मेदार थी. हालांकि, बिजली मंत्री ने इससे इनकार किया है, लेकिन अमेरिकी कंपनी ने दावा किया है कि भारत के 10 प्रतिष्ठानों को चीनी हैकरों ने लक्ष्य बनाया था. इनमें दो समुद्री बंदरगाह भी थे. भारत से बाहर भी ऐसी हैकिंग के प्रयास देखे गए हैं. भारत में भ्रष्टाचार के कारण ऐसी घटनाएं आसान हैं. पहले की घटनाओं में भी राजनीतिक संरक्षण की वजह से किसी पर कार्रवाई नहीं हुई.

अय्यर लिखते हैं कि इन घटनाओं की तुलना रिहाना और ग्रेटा थनबर्ग के ट्वीट और टूलकिट से करें तो अब तक सरकार किसानों और खालिस्तानियों के बीच कोई संबंध नहीं खोज पायी है.

लेखक ने केजीबी अधिकारी वासिली मित्रोखिन के दस्तावेजों के आधार पर कैंब्रिज के इतिहासकार क्रिस्टोफर एंड्र्यू की लिखी किताब ‘मित्रोखिन आर्काइव टू’ का जिक्र किया है जिसमें कहा गया है कि भारत के राजनीतिज्ञ, नौकरशाह और खुफिया अधिकारी बिकाऊ हैं. तब बीजेपी ने खूब हल्ला मचाया था, लेकिन सत्ता में आने के बाद से इस विषय पर मौन है. इंदिरा गांधी के शासनकाल में 10 भारतीय अखबार और प्रेस एजेंसियां सोवियत संघ के पे रोल पर थे. 1972 में केजीबी का दावा था कि उसने भारतीय अखबारों में 3500 आर्टिकल छपवाए. भारतीय कैबिनेट को भी नियमित रूप से केजीबी भुगतान करता रहा. इस पुस्तक से पता चलता है कि केजीबी ने अमेरिका को भी इस मामले में मात दे दी.

लेखक ने पैट्रिक मोइनिहान ने अपनी किताब में लिखा है कि पश्चिम बंगाल और केरल में कम्युनिस्टों के खिलाफ चुनाव अभियान में सीआईए ने कांग्रेस की फंडिंग की थी. हाल में चीन की ओर से हुई हैकिंग की घटना के बाद जरूरत है कि ऐसी व्यवस्था की जाए की पूरी व्यवस्था को कोई भेद न पाए.

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अर्थव्यवस्था ही नहीं, कमजोर हो रही है आजादी भी

द इंडियन एक्सप्रेस में पी चिदंबरम ने अर्थव्यवस्था की स्थिति को लेकर गंभीर चिंता जतायी है और लिखा है कि अर्थव्यवस्था ही नहीं, आजादी भी कमजोर हो रही है. वे लिखते हैं कि तीसरी तिमाही में 0.4 फीसदी की वृद्धि दर के अनुमान पर जश्न मना रही है सरकार, जबकि पिछले साल के मुकाबले ऋणात्मक 8 फीसदी विकास दर का अनुमान बहुत ही बुरा है. कृषि, वानिकी और मत्स्य पालन के साथ-साथ निर्माण क्षेत्र ने आर्थिक विकास दर को संभाले रखा है. जीडीपी के मुकाबले पूंजीनिर्माण का अनुपात 30.9 रह गया है, जबकि निर्यात और आयात 19.4 और 20.4 फीसदी रह गए हैं. प्रतिव्यक्ति जीडीपी 1 लाख रुपये से गिरकर 98,928 रुपये पर आ चुकी है. जाहिर है लोग और गरीब हुए हैं.

चिदंबरम लिखते हैं गैर आर्थिक क्षेत्र से भी बुरी खबर है. अब हम ‘आंशिक आजाद’ देश रह गए हैं. मीडिया को पालतू बनाकर आत्मसमर्पण करा दिया गया है.

महिलाओं, मुसलमानों, ईसाइयों, दलितों और आदिवासियों के खिलाफ अपराध बढ़ गए हैं. आतंकवाद और कोरोना फैलाने को लेकर मुसलमानों को बलि का बकरा बनाया जा रहा है. सरकार अधिक तानाशाह हो गई है. पुलिस और प्रशासन को अधिक दमनकारी बना दिया गया है. लेखक का मानना है कि गिरती अर्थव्यवस्था और खत्म होती आजादी दोनों मिलकर स्थिति को विस्फोटक बना रही है. इसे रोका जाना चाहिए. पंजाब, यूपी और हरियाणा के किसानों ने प्रतिरोध का रास्ता चुना है. असम, पश्चिम बंगाल, केरल, पुडुचेरी और तमिलनाडु के मतदाताओं के सामने दूसरा रास्ता है.

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म्यांमार में घायल लोकतंत्र

द टेलीग्राफ इंडिया में लैरी जगन लिखते हैं कि म्यांमार में लोकतंत्र समर्थकों के लगातार प्रतिरोध के बीच देश के जनरलों की नींद उड़ी हुई है. सैन्य बगावत के एक महीने बाद भी नागरिकों का सविनय अवज्ञा आंदोलन जारी है. अर्थव्यवस्था पर बुरा असर पड़ रहा है. बैंक बंद हैं, सरकारी दफ्तर खाली हैं और देश में ईंधन की कमी होने लगी है. ज्यादातर अस्पताल, विश्वविद्यालय और स्कूल बंद हैं. सेना लगातार अपनी कार्रवाई मजबूत कर रही है.

फरवरी में 18 लोगों को जान से हाथ धोना पड़ा है. गैर-सरकारी सूत्रों से यह संख्या और भी अधिक है. बगावत करने वाले सैन्य नेताओं ने राजनीतिक सुधार की योजनाओं पर भी काम करना शुरू कर दिया है.

म्यांमार के शीर्ष पदस्थ जनरल जानते हैं कि आंग सान सू की लोकतंत्र की प्रतीक हैं. इसलिए सू की के चरित्र पर चौतरफा हमले जारी हैं. हर सुनवाई के दौरान नये आरोप जोड़ दिए जा रहे हैं. भ्रष्टाचार और राजद्रोह के आरोपों में अगर उन्हें सजा होती है तो वह चुनाव नहीं लड़ पाएंगी. उम्मीद जतायी जा रही है कि अगले साल चुनाव कराए जाएंगे.

म्यांमार में लोकतंत्र और निर्देशित लोकतंत्र के बीच का संघर्ष जारी है. सेना के प्रभुत्ववाली निर्देशित लोकतंत्र को बनाए और बचाए रखने के लिए सेना प्रयत्नशील है. सेना एनएलडी की ओर भी दे रही है जिसकी पकड़ जनता में कमजोर है. लोग 1958 की घटना भी याद कर रहे हैं जब सेना प्रमुख जनरल ने विन ने सत्ता हथिया ली थी और फरवरी 1960 में चुनाव कराया था.

2008 में बने संविधान से वैकल्पिक सत्ता की राह तलाशी जा रही है. सेना ऐसी राजनीतिक व्यवस्था चाहती है जिसमें सेना की भी भागीदारी हो. सेना थाइलैंड मॉडल पर चलने की सोच रही है.
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अतीत से नहीं सीख रहे हैं राहुल-प्रियंका

तवलीन सिंह ने द इंडियन एक्सप्रेस में लिखा है कि चुनाव के मौसम में एक बार फिर गांधी परिवार की विरासत संभाल रहे राहुल गांधी और प्रियंका गांधी सक्रिय हैं. प्रियंका असम के चाय बागान में सक्रिय दिख रही हैं. खेत में महिला किसान के हाथ की उंगली की सख्ती देखकर वह उनके दुखों को कम करने को अपना राजनीतिक धर्म बताती हैं. मगर, उनकी दशा सुधारने के बारे में सोचती वह नज़र नहीं आतीं. हालांकि, प्रियंका की दादी गरीबी खत्म करने की बात किया करती थीं.

तवलीन सिंह लिखती हैं कि राहुल गांधी को याद आया है कि उनकी दादी ने जो इमर्जेंसी लगायी थी वह गलत था. मगर, वे कहते हैं कि तब देश की संवैधानिक संस्थाओं पर हमले नहीं हुए थे.

लेखिका इसे सरासर झूठ बताती हैं. उनका कहना है कि न्यायपालिका समेत तमाम संवैधानिक संस्थाएं दबाव में थीं. विपक्ष को जेल में बंद कर दिया गया था. तब सुप्रीम कोर्ट तक ने मौलिक अधिकारों को निलंबित करने का समर्थन किया था. लेखिका का कहना है कि आम युवकों के साथ नदी में तैरकर राहुल गांधी मानो संदेश देना चाहते हैं कि वे भी आम युवकों की तरह है.

तवलीन सिंह लिखती हैं कि इससे पता चलता है कि नरेंद्र मोदी क्यों दो बार चुनाव जीतकर आए हैं. खुले में शौच अब कम हुए हैं, गांव-गांव गैस के चूल्हे पहुंचे हैं, गांवों में इंटरनेट है, हर घर में नल से जल उपलब्ध कराया जा रहा है. अगर ये काम पहले हुए होते तो आज भारत की तस्वीर कुछ और होती.

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