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हाथरस केस: पीड़ित परिवार पर नार्को-पॉलिग्राफ टेस्ट थोपना गैरकानूनी

सुप्रीम कोर्ट के सेल्वी केस में दिए गए फैसले के बाद इन टेस्ट को कराने के लिए संबंधित शख्स की सहमति लेना जरूरी

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शुक्रवार की रात, यानी 2 अक्टूबर को उत्तर प्रदेश सरकार ने एक प्रेस नोट जारी किया. इसमें कहा गया था कि हाथरस केस (Hathras) की जांच के लिए गठित SIT की पहली रिपोर्ट आने के बाद मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने इस मामले से जुड़े कई पुलिस अधिकारियों (एसपी सहित) को निलंबित करने के आदेश दिए हैं.

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प्रेस नोट के नीचे एक लाइन में यह भी लिखा था कि जांच अधिकारी इन पुलिस अधिकारियों के अलावा मामले के शिकायतकर्ताओं (वादी) और आरोपियों (प्रतिवादियों) का पॉलिग्राफ और नार्को टेस्ट करेंगे.

योगी सरकार ने मामले से जुड़े सभी लोगों के लाइ डिटेक्टर टेस्ट और ट्रुथ सिरम टेस्ट कराने के आदेश दिए हैं.

सच्चाई तो यह है कि यह निर्देश पीड़िता के परिवार वालों पर भी लागू होता है. इस कथित गैंगरेप और हत्या के मामले में जबरदस्त विवाद है, चूंकि पीड़िता के परिवार वालों को आखिरी के दिनों में उनके घरों में बंद कर दिया गया. पुलिस ने उन्हें लड़की का अंतिम संस्कार नहीं करने दिया और खुद उसके शव को रातों रात जला दिया.

सेलवी बनाम कर्नाटक राज्य मामले में सुप्रीम कोर्ट का फैसला

भले पॉलिग्राफ टेस्ट के बारे में ज्यादा लोग नहीं जानते हों लेकिन नार्को एनालिसिस के बारे में घर-घर में लोग जान गए थे, जब उसे 2000 की शुरुआत में बेंगलूरू फॉरेंसिक साइंस लेबोरेट्री में किया गया था.

इसके लिए सबसे पहले किसी व्यक्ति को सोडियम पेंटोहाल या सोडियम एमीटल का इंजेक्शन दिया जाता है और फिर उससे सवाल पूछे जाते हैं. इस तकनीक का इस्तेमाल अपराधी सरगना अरुण गवली और अबू सलेम, जालसाज अब्दुल करीम तेलगी और आरोपी नक्सली अरुण फरेरा पर किया जा चुका है.

हालांकि अपराधियों से जवाब हासिल करने की इन तकनीकों का पहले-पहल स्वागत किया गया लेकिन बाद में ये सवाल उठने लगे कि क्या लोगों की सहमति के बिना उन पर टेस्ट किए जाने चाहिए. भारतीय संविधान काअनुच्छेद 20(3) व्यक्ति को आत्म अभिशंसन से संरक्षण देता है, यानी किसी अभियुक्त को खुद अपने विरुद्ध साक्षी होने के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता.

ऐसे कई लोग हैं जिन्होंने इस आधार पर अदालतों में इन टेस्ट्स को चुनौती भी दी है. अरुण फरेरा को तो बाद में सभी आरोपों से बरी कर दिया गया था.उन्होंने बेंगलूरू एफएसएल की असिस्टेंट डायरेक्टर पर आरोप लगाया था कि उन्होंने उन पर नार्को एनालिसिस के परिणामों को फैब्रिकेट किया था.उसी असिस्टेंट डायरेक्टर जिसे डॉक्टर नार्को और नार्को क्वीन कहा गया था, को 2009 में नौकरी से निकाल दिया गया था क्योंकि उन्होंने नौकरी पाने के लिए नकली एजुकेशनल सर्टिफिकेट्स बनवाए थे.

सुप्रीम कोर्ट ने नार्को एनालिसिस, पॉलिग्राफ एग्जामिनेशन और ब्रेन इलेक्ट्रिकल एक्टिवेशन प्रोफाइल (बीईएपी) टेस्ट्स को चुनौती देने वाले कई मामलों की सुनवाई की जिसमें कहा गया था कि कैसे लोगों की मर्जी के बिना उन पर परीक्षण किए गए.

5 मई 2010 को अदालत ने सेल्वी बनाम कर्नाटक राज्य के मामले में एक गेम चेंजिंग फैसला सुनाया. इस मामले में अदालत ने कहा कि इन टेस्ट्स को अनिवार्य रूप से करना ‘खुद के खिलाफ गवाह न बनने के अधिकार’ का उल्लंघन है (संविधान के अनुच्छेद 20(3) के अंतर्गत) साथ ही यह यथोचित प्रक्रिया के मानदंड का उल्लंघन है जोकि व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकार (अनुच्छेद 21) का हिस्सा है.

अदालत ने यह भी कहा था कि लोगों को इन टेस्ट्स के लिए मजबूर करना, ‘एक व्यक्ति की मानसिक एकांतता में अनुचित घुसपैठ है’ और ‘एक क्रूर, अमानवीय और अपमानजनक व्यवहार’ के बराबर है. इन तकनीकों केनतीजों पर भरोसा करना ‘निष्पक्ष सुनवाई के अधिकार’ का भी हनन है.

“इन निष्कर्षों के मद्देनजर हम मानते हैं कि किसी भी व्यक्ति को जबरन किसी भी तकनीक का विषय नहीं बनाया जाना चाहिए, चाहे वह आपराधिक मामलों की जांच के संदर्भ में हो या अन्यथा. ऐसा करने से व्यक्तिगत स्वतंत्रता में अनुचित दखल होगी.”- सुप्रीम कोर्ट

फैसले से स्पष्ट है कि यह सिर्फ आरोपियों पर ही नहीं, चश्मदीदों पर भी लागू होता है (देखें पैरा 221). इसलिए जब बात हाथरस मामले की आती है तो यह टेस्ट किसी पर जबरन नहीं किया जा सकता- न तो आरोपियों पर, न ही पीड़ित के परिवार वालों पर- पुलिस वालों पर भी नहीं, इसके बावजूद कि उन्होंने काफी अराजक तरीके से काम किया है.

सुप्रीम कोर्ट के फैसले से यह भी स्पष्ट है कि ऐसी कोई परिस्थिति नहीं, जब इस नियम को नजरंदाज किया जा सकता है. प्रशासन यह दावा नहीं कर सकता कि जनहित में इस नियम को तोड़ना जरूरी है- चाहे वह कानून व्यवस्था की स्थिति हो या फिर राष्ट्रीय सुरक्षा की.

उल्लेखनीय है कि यह नार्को एनालिसिस के अलावा पॉलिग्राफ टेस्ट पर भी लागू होता है. ध्यान देने वाली बात यह है कि उत्तर प्रदेश सरकार ने प्रेस नोट में दोनों टेस्ट कराने की बात कही है.

अगर टेस्ट स्वेच्छा से कराए जाएं तब क्या होगा

योगी सरकार के आदेश का सुप्रीम कोर्ट के फैसले से तभी टकराव नहीं होगा, जब पॉलिग्राफ और नार्को टेस्ट अनिवार्य रूप न किए जाएं, और लोगों की सहमति से कराए जाएं. इसके विपरीत प्रेस नोट में यह शर्त नहीं दी गई है.

प्रशासन ने जिस मनमाने और बदमिजाज तरीके से काम किया है, उसे देखते हुए यह सोचना मुश्किल है कि मुख्यमंत्री के आदेश का पालन करने से पहले वह किसी की मंजूरी लेगा.

अगर लोग नार्को और पॉलिग्राफ टेस्ट्स के तैयार भी हो जाएं तो इसके लिए कुछ महत्वपूर्ण शर्तें हैं.

पहला, अगर वे टेस्ट के लिए तैयार हो जाते हैं तो उनके द्वारा नतीजों को कानून की अदालत में सबूत के तौर पर पेश नहीं किया जा सकता, जैसा कि सुप्रीम कोर्ट ने कहा था, ‘टेस्ट के दौरान व्यक्ति का अपनी प्रतिक्रियाओं पर सचेत नियंत्रण नहीं होता’. स्वैच्छिक परीक्षण के बाद खोजी गई वस्तुओं को सबूत के तौर पर पेश किया जा सकता है.

दूसरा, टेस्ट के संचालन को सिर्फ इसीलिए स्वैच्छिक नहीं माना जा सकता क्योंकि यह पुलिस का दावा है. सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि पॉलिग्राफ टेस्ट्स के लिए राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के दिशानिर्देशों के समान एक पूरी प्रक्रिया का ‘कड़ाई से पालन किया जाना चाहिए’ जिसमें निम्नलिखित कदम शामिल होंगे-

  • अगर कोई व्यक्ति टेस्ट के लिए स्वेच्छा दिखाता है, तो उसे वकील उपलब्ध होना चाहिए. पुलिस और वकील द्वारा उसे यह बताया जाना चाहिए कि ऐसे टेस्ट्स के शारीरिक, भावनात्मक और कानूनी प्रभाव क्या हो सकते हैं.

  • अगर व्यक्ति फिर भी टेस्ट कराने के लिए तैयार है, उसकी सहमति को ज्यूडीशियल मेजिस्ट्रेट के सामने रिकॉर्ड किया जाना चाहिए.

  • मेजिस्ट्रेट के सामने सुनवाई के दौरान व्यक्ति के पास एक लीगल प्रतिनिधि होना चाहिए. सुनवाई के दौरान उस व्यक्ति को स्पष्ट शब्दों में बताया जाना चाहिए कि बयान को ‘इकबालिया बयान’ के तौर पर नहीं माना जाएगा. इसे पुलिस के सामने बयान के तौर पर ही माना जाएगा.

  • इस टेस्ट की वास्तविक रिकॉर्डिंग किसी स्वतंत्र एजेंसी द्वारा की जाएगी (पुलिस लैब नहीं, जैसे अस्पताल).

  • टेस्ट के दौरान सूचना प्राप्त करने के तरीके का एक पूर्ण मेडिकल और तथ्यात्मक वर्णन रिकॉर्ड में रखा जाना चाहिए.

हाथरस मामले में जांच अधिकारी को मुख्यमंत्री के आदेश का पालन करने के दौरान इन दिशानिर्देशों का कड़ाई से पालन करना चाहिए. अगर सरकार के आदेश में इन प्रक्रियाओं को दोहराया गया होता तो बहुत अच्छा होता. वैसे सबसे पहली बात तो यह है कि मुख्यमंत्री को यह निर्देश देने ही नहीं चाहिए कि कोई जांच किस तरह की जानी चाहिए.

जांच अधिकारी के लिए एक मुश्किल यह भी है कि इलाहाबाद हाई कोर्ट ने 12 अक्टूबर को इस मामले से जुड़े पुलिस अधिकारियों को पेश होने को कहा है ताकि वे अपनी करतूतों को स्पष्ट कर सकें और पीड़िता के परिवार वालों से कहा है कि वे अपना पक्ष रखें.

इस मामले पर तमाम आलोचनाओं के बीच योगी सरकार यह संदेश देना चाहती है कि वह कड़ी कार्रवाई कर रही है. पर उसे यह भूलना नहीं चाहिए कि उसे खुद अपने नियम नहीं बनाने, कानून का रास्ता अपनाना है. कहा भी जाता है ना... कि कानून सबसे ऊपर है.

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