क्या चीज आपको दलित बनाती है? क्या आपकी हड्डियां दलित हैं? या आपके दांत? या आपके कंधे? या आपके हाथ? नहीं, जवाब है आपका उपनाम. आपकी जाति. एक अकेली चीज जिसके कारण आपको दबाया जाएगा, भेदभाव किया जाएगा, और शर्मिन्दा किया जाएगा.
अपनी दलित पहचान के उजागर करने के बाद टम्बलर पर डाक्यूमेन्ट्स ऑफ दलित डिस्क्रिमनेशन नाम से ब्लॉग चलाने वाली याशिका दत्त कहती हैं, अब और नहीं.
याशिका, जो पहले अपनी पहचान बताने में डरती थी, हैदराबाद विश्वविद्यालय के दलित पीएचडी छात्र रोहित वेमुला की मृत्यु के बाद छपी उनकी फेसबुक पोस्ट को पढ़कर मुखर हुईं. याशिका लिखती हैं कि उसकी आत्महत्या ने उन्हें यह याद दिलाया कि उनका इतिहास शर्मिन्दगी का नहीं बल्कि उत्पीड़न का है.
उसने (रोहित वेमुला) मुझे यह स्वीकार करना सिखाया कि मेरे परदादा ने गीली मिट्टी में डंडी चलाकर लिखना सीखा क्योंकि ऊंची जाति के अध्यापकों ने उन्हें स्लेट पर लिखना नहीं सीखने दिया. और उसने मुझे गर्व का एहसास करवाया.
उसके बाद से, डॉक्यूमेन्ट्स ऑफ दलित डिस्क्रिमनेशन ब्लॉग पर एक जातिवादी समाज में दलित के तौर पर रहने और आगे बढ़ने से जुडीं कहानियां लोग भेज रहे हैं.
उन्होंने भेदभाव के डर से अपना उपनाम बदल लिया
अर्चना गोरेयह घटना बहुत से लोगों के साथ हुई. यहां तक कि आज भी अनुसूचित जाति /अनुसूचित जनजाति का होना अमान्य बात है. मैं कुछ परिवारों को जानती हूं जिन्होंने सिर्फ इसलिए अपना उपनाम बदल लिया क्योंकि उसके कारण लोगों को उनकी जाति का पता चलता था और उनसे साथ भेदभाव किया जाता था. लोग एक इंसान के बजाय उसकी जाति को जानने में ज्यादा इच्छुक रहते हैं. मुझे भी यह कहने में गर्व है कि में अनुसूचित जाति से हूँ. मेरे उपनाम पर मत जाइए. मैं ब्राह्मण नहीं हूँ.
कक्षा 4 में भेदभाव का सामना किया
अरी पुरुषुस्कूल और कॉलेज के समय दलित पहचान को छिपाय आप अकेले नहीं हैं. कक्षा 4 में, मेरी प्रधानाध्यापिका ने स्कूल में बड़ा हंगामा खड़ा कर दिया जब किसी छात्र ने एक ब्राह्मण लड़की के पास बैठ कर अंडा खा लिया. यह जातिवादी सर्वोच्यता के विचार से मेरा पहला सामना था जो उसके बाद से बढ़ता ही रहा है. जाति एक वास्तविकता है. हमें जाति के आधार पर होने वाले भेदभाव से मिलकर लड़ना होगा.
मेरे माता-पिता ने मुझे कभी नही बताया. दलित के तौर पर पहचाने जाने के कारण होने वाले अपमान के अनुभव के कारण ही शायद उन्होंने मुझे यह बताना सही नहीं समझा.
निशा सुसन, लेखक और संपादकमेरे माता-पिता ने हिंदू जाति के तौर पर रहने के लिए मुझे एक काल्पनिक उपनाम दिया, निम्बेकर. मेरे माता-पिता ने शिक्षा और रोजगार में मिलने वाले आरक्षण से दूर रखने के लिए कभी मेरा अनुसूचित जाति प्रमाणपत्र भी नहीं बनवाया . इस कारण, स्कूल और कॉलेज के दिनों मे मैं छिपा हुआ दलित बना रहा. 18 साल के होने के बाद ही मेरी दलित पहचान सामने आई.
यहां तक की शीर्ष बिजनेस स्कूल भी इससे अछूते नहीं हैं
गुमनाममैं शहरी दक्षिण भारत में बड़ा हुआ, जहां तुलनात्मक रुप से स्कूलों में जाति आधारित भेदभाव नहीं था. मेरे पिता एक सरकारी कर्मचारी थे और उन्होंने जाति भेदभाव का सामना किया था लेकिन उन्होंने हमारे सामने इस बारे में बात नहीं करके हमें इससे बचाए रखा. सामान्य तौर से हमें इस चीजों उपेक्षा करके आगे बढना सिखाया गया. मेरी स्नातक की पढ़ाई के दिनों में कभी – कभी कोई टिप्पणी या जातिवादी मज़ाक किया जाता था लेकिन मैंने इस पर ध्यान नहीं दिया क्योंकि मुझे सीधे तौर पर कुछ नहीं कहा गया था.
दुर्भाग्य से सबसे पहले सार्वजनिक रूप से अपमान का सामना मुझे भारत के एक शीर्ष बिजनेस स्कूल में करना पड़ा, मैं इस बात पर जोर देना चाहूंगा कि वहां मेरा दाखिला नियोक्ता पोषित प्रबंध कार्यक्रम में एक सामान्य छात्र के रूप में हुआ था (जाति आरक्षण के आधार पर नहीं). कॉरपोरेट फाइनेंस के पाठ्यक्रम में एकाउंटिग का एक सिद्धांत मेरी समझ में नहीं आ रहा था और मैंने अध्यापक से सहायता मांगी. उनकी प्रतिक्रिया थी, “ओह लड़के मेरे उपनाम के साथ उन्होंने कहा, मुझे नहीं लगता कि तुम इसको आसानी से समझ सकते हो. तुम अपने किसी ‘अयंगर’ या ‘अग्रवाल’ साथी से क्यों नहीं पूछ लेते अगर वे सहायता के सकें?” पूरी कक्षा इस मजाक पर हंसी. लेकिन उस दिन मुझे एहसास हुआ कि मैं चाहे कितना भी पढ-लिख जाऊं लेकिन आखिरकार मेरी पहचान मेरी निचली जाति और उस वजह से अयोग्य जाति के तौर पर ही होगी.
दलित भेदभाव के खिलाफ विमर्श को ना केवल अकादमिक हलकों में, बल्कि सोशल मीडिया और रोजमर्रा की बातचीत में शुरु करने के लिए ये बहादुर कहानियां एक मजबूत कदम हैं.
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